बेलसर की फत्तेखान की छावनी पर अचानक हमला करके शिवाजी महाराज अपने मावलों के साथ वहाँ से निकल गए। वे पुरंदर पहुँचे। झंडे की टुकड़ी असल में पूरी तरह खत्म होने वाली थी। भगवा झंडा दुश्मन के हाथ लगने ही वाला था। लेकिन बाजी जेधे की वीरता के कारण झंडा और टुकड़ी दोनों बच गए। वे भी किले पर आ पहुँचे। रात का समय था, पूरी जीत नहीं, लेकिन शिवाजी महाराज ने शाही छावनी पर एक सफल, साहसी धावा बोला था।
महाराज ने तुरंत अपनी पूरी सेना को आदेश दिया कि पुरंदर किले की उत्तर दिशा की दीवार पर जितने हो सकें उतने पत्थरों के ढेर इकट्ठा कर दो। मावले तुरंत काम में लग गए। सह्याद्री के पर्वत पर पत्थरों की क्या कमी! थोड़ी ही देर में उत्तर दिशा की दीवार पर छोटे-बड़े पत्थरों के ढेर इकट्ठा हो गए।
महाराज ने अपने मावलों से कहा, “अब जब फत्तेखान पर हमला हुआ है, तो वह गुस्से में जरूर सुबह उत्तर दिशा से इस पुरंदर पर चढ़ाई करेगा। जब वह ऊपर चढ़ता दिखे, तब तक कोई उस पर कोई हमला न करे। जब हम इशारा दें, तब इन पत्थरों से उस पर हमला करना।”
सरल काम था। शांत काम। उस समय स्वराज्य अपनी शैशवावस्था में था। गोला-बारूद से हमला करना शिवाजी महाराज के लिए महँगा साबित होता। युद्ध सामग्री भी कम थी, सेना भी सीमित। इसलिए महाराज ने यह पत्थरों की लड़ाई रची। बिना लागत का युद्ध! सह्याद्री के इन पत्थरों को महाराज ने अलग-अलग आकारों में, एक हथियार की तरह तैयार रखा था।
महाराज की योजना बिल्कुल सटीक निकली। सुबह की रोशनी में फत्तेखान अपनी पूरी सेना के साथ पुरंदर की उत्तर दिशा की तलहटी में पहुँच गया। विशाल, भव्य पुरंदर उसके सामने था। मावलों की पहले की मार से वह क्रोधित था, और उसने अपने सैनिकों को घोड़े से उतरकर सीधे हमला करने का आदेश दिया – सुलतानढवा, यानी सीधा प्रहार!
शाही सेना पूरी ताकत से पुरंदर पर टूट पड़ी। युद्ध के नारे गूंजने लगे। लेकिन किला शांत था। एकदम चुप। मावले छुपे हुए थे। फत्तेखान की सेना किले की चढ़ाई पर बढ़ चली। आधे रास्ते तक चढ़ भी गई। और ठीक उसी समय, जब दुश्मन पास आ गया, महाराज ने ऊपर से इशारा किया।
तुरंत सिंहनाद गूंज उठा, शंख बजने लगे, और फिर वे छोटे-बड़े पत्थर ढलान से धड़-धड़-धड़ करते हुए नीचे गिरने लगे और फत्तेखान की सेना पर बरस पड़े। एक नहीं, दो नहीं – मानो पत्थरों की बारिश हो गई।
शाही सेना यह पत्थरों की बौछार देखकर दंग रह गई। पत्थरों की मार से कोई मरा, कई लोग घायल हुए। यह हमला सहने के बाहर था।
फत्तेखान को भी यह पत्थरों की बारिश नीचे से साफ दिख रही थी। वह स्तब्ध हो गया। और बोला –
“यह तो पत्थरों की बौछार है!”
अब मावले पूरे जोश में आ गए थे। केवल पत्थरों की इस वर्षा से उन्होंने दुश्मन को बुरी तरह से परेशान कर दिया था। दुश्मन चीखता-चिल्लाता हुआ मुँह फेरकर किले की तलहटी की ओर भागने लगा। कूदता, गिरता, फिसलता, पत्थरों की मार खाता हुआ शाही सैनिक भाग खड़े हुए। मानो तूफ़ान में उड़ती सूखी पत्तियाँ।
फत्तेखान की सेना अब बिखर चुकी थी।
महाराज अपने सैनिकों के साथ किले से बाहर निकले और दुश्मन पर टूट पड़े।
अंततः फत्तेखान सासवड़ की दिशा में भाग गया।
वहाँ से सासवड़ केवल 10 किमी दूर था। दुश्मन सासवड़ गाँव में घुसा।
मावलों ने उसका पीछा किया और वहाँ भी उसे बुरी तरह से पीटा।
फत्तेखान मुश्किल से मुट्ठी भर सेना के साथ भाग निकला – विजापुर की दिशा में!
उसकी सेना और उसके सपने – दोनों को मराठों ने एक साथ तहस-नहस कर दिया।
फत्तेखान की इतनी बड़ी सेना का, अपने छोटे से दल के साथ, बेहद कम समय में, बेहद कम संसाधनों से पूरा पराजय कर दिया गया था।
ये कोई जादू था क्या? कोई चमत्कार?
यह था रणनीति, शक्ति और युक्ति का परिणाम।
छोटी-सी ताकत से भी विशाल मुगलशक्ति को कैसे हराना है, यही महाराज का विचार और चिंतन यहाँ दिखता है।