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दो वीरों का बलिदान दिवस

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों की सेना को नाकों चने चबवाने वाले तेजस्वी वीर थे तात्या टोपे। उनके पिता अत्यंत विद्वान थे। उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर दूसरे बाजीराव पेशवा ने उनके सिर पर नवरत्न जड़ित टोपी पहनाई। तभी से वे ‘टोपे’ उपनाम से पहचाने जाने लगे।
तात्या का औपचारिक शिक्षा अधिक नहीं था, लेकिन उन्होंने बचपन में ही शस्त्रविद्या प्राप्त कर ली थी।

उनकी बुद्धिमत्ता जबरदस्त थी। पेशवाओं के रसोईघर में बुंदी बनाने वाले इस युवक को युद्धनीति की बातें करते सुनकर नानासाहेब ने उसकी प्रतिभा को पहचाना।
नानासाहेब ने उसके हाथ से झाड़ू छीनकर सम्मानपूर्वक तलवार सौंपी और उसे सेनापति नियुक्त किया।
स्वतंत्रता संग्राम में अद्वितीय पराक्रम दिखाने वाले इस वीर को दुर्भाग्यवश विश्वासघात के कारण अंग्रेजों के हाथों गिरफ़्तार होना पड़ा।

18 अप्रैल 1859 को उन्हें सार्वजनिक रूप से फांसी दी गई।
तात्या टोपे ने वीरता से फांसी का फंदा चूमा।
उनके वस्त्र बाद में ब्रिटेन ले जाए गए, और 1857 की शताब्दी वर्ष (1957) में वापस भारत लाए गए।

कुछ कथाओं के अनुसार, तात्या टोपे के स्थान पर उनके सहयोगी रघुनाथ भागवत को फांसी दी गई थी, लेकिन इसका ठोस प्रमाण अभी तक नहीं मिला है।

आज ही के दिन थोरले (बड़े) चापेकर बंधुओं का भी बलिदान दिवस है। यह एक अद्भुत संयोग है!
गीता हाथ में लेकर फांसी पर चढ़ने की परंपरा चापेकर बंधुओं ने प्रारंभ की थी।
एक ही घर के तीन सगे भाई देशहित में फांसी पर चढ़े — यह इतिहास में अद्वितीय है।

आज हम फिल्मों के कलाकारों के किस्से तो जानते हैं, लेकिन क्रांतिकारियों के इतिहास से अनजान हैं।
अगर हम पराक्रम के इतिहास को भूलकर केवल नाचने-गाने वालों के पीछे भागेंगे, तो हमारी आने वाली पीढ़ी भी वैसी ही बन जाएगी।
इसलिए आज की पीढ़ी और अभिभावकों का कर्तव्य है कि इस गौरवशाली इतिहास को अगली पीढ़ी तक पहुँचाएं।

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