छत्रपति शिवाजी महाराज ने आज से तीन सौ वर्ष पहले हमें कितना अनमोल खजाना दिया – राष्ट्रीय चरित्र। यदि हमारे पास यह हो तो केवल आकाश ही नहीं, सूर्य मंडल तक पहुँचना संभव है। शून्य से स्वराज्य की स्थापना करने वाले छत्रपति ने औरंगज़ेब जैसे क्रूर शत्रु को भी दिखा दिया कि यह शिवाजी राजा भले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए, फिर भी यहाँ हज़ारों शिवाजी खड़े होंगे – न झुकने वाले, न हार मानने वाले, न ही कठोर मेहनत से थकने वाले। वे महाराष्ट्र के स्वराज्य के लिए लगातार 25 वर्षों तक संघर्ष करते रहेंगे। वे शिवाजी न टूटेंगे और न ही झुकेंगे। उनके त्याग से दिल्ली का तख़्त तक हिल जाएगा।
यही शिवराष्ट्र और महाराष्ट्र धर्म ही हमारा कर्तव्य और आकांक्षा है, जो आगे के इतिहास में सच सिद्ध हुई। यह विरासत हम कभी खोने या कमज़ोर करने नहीं दे सकते। मेरे प्यारे पोते-पोतियों, मैं ‘महाराष्ट्र टाइम्स’ में “आकांक्षाओं के सामने जहाँ गगन भी बौना लगे” नामक लेखमाला लिख रहा हूँ, सिर्फ़ और सिर्फ़ इस उद्देश्य से कि अगर हम छत्रपति शिवाजी महाराज के अनगिनत, महान, भावनापूर्ण और ऊँचे सद्गुणों को अपने हृदय में जीवित रखें, तभी उनका चरित्र उपयोगी होगा। केवल मूर्तियाँ और पूजा व्यर्थ हैं, वे निर्जीव हैं।
अफज़लखान की मुहिम में महाराज का बहुआयामी नेतृत्व और उनके सैनिकों की प्रतिभा एक ही अभियान में स्पष्ट हो जाती है। इस मुहिम में महाराज ने राजधानी राजगढ़ को युद्ध के लिए न चुनकर प्रतापगढ़ जैसे दुर्गम किले को चुना। प्रतापगढ़ मानो विधाता द्वारा रचा गया सह्याद्रि का जटिल चक्रव्यूह है। इससे महाराज का भूगोल और सह्याद्रि की प्राकृतिक रचना का गहरा और सटीक अध्ययन स्पष्ट होता है। उन्होंने न केवल जावली और प्रतापगढ़ को, बल्कि पूरे कोकण, सह्याद्रि, समुद्र, मावल प्रदेश, पूरे महाराष्ट्र को गहराई से जाना था – वहाँ की नदियाँ, घने जंगल, घाटियाँ, पठार, और वहाँ के लोग भी। उनके सैन्य बल में कोकण के जवान थे और चंद्रपुरी-गोंडवाना के भी लोग थे – सभी साहसी, मजबूत छाती वाले और सच्चे निष्ठावान।
अफज़लखान ऐसे जटिल चक्रव्यूह से शिवाजी महाराज को खुले मैदान में लाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसका हर प्रयास असफल रहा।
महाराज इस पूरे अभियान की योजना बहुत सावधानी से बना रहे थे। विजापुर से वाई तक आते हुए खान ने कई चालें चलीं – भावनाओं को उकसाया, चार ठिकाने कब्ज़ा किए, लेकिन महाराज ने इस दौरान कहीं भी जवाबी हमला नहीं किया। उन्होंने उन ठिकानों की रक्षा की, परंतु खोने के बाद उन्हें वापस लेने की कोई कोशिश नहीं की। उल्टा, उन्होंने सेनापति नेताजी पालकर को कहा, “अभी खोए हुए ठिकानों को वापस लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।”
इस अवधि में महाराज की सेना ने खान के खिलाफ कहीं भी छोटे-बड़े हमले नहीं किए। उन्होंने कभी भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी दूत या पत्र द्वारा संवाद नहीं किया। वे बिल्कुल चुप रहे – जैसे शेर हमला करने से पहले झुककर बैठता है, वैसे ही। इस चुप्पी से खान भ्रमित हो गया – उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि शिवाजी के मन में क्या चल रहा है।
पावस (बरसात) के चार महीने बीत जाने के बाद खान ने अपना दूत कृष्णाजी भास्कर कुलकर्णी को वाई से प्रतापगढ़ भेजा, जो महाबलेश्वर के पर्वत के उस पार घाटी में था। यह महाराज को पहाड़ से बाहर लाने का उसका आखिरी प्रयास था। उसने दूत के साथ पत्र भी भेजा – जिसमें डराने की भाषा थी, लेकिन दूत के माध्यम से मीठी-मीठी बातें भी थीं कि “प्रतापगढ़ से निकल कर वाई आइए, हुज़ूर से मिलिए” – यानी सीधे हमारे पंजे में आइए, हमारे मुँह में आ जाइए।
इस बार भी महाराज ने खान की धमकी और मीठी बातों को अत्यंत चतुराई से सँभाला, और बड़ी विनम्रता से खान को ही प्रतापगढ़ के नीचे आने के लिए विवश कर दिया – शरणागत की भाषा में।
इस बीच स्वराज्य के गुप्तचरों ने उत्कृष्ट कार्य किया। इसी समय, कोकण के राजापुर बंदरगाह पर आदिलशाही की तीन सशस्त्र नौकाएं आकर खड़ी हुईं। अगर युद्ध फैलता, तो खान इन नौकाओं से सैन्य सामग्री ले सकता था। ये नौकाएं सुसज्जित थीं, लेकिन उन पर मौजूद लोग पूरी तरह लापरवाह थे।
खान की छावनी, पुणे, सातारा, कोल्हापुर, सांगली और आस-पास के आदिलशाही ठिकाने भी धीरे-धीरे लापरवाह बनते जा रहे थे। यह कमाल महाराज के दूतों, गुप्तचरों और स्वयं महाराज की बातचीत की रणनीति का था।
इसका परिणाम क्या हुआ? पराजय किसकी हुई ?