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वरिष्ठ खगोलशास्त्री डॉ. जयंत नारलीकर उनके निधन पर भावपूर्ण श्रद्धांजलि

जब मैं IUCAA (Inter-University Centre for Astronomy and Astrophysics) की हाउसिंग कॉलोनी में रहने आई, तो सौभाग्य से मुझे डॉ. जयंत नारळीकर और श्रीमती मंगला नारळीकर के ठीक सामने वाला घर मिला। ऐसा दुर्लभ पड़ोस हमें मिला था। मुझे लगभग दस वर्षों तक डॉ. नारळीकर की एग्जीक्यूटिव सेक्रेटरी के रूप में काम करने का अवसर मिला, और साथ ही उनका पड़ोसी बनने का भी। सर का नाम और ख्याति इतनी बड़ी थी कि काम की शुरुआत में एक मानसिक दबाव सा रहता था। लेकिन वे इतने सहज स्वभाव के हैं कि कई बार विश्वास ही नहीं होता था।

ऑफिस में वे तय समय से दस मिनट पहले पहुँच जाते थे। समय के अनुसार मेल चेक करना, उत्तरों का डिक्टेशन देना, टाइप की गई चिट्ठियों पर साइन करना, और दिनभर के अपॉइंटमेंट्स की योजना के अनुसार संबंधित कागजात मँगवाकर पहले से अपने पास रख लेना—यह उनकी दिनचर्या थी।

उनसे मिलने आने वालों में देश-विदेश के वैज्ञानिक, सरकारी अधिकारी, विश्वविद्यालय के गणमान्य लोग, देशी-विदेशी छात्र, उनके शिष्य, IUCAA के अधिकारी और यहाँ तक कि ग्रामीण क्षेत्रों से आए विद्यार्थी व उनके माता-पिता भी होते थे। लेकिन वे सभी से एक जैसे सम्मान और सहजता से पेश आते।

एक बार एक ग्रामीण छात्र से मिलने में सिर्फ पाँच मिनट की देरी हो गई, तो सर बेचैन होकर सीढ़ियाँ एक-एक करके नहीं, बल्कि दो-दो करके तेजी से ऊपर चढ़े—यह दृश्य आज भी मेरी स्मृति में ताज़ा है।

विभिन्न अखबारों, पत्रिकाओं में उनके लेख छपते रहते थे। वे जब भी कोई लेख लिखने का वादा करते, तो नियत तारीख से लगभग पंद्रह दिन पहले ही लेख पूरा होता और हस्तलिखित रूप में मुझे भेजा जाता। उनकी लिखावट इतनी सुंदर होती कि लेख मराठी हो या अंग्रेज़ी, ऐसा लगता कि इसे टाइप न करके उनकी ही लिखावट में छाप देना चाहिए।

डिक्टेशन देते समय उनके द्वारा भाषा के सूक्ष्म नियमों का पालन देखकर मैं चकित रह जाती थी। एक बार उन्होंने बताया कि किसी शब्द के संक्षिप्त रूप में पूर्णविराम का उपयोग कैसे और कब करना चाहिए। उदाहरण: ‘Professor’ का संक्षिप्त रूप ‘Prof.’ होता है—पूर्णविराम ज़रूरी है, क्योंकि कुछ अक्षर ही लिए जाते हैं। लेकिन ‘Doctor’ को ‘Dr’ लिखा जाता है—बिना पूर्णविराम के, क्योंकि पहले और आखिरी अक्षर ही शामिल हैं। यह बात मैंने कभी स्कूल या विश्वविद्यालय में नहीं सीखी थी।

सर को देश-विदेश की यात्राएँ करनी पड़ती थीं। उनके यात्रा कार्यक्रम में वे मिलने वाले व्यक्ति का नाम, संस्था का पता, फोन नंबर, ईमेल आदि की जानकारी एक छोटे पुस्तिका के रूप में मुझे तैयार करनी होती थी, जिसे वे अपने जेब में रख सकें। वे वापस लौटकर उसमें बदलाव भी खुद नोट करते थे ताकि मेरी प्रति अद्यतन रह सके।

यात्रा के दौरान ट्रेन या फ्लाइट लेट हो तो वे वही बैठकर पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पत्र पर विद्यार्थियों के प्रश्नों के उत्तर लिखते रहते।

विद्यार्थी उनसे मिलते तो उनका ऑटोग्राफ माँगते। सर कहते, “सिर्फ हस्ताक्षर क्यों? आप मुझे पत्र लिखकर कोई सवाल पूछिए, मैं उत्तर भेजूँगा—उस पर मेरा हस्ताक्षर होगा।” यह विचारशीलता और जिज्ञासा को बढ़ावा देने का उनका तरीका था।

आईयूसीएए के निदेशक के रूप में काम करना, सुबह टेनिस खेलना, पढ़ाना, पुस्तकों और लेखों की रचना, मराठी विज्ञान परिषद का कार्य, विज्ञान दृष्टि के लिए समाज में प्रयास, ‘पंचमहाभूते’ जैसे विषयों पर शिविर आयोजित करना—इतनी व्यस्तता के बावजूद, मैंने कभी नहीं देखा कि सर ऑफिस में ओवरटाइम कर रहे हों। कभी-कभी ही कोई अधिकारी मिलने आ जाए तो थोड़ा विलंब होता।

आईयूसीएए की कॉलोनी ‘आकाशगंगा’ में होली-दीवाली जैसे त्योहार मनाए जाते। सर को गुलाल लगवाते समय संकोच होता, लेकिन वे चुपचाप खड़े रहते। दीवाली के भोजन में हर किसी को अपने बर्तन लाने होते थे, और अगर 8 बजे खाने का समय है, तो सर 5 मिनट पहले ही तश्तरी और कटोरी लेकर वहाँ पहुँच जाते थे।

आईयूसीएए में काम करने वाले लोगों के शौक की भी उन्हें जानकारी होती थी। उन्हें विदेशों से आने वाले लिफाफों पर लगे टिकट वे सहेज कर मुझे देते और कहते, “फलां व्यक्ति को दे देना।” किसी के पढ़ने के शौक से संबंधित लेख हों, तो उन्हें बिना भूले पहुँचाते।

एक बार जब मैं उनके घर संदेश देने गई, तो वे और मंगला ताई दोनों घर पर नहीं थे। उनकी सास रसोई में थीं। उन्होंने मुझसे कहा, “देखा हमारे जवाईबापू की करामत?” पूछा, “क्या हुआ?” उन्होंने बताया, “कल घर पर 15–20 लोग खाने पर थे। सर को काम से बाहर जाना पड़ा, मंगला को मदद नहीं कर पाए, तो रात को खाना निपटने के बाद उन्होंने सारे नाज़ुक काँच के बर्तन खुद धो दिए।” दोनों ओटों पर चमचमाते बर्तन देखकर मैं स्तब्ध रह गई। घर के काम को भी अपना हिस्सा समझने वाले कितने विद्वान पुरुष आपको मिलेंगे?

सर का एक और गुण यह था कि कोई भी शंका—कितनी भी छोटी—उनसे पूछी जाए, तो वे कभी मज़ाक नहीं उड़ाते थे। गणेश प्रतिमा द्वारा दूध पीने की अफवाह जब फैली, तो उनसे सवाल पूछने के लिए फोन की लाइनें व्यस्त हो गईं। तब उन्होंने मूर्ति की सूंड द्वारा दूध खींचे जाने की वैज्ञानिक व्याख्या की और एक छोटा सा भाषण देकर सभी तक पहुँचाया।

आईयूसीएए की इमारत बन रही थी, तब वहाँ न्यूटन, आइंस्टीन, आर्यभट्ट, गैलीलियो की मूर्तियाँ लगाई गईं। फूको पेंडुलम, सूर्यघड़ी जैसी शैक्षणिक चीज़ें रखी गईं। इन सबके बीच सर ने जो असली सौंदर्यबोध दिखाया, वह था कैंटीन में लगाया गया बोर्ड—
“The discovery of a new dish does more for human happiness than the discovery of a star!”Brillat Savarin

इस वाक्य को चुनने वाला व्यक्ति एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक है—यह बात अपने आप में खास है।

अंतरिक्ष विज्ञान में उनकी अपार उपलब्धियों के अलावा, ये हैं उनके विविध गुण!

लोग महान बनते हैं… ऐसे ही नहीं!

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