शिवाजी महाराज द्वारा मोगल ठिकानों पर अचानक किए गए हमलों से औरंगजेब पहले ही क्रोधित था, लेकिन तत्काल कुछ नहीं कर सका, इसलिए वह दिल्ली लौट गया। पर उसके मन में यह ठान चुका था कि वह शिवाजी का अंत करेगा। आश्चर्य होता है महाराज के अद्भुत साहस पर—ऐसी शक्तिशाली सत्ता के विरुद्ध निर्भय होकर सैनिक राजनीति करना कोई साधारण बात नहीं थी। पर यह पागलपन नहीं था, बल्कि अवसर की समझदारी से की गई योजना थी, जिसका उन्हें भरपूर लाभ मिला।
भविष्य में ऐसी कई अवसर पेशवाओं को मिले, लेकिन शायद ही कभी उनका पूरा लाभ उठाया गया। वहीं अंग्रेजों ने हर अवसर को हमारे खिलाफ बखूबी भुनाया। कम उम्र में और छोटे से सैन्य बल के साथ महाराज ने कई कठिन मोर्चे साहसपूर्वक जीत लिए। जो भी नेतृत्व करना चाहता है, उसे शिवचरित्र का गहराई से अध्ययन करना चाहिए—विचार स्पष्ट होंगे, आत्मबल बढ़ेगा, और सफलता हाथ लगेगी। अब केवल जयजयकार नहीं, बल्कि उनके विचारों को आत्मसात करना चाहिए।
24 अक्टूबर 1657 को शिवाजी महाराज ने कल्याण से लेकर दक्षिण कोकण के सावंतवाडी तक धावा बोला। महीनों तक बिना विश्राम वे अभियान पर थे। उन्होंने कोकण के सभी किले नहीं जीते, पर समुद्र तट के अनेक किले और जलदुर्ग एक-एक कर अपने अधीन कर लिए—जैसे कोई मगरमच्छ अपनी पूंछ से बड़े-बड़े शिकार को धर दबोचे। हरने, जयगढ़, घेरिया, देवगढ़, रेडी और तेरेखोल जैसे जलदुर्गों सहित सह्याद्रि पर्वत के किले भी महाराज ने जीत लिए।
इस अभियान में उन्हें कोकण के वीर युवक और विश्वसनीय सहयोगी मिले—मायनाक भंडारी, बेंटाजी भाटकर, दौलतखान, सिद्दी मिस्त्री, इब्राहीमखान, तुकोजी आंग्रे, लायजी कोळी सरपाटील आदि। आगरी, भंडारी, कोळी, कुणबी, प्रभु और सारस्वत जातियों के लोग इस अभियान में बढ़-चढ़कर शामिल हुए। इन युवाओं में साहस, निष्ठा, कल्पकता और राष्ट्रभक्ति कूट-कूट कर भरी थी। महाराज ने इनका उत्तम उपयोग किया।
कोकण के ये योद्धा समुद्र में पहले तैरना सीखते थे, फिर धरती पर चलना। इसी अभियान में शिवाजी को कोकण की शक्ति का साक्षात्कार हुआ।
क्या एक ऐतिहासिक तथ्य बताऊँ? शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने पूरे मराठा साम्राज्य को निगलने के लिए विशाल सेना लेकर धावा बोला और 25 वर्षों तक तबाही मचाई। लेकिन इतने लंबे समय में भी कोकण की एक इंच भूमि और एक भी समुद्री किला वह नहीं जीत सका। कोकण, भंडारी, आगरी, कोळी, समुद्र, मराठी राज्य और मराठी ध्वज—सब अजिंक्य (अजेय) सिद्ध हुए। यह किसका पराक्रम है? – इन कोकणी वीरों का।
और आज हम इन्हीं लोगों को मुंबई में “रामागाडी” (झाडू-पोंछा) करने को मजबूर कर रहे हैं। उन्हें बर्तन मांजने, कपड़े धोने, होटल में बर्तन धोने पर लगा रखा है। जबकि असल में उन्हें भारत की नौसेना में तोपें चलाने का सम्मान मिलना चाहिए। ये पूरी की पूरी मार्शल रेस (युद्धवीर जाति) है—जिसे शिवाजी महाराज ने तीन सौ साल पहले पहचाना था और कोकण को अजेय बना दिया।
क्या हमें कभी यह बात समझ में आएगी? क्या कोई कान्होजी आंग्रे, मायनाक भंडारी या दौलतखान आज फिर से मिलेगा?