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शास्त्रानुसार ब्राह्मण का कर्त्तव्य

स्वाध्यायो यजनं दानं तस्य धर्म इति स्थितिः ।

कर्माण्यध्यापनं चैव याजनं च प्रतिग्रहः ॥

सत्यं शांतिस्तपः शौचं तस्य धर्मः सनातनः ॥

 

वेदों का स्वाध्याय, पठन-पठन, यज्ञ करना-कराना, दान देना और लेना शास्‍त्रविहित ब्राह्मण का धर्म है । वेदों का पढ़ना, यजमान का यज्ञ कराना और दान लेना ये ब्राह्मण की जीविकार्थ साधनभूत कर्म हैं । सत्याचरण करना, मन को वश में रखना, शुद्ध आचार का पालन करना, यह ब्राह्मण का सार्वकालिक सनातन धर्म है ।

विक्रयो रसधान्यानां ब्राह्मणस्य विगर्हितः । रस और धान्य (अनाज) का विक्रय करना ब्राह्मण के लिये निन्दित है ।

 

तप एव सदा धर्मो ब्राह्मणस्य न संशयः ।

स तु धर्मार्थमुत्पन्नः पूर्वं धात्रा तपोबलात् ॥

 

सदा तप करना ही ब्राह्मण का धर्म है, इसमें संशय नहीं है । विधाता ने पूर्वकाल में धर्म का अनुष्ठान करने के लिये ही अपने तपोबल से ब्राह्मण को उत्पन्न किया था ।

 

न्यायतस्ते महाभागे ! सवंशः समुदीरितः ।

भूमिदेवा महाभागाः सदा लोके द्विजातयः ॥३०॥

 

महाभागे ! मैंने तुम्हारे निकट सब प्रकार से धर्म का निर्णय किया है । महाभाग ब्राह्मण अपने परोपकारी जीवन के कारण इस लोक में सदा भूमिदेव माने गये हैं ।

 

भगवान ने असीम कृपा करते हुए हम ब्राह्मणों को पांच वर प्रदान किये:–

 

 

– ज्ञान

– तप

– त्याग

– दया

– क्षमा

 

और किन्तु अधिकतर मुझ जैसे ब्राह्मणों ने केवल एक ही वस्तु ग्रहण की:–

 

  “अहंकार”

ज्ञान का अहंकार

तप का अहंकार

त्याग का अहंकार

 

अब जब ग्रहणशीलता में प्रार्थमिकता अहंकार की हुई, तो दया और क्षमा का तो हम ग्रहण कर ही नही पाये, वह दया और क्षमा जो हमे सहज(सरल) बनाते है।

 

यज्ञ कर रहे जो ब्राह्मण अहंकारवश भगवान नंद-नन्दन और उनके साथियों को साधारण ग्वाल-वाल जान उनके दर्शन आदि से वंचित रहे , वही सहज/सरल स्वभाव उनकी पत्नियों को ना केवल दर्शन हुए अपितु, उनके हाथ का बना खाना प्रेम सहित ग्रहण भी किया।

जिस गोस्वामी तुलसी बाबा का एवं उनके द्वारा रचित रामचरितमानस का मुझ जैसे अहंकारवश ब्राह्मणों ने विरोध किया, उन्ही सरल स्वभाव तुलसी बाबा को ना केवल बाबा विश्वनाथ का आशीर्वाद प्राप्त हुआ अपितु मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्री राम जी ने उन्हें दर्शन दे कर कृतार्थ किया।।

 

अहंकारवश ही राजपुरोहितों एवं पारिवारिक सदस्यों ने जिस भक्तिमती मीरा देवी का बहिष्कार किया, उसी सरल स्वभाव मीरा देवी को भगवान नंद-नंदन ने सशरीर सहित वैकुण्ठ प्रदान किया।।

 

ऐसे महाप्रभु चैतन्य स्वामी, संत ज्ञानेश्वर स्वामी का केवल अहंकारवश विरोध किया गया , किन्तु केवल इनकी सरलता के कारण ही भगवान ने इन्हें उत्तम गति प्रदान की।

 

वर्ण धर्म आश्रम धर्म व्य्वस्था इतनी जर्जर ना होती, अगर हमे प्रतेक वर्ण के साथ अहंकार को छोड़ केवल सहजता/सरलता के साथ व्यवहार करते।।

 

और बिना सहज/सरल हुए हम निष्काम प्रेम कर ही नही सकते।।

 

और साहिब श्री गुरु नानक दास जी कहते है :-

 

”जिस प्रेम कियो, तिस ही प्रभु पायो”।।

जय श्रीमन्नारायण

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