विजापुर की बादशाही के खिलाफ छेड़े गए पहले ही युद्ध में शिवाजी राजे ने अद्भुत विजय प्राप्त की। लेकिन इसके बाद वे अपने पिता से नाराज़, खिन्न और क्रोधित हो गए। क्यों? क्योंकि शहाजी राजे लापरवाही के कारण पकड़े गए और इससे स्वराज्य पर बड़ा संकट आ गया। जिजाऊ साहेब और शिवाजी महाराज मानसिक रूप से बहुत पीड़ा में थे। यह सब शहाजी राजे की लापरवाही का परिणाम था।
यह बात स्वयं शहाजी राजे को भी खल रही थी। लेकिन इस संकट को टालने के लिए उन्होंने शिवाजी महाराज के स्वराज्य में स्थित कोंढाणा किला और कर्नाटक में स्थित अपना प्रमुख ठिकाना — बेंगलुरु — बादशाह को सौंपने की स्वीकृति दे दी। यह देखकर शिवाजी महाराज बेहद क्रोधित हो उठे। राजनीति में क्षमायोग्य न मानी जाने वाली यह भूल शहाजी राजे से हुई, लेकिन उसका परिणाम छोटे से स्वराज्य को भुगतना पड़ा। जिस तरह हथेली पर भाग्य की रेखा होती है, उसी तरह कोंढाणा किला बादशाह को मुफ्त में देना पड़ा — इस बात का दुख राजे को बहुत गहरा था। स्वराज्य की एक हथेली जितनी भी भूमि शत्रु को देनी पड़े तो पीड़ा तो होनी ही चाहिए।
कोंढाणा को आदिलशाही में सौंपने का आदेशपत्र राजगढ़ पर पहुँचा। महाराज बहुत व्यथित हो गए और अकेले ही कहीं गड़ के एकांत में जाकर बैठ गए।
विजय की खुशी में सारा राजगढ़ आनंदित था। केवल शिवाजी महाराज ही कोंढाणा को लेकर उदास और खिन्न थे। यह देखकर वृद्ध और अनुभवी मंत्री सोनो विश्वनाथ डबीर की नजर उन पर पड़ी। वे शिवाजी राजे की ओर धीरे-धीरे गए। राजे गंभीर और दुखी दिखाई दे रहे थे। सोनोपंत, जो दादा जैसे वृद्ध और अनुभववान थे, ने पूछा, “महाराज, आप इतने चिंतित क्यों हैं? अब किस बात की चिंता? तीर्थरूप शहाजी महाराज शाही कैद से मुक्त हो चुके हैं। आपने अपना राज्य भी बचा लिया है। फिर चिंता किस बात की?”
राजे ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया, “क्या कहें! हमारे तीर्थरूप लापरवाह रहे और शाही जाल में फँस गए। हमने हर संभव प्रयास कर उन्हें छुड़ाया। वे छूट भी गए। लेकिन उन्होंने बादशाह की माँग पर हमारे स्वराज्य का कोंढाणा किला वापस सौंपने की स्वीकृति दे दी। इसे क्या कहें? हमारे प्रयासों का मूल्य उन्हें समझ में ही नहीं आया। वे स्वयं को ज्ञानी समझते हैं, लेकिन उनका व्यवहार अज्ञानी जैसा था।”
राजे ये शब्द व्याकुल होकर कह रहे थे, लेकिन यह सुनकर सोनो विश्वनाथ और भी गंभीर हो गए और कुछ कठोर वडिलकी (पितृत्व) स्वर में बोले, “महाराज, आप क्या कह रहे हैं? अपने पिता के बारे में ऐसी बात करना आप जैसे सुपुत्र को शोभा नहीं देता।”
शिवाजी महाराज और भी गंभीर होकर सुनते रहे। “महाराज, अगर पिता से गलती हुई हो तो भी… इसमें शक नहीं। लेकिन पिता के बारे में ऐसा बोलना उचित नहीं। कोंढाणा जैसा मूल्यवान किला व्यर्थ चला गया, यह सही है। परंतु पिता के लिए यह सहना ही होगा महाराज! उनका सम्मान बनाए रखना चाहिए।”
शिवाजी महाराज अचानक स्वयं को सँभालते हुए आदरपूर्वक बोले, “नहीं, हमसे गलती हो गई। हमने पिता का अपमान करने के लिए ऐसा नहीं कहा। स्वराज्य की हानि हमें सहन नहीं हुई, इसलिए कह दिया। कोंढाणा चला गया, इसी कारण कह दिया।”
“महाराज, कोंढाणा क्या इतना ही बड़ा था आपके पिता के सामने? वह किला तो चला गया, पर आप तो पूरा मुल्क जीत सकते हैं। निराश मत होइए।” यह सुनकर महाराज को यह विवेकयुक्त बात बहुत प्रिय लगी। उन्होंने थोड़ा तीव्र शब्दों में कहा, “हाँ, अवश्य।”
“लेकिन हमारे तीर्थरूप के साथ जो अपमान हुआ — वह कैद, अफजलखान का व्यवहार — हमें सहन नहीं होता। जिन्होंने हमारे तीर्थरूप का अपमान किया, उनसे हम अपने हाथों प्रतिशोध लेंगे। वह अफजलखान, बाजी घोरपड़े, वज़ीर मुस्तफाखाँ, मनसबदार और मुल्की सब — हम सबका बदला लेंगे।”
सोनो विश्वनाथ राजे के इन शब्दों से अत्यंत संतुष्ट हुए। उन्हें लगा मानो सारा जीवन सफल हो गया। माँ और पिता के प्रति हमारा राजा इतनी संवेदनशीलता और आदरभाव रखता है — यह देखकर किसी के भी आँखों में गर्व और आनंद के आँसू आ सकते हैं।
यह सारा संवाद बाद में कवि परमानंद गोविंद नेवासकर ने लिपिबद्ध किया। यह उसका सार है।
कोंढाणागढ़ को आदिलशाही को सौंपा गया, लेकिन बादशाह के आदेश से नहीं — वडिलों के आज्ञा से!