पुणे से मां-बेटे बेंगलुरु पहुंचे। यह मौका शाहजी राजे के पूरे परिवार के एकत्र होने और लगभग दो वर्षों तक साथ रहने का था। यह उनका अंतिम मिलन था। इन्हीं दो वर्षों में शिवाजी राजे को हम्पी विरुपाक्ष और विजय नगर की राजधानी देखने का अवसर मिला। विरुपाक्ष एक तीर्थस्थल था। विजय नगर एक नष्ट हो चुकी हिंदवी स्वराज्य की राजधानी थी। इस यात्रा में शिवाजी राजे ने बहुत कुछ देखा और सीखा। इतना बड़ा साम्राज्य एक ही निर्णायक युद्ध में कैसे मिट गया? अंतिम रामराजा से कहां चूक हो गई? उसके शासन और सेना में ऐसी कौन-सी कमजोरियां थीं, जिससे एक बड़ी हार ने उसका सारा साम्राज्य खत्म कर दिया?
इन सभी बातों का विश्लेषण और बोध शिवाजी राजे के मन में चल रहा था। इस सोच से प्राप्त विवेक उन्हें भविष्य के कार्यों में काम आने वाला था — और आया भी। यह वैचारिक churn (समुद्र मंथन) उनके मन में इन दो वर्षों (1640-1642 ई.) में हुआ। इसके बाद राजे और जिजाऊसाहेब पुणे लौटे (1642 ई.) — मराठी स्वराज्य को सह्याद्री की गोद में स्थापित करने के संकल्प के साथ। और शिवाजी राजे ने कर्नाटक की घाटियों से निकलकर सह्याद्री के ऊँचे किले तोरणा पर बगावत का झंडा गाड़ दिया। इसके बाद कोरीगड़, सुभानमंगळ और कोंडाणा किले भी उन्होंने कब्जे में लिए। आदिलशाही चकित रह गई — एक मराठी युवक सुल्तानशाही के खिलाफ बगावत कर रहा है? यह शक्ति कहां से आई? इसे कुचलना ही होगा। यही सोचकर मोहम्मद आदिलशाह ने एक चाल चली।
अगर हम शिवाजी भोसले के पिता को ही अचानक छापा मारकर कैद कर लें, तो यह बगावत वहीं रुक जाएगी। शिवाजी हथियार डालकर आत्मसमर्पण कर देगा, और फिर कोई बगावत की हिम्मत नहीं करेगा। इसके लिए शिवाजी पर सेना भी भेजनी थी, जितना ज़रूरी हो उतना रक्तपात और विनाश करना था। तय हो गया।
अगर ज़रूरत पड़ी तो शाहजी को मार भी देना है — यह भी तय हुआ। 25 जुलाई 1648 को शाहजी राजे पर वज़ीर मुस्तफाखान ने विश्वासघाती हमला किया। पहले से यह समझ आ गया था कि कोई गंभीर संकट आने वाला है और वह वज़ीर के ही कारण होगा, फिर भी शाहजी राजे लापरवाह रहे। वे सोए रहे और वज़ीर मुस्तफा ने उन्हें कैद कर लिया। बेड़ियाँ पहनाईं और कैदी बनाकर उन्हें बीजापुर भेज दिया गया। यह घटना तमिलनाडु के मदुरै के पास घटी।
शाहजी राजे को अपमानजनक ढंग से बीजापुर लाने का कार्य अफज़लखान ने किया। राजे को *”सतमंज़िल”* नामक हवेली में कैद में रखा गया।
इन खबरों के फैलने से पहले ही आदिलशाह ने पुणे की ओर बड़ी सेना फत्तेखान के नेतृत्व में भेजी, शिवाजी और उनके नए-नवेले राज्य को अपने कब्जे में लेने के लिए।
राजगढ़ पर शिवाजी को यह भयंकर समाचार मिला कि उनके पिता शाही कैद में हैं और फत्तेखान उनके ऊपर चढ़ाई कर रहा है। अब प्रश्न सीधा था — बोलो पुत्र, स्वराज्य चाहिए या पिता? शाहजी को हम कभी भी मार सकते हैं। फिर भी शांतिपूर्वक आत्मसमर्पण कर दो, जो तुमने छीना है वह छोटा-सा राज्य हमारे हवाले कर दो, माफ़ी माँग लो, तो पिता बच जाएंगे। वरना पूरा भोसले खानदान मिटा दिया जाएगा। यह सवाल भयानक था — पिता की जान या स्वराज्य की रक्षा? क्या बचाया जाए — मां का सौभाग्य या स्वराज्य?
दोनों ही तीर्थस्वरूप! तो दोनों को ही बचाना है। यही विचार शिवाजी महाराज के मन में था — और वह विचार उतना ही क्रांतिकारी था। ऐसा सोचने वाला योद्धा और विचारक इतने छोटे उम्र में ज्ञानेश्वर के बाद तीन सौ पचास वर्षों में पहली बार मराठी भूमि पर जन्मा था। आने वाली शाही सेना से लड़ने का उन्होंने ठोस निश्चय कर लिया। उनकी सैन्य शक्ति बहुत कम थी और हमला बहुत बड़ा आने वाला था। निश्चित रूप से तुकाराम के विचार युवा शिवाजी के मन में गूंज रहे थे —
“रात्रंदिन आम्हा युद्धाचा प्रसंग! अंगी निश्चयाचे बळ, तुका म्हणे तेचि फळ!”
राजे अत्यंत सोच-समझकर और योजनाबद्ध तरीके से अपनी रणनीति बना रहे थे। दुश्मन की अधिकतम सेना को अपनी न्यूनतम सेना से परास्त करना ही उनका लक्ष्य, संकल्प और क्रांतिकारी सिद्धांत था।