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श्री महालक्ष्मी अष्टक की कथा

प्राचीन समय की बात है, जब बहुत तड़के यानी ब्रह्ममुहूर्त में सभी योगी, तपस्वी और ऋषि-मुनि पृथ्वी से देवलोक में भगवान महाविष्णु के दर्शन के लिए जाया करते थे।

ऐसे ही एक दिन, स्वयं शिव के अवतार और अत्रि व अनुसूया के पुत्र श्री दुर्वासा ऋषि देवलोक की ओर जा रहे थे। महर्षि दुर्वासा स्वयं महादेव का स्वरूप माने जाते हैं और अत्यंत क्रोधी स्वभाव के थे। वे महाविष्णु के दर्शन के लिए देवलोक पहुँचे। जब भगवान विष्णु ने देखा कि उनका भक्त आया है, तो उन्हें अत्यंत आनंद हुआ और उन्होंने हर्षित होकर अपने गले की वैजयंती माला उतारकर महर्षि दुर्वासा के गले में डाल दी।

यह देखकर महालक्ष्मी को आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा, “मेरे पति ने मुझे कभी यह वैजयंती माला नहीं दी और आज उन्होंने यह माला दुर्वासा ऋषि को दे दी। खैर।” दर्शन करके महर्षि दुर्वासा वापस लौटने लगे। वे पूर्णतः विरक्त स्वभाव के थे, क्योंकि वे स्वयं शिवशंकर ही थे। उन्होंने तय किया कि यह माला किसी को दान करनी चाहिए।

इस विचार से वे आगे बढ़ते रहे, तभी उन्हें मार्ग में देवराज इंद्र मिल गए, जो महाविष्णु के दर्शन के लिए जा रहे थे। महर्षि दुर्वासा ने अपने गले की वह वैजयंती माला इंद्र को दे दी और आगे बढ़ गए। इंद्र ने सोचा, “मेरे खजाने में पहले से ही कितनी कीमती मालाएँ पड़ी हैं, एक और की क्या जरूरत?” ऐसा सोचकर उन्होंने वह माला अपने ऐरावत हाथी के गले में पहना दी।

यह सब महालक्ष्मी देख रही थीं। उन्होंने देखा कि उनके पति के गले की वैजयंती माला इंद्र ने अपने हाथी के गले में पहना दी है। यह देख महालक्ष्मी अत्यंत क्रोधित हुईं और उन्होंने क्रोध में मुँह फेर लिया, क्योंकि पत्नी अपने पति का अपमान कभी सहन नहीं कर सकती।

चूंकि स्वयं महालक्ष्मी रुष्ट हो गई थीं, इंद्र का सारा वैभव एक पल में नष्ट हो गया। इंद्र भयभीत हो गए और भगवान विष्णु से क्षमा माँगने लगे। विष्णुजी बोले, “तुम महालक्ष्मी से क्षमा माँगो।” तब इंद्र बोले, “मुझे देवी से बहुत भय लगता है। उनके हाथों में तलवार, शंख, चक्र और गदा हैं। मुझे बहुत डर लगता है।”

तब भगवान विष्णु ने कहा, “सिंहनी के शावकों को कभी सिंहनी से डर नहीं लगता। यदि पुत्र ने कोई शरारत की हो, तो माँ का क्रोधित होना स्वाभाविक है, लेकिन समाधान क्षमा माँगना है। यदि पुत्र क्षमा माँगते समय माँ के गले से लिपट जाए, तो माँ उसके हाथ झटक सकती है। यदि वह माँ की कमर से लिपट जाए, तब भी माँ का गुस्सा पूरी तरह शांत नहीं होता। लेकिन अगर कोई पुत्र माँ के चरण पकड़ ले, तो इस संसार में कोई माँ नहीं है जो उसे लात मारे। महालक्ष्मी तो साक्षात जगतजननी हैं, समस्त विश्व की माँ हैं। इसलिए तुम जाकर उनके चरणों में लिपट जाओ।”

इंद्रदेव ने वैसा ही किया। वे जाकर माँ महालक्ष्मी के चरणों से लिपट गए और नतमस्तक हो गए। तभी जगदंबा महालक्ष्मी की आँखों से आँसू छलक पड़े, क्योंकि अंततः वह माँ ही थीं। उन आँसुओं की दो बूँदें इंद्र के मस्तक पर गिरीं और महालक्ष्मी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।

उसी समय इंद्रदेव के मन में जो भाव जागे, वही ‘श्री महालक्ष्मी अष्टक’ बना, जो आज हर घर में श्रद्धा से पढ़ा जाता है।

श्री महालक्ष्मी अष्टक अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है, जो भक्तों के सभी प्रकार के कष्टों का नाश कर सकता है। यदि इसे सच्ची श्रद्धा और भक्ति से पढ़ा जाए, तो माँ जगदंबा प्रसन्न होकर अपने भक्तों पर कृपा अवश्य बरसाती हैं।

॥ श्री महालक्ष्म्यष्टकम् ॥

 

 

श्री गणेशाय नमः

 

नमस्तेस्तू महामाये श्रीपिठे सूरपुजिते ।

शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ १ ॥

 

नमस्ते गरूडारूढे कोलासूर भयंकरी ।

सर्व पाप हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ २ ॥

 

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्ट भयंकरी ।

सर्व दुःख हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥३ ॥

 

सिद्धीबुद्धूीप्रदे देवी भुक्तिमुक्ति प्रदायिनी ।

मंत्रमूर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ४ ॥

 

आद्यंतरहिते देवी आद्यशक्ती महेश्वरी ।

योगजे योगसंभूते महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ५ ॥

 

स्थूल सूक्ष्म महारौद्रे महाशक्ती महोदरे ।

महापाप हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ६ ॥

 

पद्मासनस्थिते देवी परब्रम्हस्वरूपिणी ।

परमेशि जगन्मातर्र महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ७ ॥

 

श्वेतांबरधरे देवी नानालंकार भूषिते ।

जगत्स्थिते जगन्मार्त महालक्ष्मी नमोस्तूते ॥ ८ ॥

 

महालक्ष्म्यष्टकस्तोत्रं यः पठेत् भक्तिमान्नरः ।

सर्वसिद्धीमवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा ॥ ९ ॥

 

एककाले पठेन्नित्यं महापापविनाशनं ।

द्विकालं यः पठेन्नित्यं धनधान्य समन्वितः ॥१०॥

 

त्रिकालं यः पठेन्नित्यं महाशत्रूविनाशनं ।

महालक्ष्मीर्भवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा ॥११॥

 

॥इतिंद्रकृत श्रीमहालक्ष्म्यष्टकस्तवः संपूर्णः ॥

जिजाऊ…

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