टू-रूम किचन वाला कोई फ्लैट,
दो-चार एकड़ का फार्म हाउस,
कोई चार पहियों वाली गाड़ी,
और भौतिक वस्तुओं का ढेर लगा लिया,
तो हम कहते हैं –
“अमुक-तमुक ने शून्य से सृष्टि रची!”
मतलब, हो क्या रहा है?
इंसान सुख की आशा में
धनवान बनने के लिए भाग-दौड़ कर रहा है,
पर वह सुखी कहीं नहीं दिखता!
हम खुद ही कहते हैं –
“हमारे बचपन में बहुत मज़ा आता था…
बहुत आनंद था, घर भरा रहता था…
समय कब बीत जाता था, पता ही नहीं चलता!”
तो अब क्या हुआ???
मज़ा कहाँ गया??
अकेलापन क्यों महसूस होता है??
दिल घबराने क्यों लगता है??
क्यों मन नहीं लगता??
क्योंकि…
“सृष्टि रचने” की परिभाषा
कहीं न कहीं गलत हो गई…!!
सृष्टि रचने का मतलब है…
अगर हम ये सब हासिल कर सके,
तभी कह सकते हैं कि –
“शून्य से सृष्टि रची।”
अब आप ही बताइए –
हमारी ज़िंदगी में इन चीज़ों की बढ़ोतरी हुई है,
या कमी आई है…?
अपने सच्चे दुख को खुलकर
कितने लोगों से कह सकते हैं आप???
ऐसे कितने दोस्त, पड़ोसी, रिश्तेदार
हम बना पाए हैं…?
बहुत कम… या शायद कोई नहीं…!!!
तो फिर, क्या हमने “सृष्टि रची”…?
नहीं…
मित्रों,
क्या रजिस्ट्री के कागज़ों का ढेर ही सृष्टि है…?
क्या भौतिक संसाधनों की भरमार ही सृष्टि है…?
नहीं…
क्या लॉकर में रखे हीरे-मोती ही सृष्टि हैं…?
क्या नकली मुखौटे पहने चेहरों की भीड़ ही सृष्टि है…?
नहीं…
इसे समझना होगा…!!!
अगर बड़े बनने की दौड़ में
और काम के बोझ में रिश्ते दूर हो रहे हों,
अगर घमंड और अहंकार के कारण
लोग हमसे कटते जा रहे हों,
अगर दुःख बाँटने के लिए
कोई अपना ही न बचा हो,
तो फिर…
हमने “शून्य से सृष्टि रची”…?
या… “सृष्टि से शून्य…???