भारत की संत परंपरा में कई ऐसे महान संत हुए हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं, भक्ति और आध्यात्मिक साधना से जनमानस को प्रेरित किया है। ऐसे ही एक महान संत थे संत सूरदास, जिनकी जयंती हर वर्ष वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को श्रद्धा व भक्ति से मनाई जाती है। सूरदास जी हिंदी साहित्य के भक्ति काल के प्रमुख कवि थे। उन्हें ‘कवितावली’, ‘सूरसागर’, ‘साहित्य लहरी’ जैसी अमूल्य काव्य रचनाओं के लिए जाना जाता है।
संत सूरदास का जन्म 1478 ईस्वी के आसपास हुआ था। इनके जन्मस्थान को लेकर विभिन्न मत हैं, लेकिन माना जाता है कि उनका जन्म उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के रुनकता गांव में हुआ था। कुछ विद्वानों के अनुसार वह दिल्ली के पास सीही गांव के थे। सूरदास जन्म से दृष्टिहीन थे और बचपन से ही उनका मन संसारिक विषयों से हटकर आध्यात्मिकता और भक्ति की ओर प्रवृत्त हो गया।
सूरदास बचपन से ही भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे। उन्होंने श्रीकृष्ण के बाल रूप, लीलाओं, रास और गोपियों के साथ उनके प्रेम को अपने पदों के माध्यम से जीवंत किया है। उनकी रचनाओं में वात्सल्य, श्रृंगार और भक्ति रस की त्रिवेणी देखने को मिलती है।
संत सूरदास के गुरु महान वैष्णव संत वल्लभाचार्य थे, जो पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक माने जाते हैं। वल्लभाचार्य जी के संपर्क में आने के बाद सूरदास की भक्ति और लेखनी को नई दिशा मिली। उन्होंने श्रीनाथजी (भगवान श्रीकृष्ण) की भक्ति में रचनाएं लिखनी शुरू कीं और उनके पदों में गहरी आध्यात्मिक अनुभूति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
सूरसागर – यह सूरदास जी की सबसे प्रसिद्ध रचना है जिसमें श्रीकृष्ण के बाल्यकाल से लेकर उनकी विविध लीलाओं का अत्यंत सुंदर और मार्मिक चित्रण किया गया है। यह ग्रंथ भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से अनुपम है।
साहित्य लहरी – इसमें 118 पद हैं जो मुख्यतः भक्ति और नीति पर आधारित हैं।
सूरसारावली – यह ग्रंथ मुख्यतः रासलीला और श्रीकृष्ण के प्रेम तत्व को केंद्र में रखकर लिखा गया है।
संत सूरदास भक्ति आंदोलन के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने समाज के उस वर्ग को भी भक्ति का मार्ग दिखाया जो पढ़ा-लिखा नहीं था या जिन्हें संस्कृत भाषा समझ नहीं आती थी। उनकी रचनाओं ने आम जनमानस को भगवान की भक्ति के प्रति प्रेरित किया। उन्होंने ब्रजभाषा को काव्य की भाषा बनाकर साहित्यिक सम्मान दिलाया।
उनकी कविताएं न केवल धार्मिक हैं, बल्कि उनमें गहरी दार्शनिकता भी समाई हुई है। सूरदास के पदों में भक्ति, प्रेम, त्याग, करुणा और आध्यात्मिक एकात्मता का संदेश छिपा है।
संत सूरदास जयंती केवल एक कवि या संत की स्मृति नहीं है, यह एक आध्यात्मिक चेतना का उत्सव है। इस दिन भक्तजन सूरदास जी की रचनाओं का पाठ करते हैं, श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का आयोजन करते हैं और भजन-कीर्तन से वातावरण को भक्तिमय बनाते हैं।
देश के विभिन्न हिस्सों, विशेषकर वृंदावन, मथुरा और गोवर्धन में इस दिन विशेष आयोजन होते हैं। मंदिरों में सूरदास जी की रचनाओं का गायन होता है और श्रद्धालु उनके जीवन से प्रेरणा लेते हैं।
सूरदास जी ने श्रीकृष्ण को केवल भगवान के रूप में नहीं, बल्कि ‘लाल’, ‘माखनचोर’, ‘कन्हैया’, ‘ग्वाला’ जैसे सजीव रूपों में देखा। उनकी कविताओं में कृष्ण का बाल रूप विशेष रूप से प्रभावी है – जिसमें वे यशोदा मां के साथ नटखटता करते हैं, गोपियों को तंग करते हैं और ब्रजभूमि में लीला करते हैं। सूरदास ने श्रीकृष्ण के प्रति वात्सल्य रस को इतनी सुंदरता से पिरोया कि उनकी कविताएं आज भी भावविभोर कर देती हैं।
संत सूरदास के कुछ प्रसिद्ध पद इस प्रकार हैं:
“मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो।
बालक ते मोहि बाँधि दियो गोपिनिहिं मोहिं काँटि लगायो॥”
यह पद श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का जीवंत चित्रण करता है जहाँ वे माखन चुराने के आरोप से इनकार कर रहे हैं।
संत सूरदास का देहावसान 1583 ईस्वी के लगभग माना जाता है। उनका अधिकांश जीवन पारसौली गांव में बीता था जहाँ उन्होंने तप और भक्ति की साधना की थी। आज भी पारसौली और वृंदावन में उनके स्मृति स्थल मौजूद हैं जहाँ श्रद्धालु दर्शन और भक्ति के लिए जाते हैं।
आज जब जीवन भागदौड़ से भरा हुआ है और मनुष्य आत्मिक शांति से दूर होता जा रहा है, ऐसे समय में संत सूरदास जैसे महापुरुषों का जीवन और उनकी रचनाएं हमें आंतरिक शांति, भक्ति और आत्मबोध की ओर लौटने की प्रेरणा देती हैं।
उनकी दृष्टिहीनता उनके जीवन की कमजोरी नहीं बनी, बल्कि उन्होंने उसे अपनी शक्ति में बदलकर यह सिद्ध कर दिया कि ईश्वर की भक्ति और काव्य प्रतिभा किसी भी शारीरिक कमी की मोहताज नहीं होती। सूरदास का जीवन एक ऐसा उदाहरण है जो बताता है कि यदि मन में सच्ची लगन और भक्ति हो तो ईश्वर स्वयं मार्ग दिखाते हैं।
संत सूरदास जयंती एक ऐसा पर्व है जो हमें भक्ति, साहित्य और आध्यात्मिकता की त्रिवेणी में स्नान कराता है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि सच्ची भक्ति में कोई जाति, वर्ग, भाषा या शारीरिक सीमा बाधा नहीं बन सकती। सूरदास जी की रचनाएं न केवल भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति से जुड़ने का माध्यम हैं, बल्कि आत्मा को शुद्ध करने और ईश्वर से मिलन की राह भी दिखाती हैं।
इस जयंती पर हम सभी को चाहिए कि हम भी संत सूरदास की भक्ति भावना को अपने जीवन में उतारें, उनके पदों का अध्ययन करें और भक्ति को जीवन का हिस्सा बनाएं।