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शिवचरित्रमाला (भाग – 8 ) "हमारे सबसे भयंकर दुश्मन हैं – अज्ञान और आलस्य!"

शहाजीराजे विजापुर में नजरबंद थे (16 मई 1649 से आगे)
इस दौरान शिवाजी महाराज के लिए आदिलशाह के खिलाफ कोई हलचल करना संभव नहीं था। उनकी महत्वाकांक्षाएं रुकी हुई थीं।
परंतु शांत बैठना उनके स्वभाव में नहीं था।

उन्हें यह भलीभांति ज्ञात था कि उनके असली शत्रु हैं:

  • आदिलशाह
  • जंजीरा का सिद्दी
  • गोवा के फिरंगी
  • दिल्ली के मुग़ल

लेकिन इन सबसे भी अधिक ख़तरनाक दो शत्रु उनके अपने लोगों के मन में घर कर चुके थे —
पहला था आलस्य और दूसरा था अज्ञान

इन दोनों शत्रुओं को शिवाजी महाराज ने अपने स्वराज्य की सीमाओं के पार खदेड़ दिया था।
वे स्वयं निरंतर परिश्रम करते थे।
उनके लिए विश्राम = आलस्य था, जिसे वे बिल्कुल भी सहन नहीं करते थे।
उनके गुप्तचर कोकण की घाटियों और समुद्र तटों पर हर आवश्यक-अनावश्यक जानकारी जुटा रहे थे, क्योंकि अगला बड़ा कदम कोकण की दिशा में था।

इसी दौरान उनकी नजर पुणे से लगभग 10 मील दूर कोंढवे गांव पर पड़ी।
यह गांव कोंढाणा से भुलेश्वर तक फैली पर्वतमाला की ढलान पर स्थित था।
यहां से बोपदेव घाट के रास्ते कऱ्हे पठार तक प्राचीन मार्ग जाता था।
गांव में गर्मियों के दौरान पानी की भारी किल्लत होती थी।

शिवाजी महाराज ने गांव के समीप बांध बनाने का निर्णय लिया।
जो भी थोड़ा-बहुत वर्षा जल होता, उसे एक बंधारे के ज़रिये रोका जा सकता था।
कम खर्च में और अच्छे अध्ययन के आधार पर यह कार्य संभव था।

राजा ने स्वयं स्थल निरीक्षण किया, स्थान तय किया,
लेकिन जिस जगह बंधारा बनाना था, वहाँ एक विशाल चट्टान खड़ी थी।
उस चट्टान को तोड़ना ज़रूरी था।

यह कठिन कार्य उन्होंने कोंढाणा के एक मराठा युवक ‘येसबा कामठेको सौंपा, जिसने पूरी लगन से वह चट्टान तोड़ दी।

बांध बनाना आसान हो गया, खर्च भी बचा।
राजा खुद कार्यस्थल पर पहुँचे और येसबा की मेहनत देख बहुत प्रसन्न हुए।
उन्होंने उसे नकद इनाम देना चाहा।

पर येसबा ने पैसे लेने से इनकार कर दिया।


उसने कहा:

“पैसे तो खर्च हो जाएंगे। अगर आप मुझे थोड़ी ज़मीन दे दें ताकि मैं खेती कर सकूं, तो जीवनभर का आधार बन जाएगा।”

राजा भावविभोर हो उठे।
येसबा की दूरदर्शिता ने उन्हें छू लिया।
चंद दिनों की मौज-मस्ती के बजाय, वह मेहनत से भरा स्थायी जीवन चुन रहा था।

राजा ने तुरंत ‘चारवीत’ गांव में उसे ज़मीन दी।
अब येसबा और उसका परिवार गर्व से कह सकता था:

“मेरे स्वराज्य में, मेरे राजा ने, मेरे भविष्य के लिए मुझे ज़मीन दी।
अब मैं मेहनत करूंगा और अपनी मेहनत की रोटी खाऊंगा।”

राजा की दृष्टि विलक्षण थी।
जैसे दीपावली पर उबटन लगाकर मैल छुड़ाया जाता है, वैसे ही उन्होंने काम सौंपकर
जनता के मन का आलस्य और अज्ञान धोने का एक अभियान ही शुरू कर दिया।

जो जिसकी जरूरत थी, वैसी सहायता की।

ऐन जिनसी मदद – यानी ज़रूरत के समय सही प्रकार की सहायता।
राजा ने कभी सिर्फ़ नगद धन बांटने या वतन-इनाम देने का प्रचलन नहीं बढ़ाया।
यह परंपरा जिजाऊ साहेब के पुणे आगमन पर शुरू हुई थी, जब उन्होंने जरूरतमंदों को अपने व्यवसाय खड़े करने के लिए सहायता दी थी।

रहाटवाड़ी के रामाजी चोरघे को खेत में कुआं बनाने के लिए भी ऐसी ही मदद दी गई।
राजा न केवल भविष्य गढ़ रहे थे, बल्कि पूर्व की चोटों का भी उपचार कर रहे थे।

कोंढाण्य के येसबा कामठे के परिवार पर भी एक बड़ा दुख आया था।
उसके बड़े भाई को किलेदार ने झूठे आरोप में बादशाही काल में मरवा दिया था।
घर की लक्ष्मी विधवा हो गई। बिना दोष के आपदा आई थी।

शिवाजी महाराज ने वह टूटा हुआ घर संभाला।
उसे ऐसे सहेजा जैसे कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत अपनी उंगली पर उठाया था।
परंतु गोवर्धन को सहारा देने में गोपों की लाठियों की भूमिका भी थी।

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