शिवाजी महाराज स्वयं पूरी तरह सतर्क रहते हुए शत्रु को असावधान बनाते और उसकी लापरवाही का पूरा लाभ उठाते थे। यही उनकी बौद्धिक चाल थी। अपने वकील के माध्यम से महाराज अफ़ज़लखान को अपनी योजना में फंसा रहे थे। खान ने प्रतापगढ़ की तलहटी में आने के लिए हामी भर दी थी।
असल में खान का जंगलों से भरे जावळी क्षेत्र से होते हुए गढ़ की ओर आना ही उसकी भूल थी, पर यह उसकी मजबूरी भी थी। उसे शिवाजी महाराज को अपने शिकंजे में लेना ही था। इसलिए प्रतापगढ़ पर हमला करने के लिए आना उसकी नियति थी। खान ने सोचा कि जब शिवाजी उससे मिलने नीचे आ रहे हैं, तो वह बिना युद्ध किए, बिना किसी बाधा के अपनी सेना समेत गढ़ तक पहुंच सकता है। यही सोचकर उसने प्रतापगढ़ के नीचे आने का निर्णय लिया।
इसमें खान की कोई विशेष गलती नहीं थी, पर वह स्वयं की लापरवाही से चूक गया। राजनीति, बारूद के भंडार और तपस्या—इन तीनों में जरा सी लापरवाही भी भारी पड़ती है। जैसे तपस्या भंग करने के लिए कोई अप्सरा कब आ जाए, नहीं कहा जा सकता। बारूद उड़ाने के लिए चिंगारी कब कहां से आ जाए, यह भी निश्चित नहीं। ठीक वैसे ही राजनीति में कब कोई चाणक्य, कृष्ण या शिवाजी सामने वाले को चौंका दे, कहना मुश्किल है। खान इसमें बेहद असावधान रहा, वह भी तब जब वह मन में शिवाजी को धोखे से मारने की मंशा रखता था।
खान वाई से महाबलेश्वर की ओर चला। उसका निश्चय था कि शिवाजी को ज़िंदा या मृत पकड़कर बीजापुर ले जाना है।
इस प्रतापगढ़ कालखंड में शिवाजी महाराज को मानसिक रूप से कई पीड़ाओं का सामना करना पड़ा। जब वे गढ़ पर व्यस्त थे, तभी राजगढ़ पर उनकी रानी सईबाई का निधन हो गया (5 सितंबर 1659)। यह सामान्य दुःख नहीं था। उनका पुत्र संभाजीराजे केवल दो वर्ष का था। जिजाऊ माँ चिंता में जल रही थीं और माँ की चिंता महाराज के लिए असहनीय थी। वे माँ से अत्यधिक प्रेम करने वाले पुत्र थे।
सबसे बड़ी चिंता की बात थी उनके मावळों की मानसिक स्थिति। वे शिवाजी से हनुमान की तरह प्रेम करते थे। वे बार-बार आग्रह कर रहे थे: “महाराज, खान से व्यक्तिगत रूप से मत मिलिए, खतरा है। वह धोखा देगा। हम इन घाटियों में वर्षों तक उससे युद्ध करेंगे, लेकिन आप उस आग में न उतरें।”
मावळों और सरदारों का यह प्रेम अद्वितीय था। लेकिन इससे महाराज की योजना में बाधा आ रही थी। उनकी रणनीति थी कि कम सैनिकों में, कम समय में, दुश्मन की बड़ी सेना को पूरी तरह पराजित करें। इस पर उनके साथी कहते: “अगर सफल हुए तो ठीक, नहीं हुए तो क्या होगा?”
यह संघर्ष था महाराज के प्रबल आत्मविश्वास और मावळों के अथाह प्रेम के बीच।
महाराज ने एक रात आधी नींद से जागकर अपने सरदारों से कहा: “श्री भवानी मेरे स्वप्न में आईं। उन्होंने कहा, ‘बेटा, उसने मेरा अपमान किया है। तू काम सावधानी से कर, तू सफल होगा। मैं तेरी तलवार बन चुकी हूं।’” श्री भवानी उनसे प्रसन्न थीं।
तब सभी को विश्वास हो गया कि अब विजय निश्चित है। महाराज ने जनता की श्रद्धा का सटीक उपयोग किया। श्रद्धा शक्ति है, अंधश्रद्धा दुर्बलता। उन्होंने कभी अंधश्रद्धा नहीं रखी, लेकिन उचित श्रद्धा से आत्मबल अवश्य बढ़ाया।
महाराज ने अपनी तलवार का नाम वास्तव में “भवानी” रखा।
क्या महाराज को वास्तव में देवी भवानी का स्वप्न आया था? क्या उन्होंने बातें की? यह श्री जानें। लेकिन स्वराज्य पर आए भीषण संकट को इसी श्रद्धा ने टाल दिया। राज्य बचा, राजा बचा, ध्वज बचा – यह सत्य है। हर किसी को अपनी बुद्धि और भावना से इसका निर्णय करना चाहिए।
महाराज और उनके सरदार अत्यंत सतर्क, अनुशासित और योजनाबद्ध ढंग से कार्य कर रहे थे। इस बीच खान महाबलेश्वर तक पहुंच गया था।