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अगस्त्य ऋषि का बलिदान

प्राचीन काल की बात है, सुमेरु और विंध्य पर्वत इन दोनों में ही परस्पर प्रतिस्पर्धा बनी हुई थी।

 

जिसमे दोनों पर्वत एक दूसरे से ऊपर बढ़े जा रहे थे, अन्तः सुमेरु पर्वत ही श्रेष्ठ बना रहा, जिसके फल स्वरुप सूर्य और चंद्र सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते थे।

 

     उसी काल में एक बार नारद मुनि (भगवान शिव की लीलावस) विंध्य पर्वत पर पहुंचे, विंध्य द्वारा उचित सत्कार प्राप्त कर के विंध्य के गर्वयुक्त वचन सुन कर (जिसमे वह सभी पर्वतों में खुद को ही श्रेष्ठ बता रहे थे) नारद मुनि ने विंध्य का अभिमान तोड़ने हेतु ऐसा बोला की सभी पर्वतों में सिर्फ शैलेन्द्र सुमेरु ही तुम्हारा अपमान करता है।

      इतना सुन कर विंध्य गहन चिंता में लीन होकर भांति भांति की बात सोचने लगा और ऐसा निश्चय किया की वह असीम गगन पथ पर निरंतर बढ़ते चला जायेगा, फ्लस्वरुप वह सूर्य नारायण का मार्ग रोक कर खुद को कृतकृत्य समझने लगा।

 

       मार्ग अवरुद्ध देख सूर्य के सारथी अनरु ने निवेदन किया आपके सुमेरु पर्वत पर प्रदक्षिणा देने से क्रूद्ध होकर विंध्य ने मार्ग रोक दिया है, जिसके फ्लस्वरुप उत्तर देश के लोग प्रचंड सूर्य के किरणों से व्याकुल होकर घबराने लगे और दक्षिण के रहने वाले लोग सूर्योदय न होने के कारण सोच में पड़ गए।

 

      सूर्य की गति रुक जाने से त्रिलोक का कार्य रुक गया, विंध्य का बल देख कर सभी देवता लोग ब्रह्मा जी के सरणागत हुवे और उनकी वंदना किये, फ्लस्वरुप ब्रह्मा जी ने उनके अभय के लिए काशी जाने का और परम् शैव अगस्त्य ऋषि से संकट निवारण की प्रार्थना करने को कहा क्युकि वे पूर्व काल मे वे वतापि और इलवल नामक राक्षसों का भक्षण कर और समुद्र को भी सोख कर समस्त लोक की रक्षा कर चुके है।

 

       ब्रह्मा जी के निर्देशानुसार सभी देवगण काशी प्रस्थान कर अगस्त्य ऋषि के आश्रम गए और वहाँ अगस्त्य ऋषि को अपने द्वारा स्थापित अगस्तेश्वर शिव लिंग की पूजा करते देखा और ऋषि की वंदना करने के बाद विंध्य की करतूत सुनाई और लोक कल्याण का अभय माँगा।

       जिससे परम प्रतापी काशी वास के अभिलाषी अगस्त्य ऋषि (जिनको काशी प्राण से भी अत्यधिक प्रिय थी उनको जनकल्याण के लिए काशी छोड़ना पड़ा) जनकल्याण के लिए बाध्य अगस्त्य ऋषि, देवताओं को अभय दे कर, अपनी पत्नी राजपूत्री देवी लोपामुद्रा के साथ काशी से विंध्य के तरफ प्रस्थान किये।

 

      अगस्त्य ऋषि को मार्गगत देख विंध्य अत्यंत भयभीत होकर अगस्त्य ऋषि को सपत्निक देख काँप उठा और ऋषि से आदर पूर्वक उनके आदेश का इंतजार करने लगा जिसमे अगस्त्य ऋषि ने विंध्य पर्वत को जब तक वह दक्षिण से लौट कर वह नहीं आते है, तब तक उसको झुके रहने को कहा, जिसके फ्लस्वरुप अभी तक विंध्य पर्वत झुका हुआ है ना अगस्त ऋषि दक्षिण से लौटे ना विंध्य पर्वत खड़ा हुआ और आज तक लेटा हुआ है और झुकने के फ्लस्वरुप सूर्यदेव की गति फिर से चलायमान हो गयी।

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