बीजापुर का आदिलशाही सरदार फत्तेखान बड़ी सेना लेकर पुरंदर तालुके के कर्हे पठार में आया और बेलसर गांव के पास डेरा डाला। उसे पूरा भरोसा था कि वह शिवाजी महाराज के बगावत को जल्द ही कुचल देगा। उसने सेना का एक दल शिरवळ भेजा, जहाँ नदी किनारे स्थित “सुभानमंगळ” किला था, जिसे शिवाजी ने हाल ही में जीता था। फत्तेखान की सेना ने किले को एक ही झटके में जीत लिया। यह मराठाओं की स्वराज्य की पहली हार थी। उस समय शाहाजी महाराज कैद में थे और उनकी जान को खतरा था।
इस कठिन परिस्थिति में भी शिवाजी महाराज और जिजामाता विचलित नहीं हुए। राजे ने राजगढ़ से योजना बनाकर केवल हजार मावलों के साथ 8 अगस्त 1648 को पुरंदर पहुंचे। बेलसर फत्तेखान की छावनी और सुभानमंगळ नजदीक ही था।
शिवाजी महाराज ने रात में बेलसर की छावनी और सुभानमंगळ किले पर छापामार हमले की योजना बनाई। कावजी मल्हार को एक छोटी टुकड़ी देकर सुभानमंगळ भेजा गया। बारिश का मौसम था, नाव और पुल नहीं थे, फिर भी मराठों ने नीरा नदी को पार किया और अचानक हमला कर किले को जीत लिया। शाही किलेदार को कावजी ने मार गिराया और भगवा झंडा पुनः लहराया गया।
इसके बाद अगली रात शिवाजी महाराज ने बेलसर छावनी पर भी हमला किया। उन्होंने एक मावली टुकड़ी को आदेश दिया कि वह लड़ाई में न घुसे, केवल झंडा सुरक्षित रखे। यदि परिस्थिति बिगड़े तो सभी वापस पुरंदर लौट आएं। जैसे ही हमला हुआ, मराठों ने तेजी से हमला किया लेकिन फिर पीछे हटने लगे – यह योजना का हिस्सा था। पीछे हटते हुए मावली टुकड़ी ने जोश में आकर हमला कर दिया और शाही सैनिकों से भिड़ गई। झंडा गिरने ही वाला था, तभी बाजी कान्होजी जेधे आगे बढ़े और झंडा थाम लिया। वह घायल टुकड़ी को वापस लेकर पुरंदर पहुंचे।
इस साहसिक कार्य से शिवाजी महाराज अत्यंत प्रसन्न हुए और बाजी जेधे को “सर्जाराव” की उपाधि दी। इस जीत से उनका आत्मविश्वास और दृढ़ संकल्प कई गुना बढ़ गया।