भारतवर्ष की ज्ञान परंपरा में अद्वितीय स्थान रखने वाले महापुरुषों में आदि शंकराचार्य का नाम अत्यंत श्रद्धा व आदर से लिया जाता है। वे न केवल एक महान दार्शनिक थे, बल्कि एक समाज सुधारक, आध्यात्मिक गुरु, और सनातन धर्म के पुनरुद्धारकर्ता भी थे। प्रतिवर्ष वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को उनकी जयंती मनाई जाती है, जो इस वर्ष 2 मई को है। इस अवसर पर यह लेख उनके जीवन, दर्शन, योगदान एवं आज की पीढ़ी के लिए उनके सन्देश को समर्पित है।
आदि शंकराचार्य का जन्म 8वीं शताब्दी में केरल के कालड़ी नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम आर्यम्बा था। वे ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए और बचपन से ही अत्यंत मेधावी, प्रतिभाशाली व तेजस्वी थे। केवल 8 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया था।
शंकराचार्य का जीवनकाल मात्र 32 वर्ष का रहा, लेकिन इस अल्प अवधि में उन्होंने जो कार्य किए, उनका प्रभाव आज भी भारत की धार्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक चेतना में जीवंत है।
शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत को पुनर्जीवित किया और इसे जनमानस तक पहुँचाया। अद्वैत का शाब्दिक अर्थ है – ‘एकमेव अद्वितीय ब्रह्म’। उन्होंने यह सिद्ध किया कि आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं। संसार मिथ्या है, ब्रह्म सत्य है।
उनकी प्रसिद्ध उक्ति – “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः” – अद्वैत वेदांत का सार है।
शंकराचार्य ने भारत के चारों दिशाओं में चार पीठों (मठों) की स्थापना की –
उत्तर में – ज्योतिर्मठ (उत्तराखंड)
दक्षिण में – श्रृंगेरी मठ (कर्नाटक)
पूर्व में – गोवर्धन मठ (पुरी, उड़ीसा)
पश्चिम में – शारदा मठ (द्वारका, गुजरात)
इन मठों के माध्यम से उन्होंने वेदांत दर्शन का प्रचार-प्रसार किया और सनातन धर्म को एकजुट रखने का प्रयास किया।
उस समय भारत में अनेक पंथों, मतों व विचारधाराओं का बोलबाला था। बौद्ध, जैन, मीमांसा, सांख्य, लोकायत जैसे दर्शनों की प्रतिस्पर्धा चल रही थी। शंकराचार्य ने अपने तार्किक और गूढ़ ज्ञान से अद्वैत वेदांत की श्रेष्ठता सिद्ध की और सनातन धर्म को पुनः प्रतिष्ठित किया।
आदि शंकराचार्य ने वेदांत सूत्र, भगवद्गीता, और उपनिषदों पर गूढ़ भाष्य लिखे। उनके भाष्य अत्यंत सरल, सुगम और गहराई से परिपूर्ण होते हैं, जो आज भी वेदांत पढ़ने वालों के लिए मार्गदर्शक हैं।
हालाँकि वे ज्ञान मार्ग के प्रणेता थे, लेकिन उन्होंने भक्ति के महत्व को भी स्वीकारा। उन्होंने अनेक स्तोत्रों की रचना की, जैसे – भज गोविन्दम्, दक्षिणामूर्ति स्तोत्र, सौंदर्य लहरी, शिवानंद लहरी, आदि। उन्होंने बताया कि भक्ति, ज्ञान का पहला चरण है।
अद्वैतवाद: आत्मा और परमात्मा भिन्न नहीं हैं। व्यक्ति अपने अंदर के ब्रह्म को पहचाने।
वैराग्य और आत्मज्ञान: मोह, माया और संसार के बंधनों से मुक्ति पाकर आत्मज्ञान प्राप्त करें।
एकता का संदेश: सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में बाँधने का कार्य उन्होंने किया, जिससे सांस्कृतिक एकता बनी रही।
संघर्ष से नहीं, संवाद से समाधान: उन्होंने विचारधाराओं से टकराव नहीं किया, बल्कि तर्क और संवाद के माध्यम से समाधान प्रस्तुत किए।
आदि शंकराचार्य का जीवन आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना आठवीं शताब्दी में था। आज जब समाज जात-पात, धर्म-मत के नाम पर बंटा हुआ है, तब शंकराचार्य का अद्वैतवाद एकता का संदेश देता है।
जहाँ एक ओर लोग बाह्य पूजा में उलझे हुए हैं, वहीं शंकराचार्य आत्मा की अंतर्दृष्टि की ओर ध्यान खींचते हैं। उनका दर्शन आत्म-चिंतन, आत्म-निरीक्षण और मोक्ष की ओर प्रेरित करता है।
“जब तक जीवन है, तब तक मुक्ति की चाह रखो; मृत्यु के बाद कुछ भी नहीं होता।”
“अपने स्वरूप को जानो, यही मुक्ति का मार्ग है।”
“मूर्ख जन बार-बार संसार के जाल में फँसते हैं, ज्ञानी आत्मा को ही परमात्मा मानते हैं।”
आदि शंकराचार्य न केवल दार्शनिक थे, बल्कि भारत की संस्कृति और चेतना के महान रक्षक भी थे। उनकी अद्वितीय बुद्धि, अथक परिश्रम, अपूर्व दर्शन और संपूर्ण भारत में भ्रमण की भावना उन्हें एक युगपुरुष बनाती है।
उनकी जयंती हमें यह याद दिलाती है कि सनातन संस्कृति केवल कर्मकांडों में नहीं, बल्कि आत्मा की खोज, ज्ञान की साधना और सच्चे भक्ति में निहित है।
आइए, इस आदि गुरु शंकराचार्य जयंती पर हम उनके विचारों को आत्मसात करें और अपने जीवन में ज्ञान, भक्ति, वैराग्य और आत्मबोध को स्थान दें।
ॐ नमः परमहंस परिव्राजकाचार्य भगवान श्रीमदादि शंकराचार्याय नमः।