हिन्दू धर्म का व्यक्ति अपने जीवित माता-पिता की सेवा तो करता ही है, उनके देहावसान के बाद भी उनके कल्याण की भावना करता है एवं उनके अधूरे शुभ कार्यों को पूर्ण करने का प्रयत्न करता है । ‘श्राद्ध-विधि’ इसी भावना पर आधारित है।
पुराणों में आता है कि आश्विन (गुजरात-महाराष्ट्र के मुताबिक भाद्रपद) कृष्ण पक्ष की अमावस (पितृमोक्ष अमावस) के दिन सूर्य एवं चन्द्र की युति होती है । सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है । इस दिन हमारे पितर यमलोक से अपना निवास छोड़कर सूक्ष्म रूप से मृत्युलोक (पृथ्वीलोक) में अपने वंशजों के निवास स्थान में रहते हैं । अतः उस दिन उनके लिए विभिन्न श्राद्ध करने से वे तृप्त होते हैं ।
गरुड़ पुराण में लिखा है कि “अमावस्या के दिन पितृगण वायुरूप में घर के दरवाजे पर उपस्थित रहते हैं और अपने स्वजनों से श्राद्ध की अभिलाषा करते हैं। जब तक सूर्यास्त नहीं हो जाता, तब तक वे भूख-प्यास से व्याकुल होकर वहीं खड़े रहते हैं। सूर्यास्त हो जाने के पश्चात वे निराश होकर दुःखित मन से अपने-अपने लोकों को चले जाते हैं। अतः अमावस्या के दिन प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। यदि पितृजनों के पुत्र तथा बन्धु-बान्धव उनका श्राद्ध करते हैं और गया-तीर्थ में जाकर इस कार्य में प्रवृत्त होते हैं तो वे उन्ही पितरों के साथ ब्रह्मलोक में निवास करने का अधिकार प्राप्त करते हैं। उन्हें भूख-प्यास कभी नहीं लगती। इसीलिए विद्वान को प्रयत्नपूर्वक यथाविधि शाकपात से भी अपने पितरों के लिए श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
राजा रोहिताश्व ने मार्कण्डेयजी से प्रार्थना की : ‘‘भगवन् ! मैं श्राद्धकल्प का यथार्थरूप से श्रवण करना चाहता हूँ।
मार्कण्डेयजी ने कहा : ‘‘राजन् ! इसी विषय में आनर्त-नरेश ने भर्तृयज्ञ से पूछा था । तब भर्तृयज्ञ ने कहा था : ‘राजन् ! विद्वान पुरुष को अमावस्या के दिन श्राद्ध अवश्य करना चाहिए । क्षुधा से क्षीण हुए पितर श्राद्धान्न की आशा से अमावस्या तिथि आने की प्रतीक्षा करते रहते हैं । जो अमावस्या को जल या शाक से भी श्राद्ध करता है, उसके पितर तृप्त होते हैं और उसके समस्त पातकों का नाश हो जाता है।
आनर्त-नरेश बोले : ‘ब्रह्मन् ! मरे हुए जीव तो अपने कर्मानुसार शुभाशुभ गति को प्राप्त होते हैं, फिर श्राद्धकाल में वे अपने पुत्र के घर कैसे पहुँच पाते हैं?
भर्तृयज्ञ : ‘राजन् ! जो लोग यहाँ मरते हैं उनमें से कितने ही इस लोक में जन्म लेते हैं, कितने ही पुण्यात्मा स्वर्गलोक में स्थित होते हैं और कितने ही पापात्मा जीव यमलोक के निवासी हो जाते हैं । कुछ जीव भोगानुकूल शरीर धारण करके अपने किये हुए शुभ या अशुभ कर्म का उपभोग करते हैं ।
राजन् ! यमलोक या स्वर्गलोक में रहनेवाले पितरों को भी तब तक भूख-प्यास अधिक होती है, जब तक कि वे माता या पिता से तीन पीढ़ी के अंतर्गत रहते हैं । जब तक वे मातामह, प्रमातामह या वृद्धप्रमातामह और पिता, पितामह या प्रपितामह पद पर रहते हैं, तब तक श्राद्धभाग लेने के लिए उनमें भूख-प्यास की अधिकता होती है ।
पितृलोक या देवलोक के पितर श्राद्धकाल में सूक्ष्म शरीर से श्राद्धीय ब्राह्मणों के शरीर में स्थित होकर श्राद्धभाग से तृप्त होते हैं, परंतु जो पितर कहीं शुभाशुभ भोग हेतु स्थित हैं या जन्म ले चुके हैं, उनका भाग दिव्य पितर लेते हैं और जीव जहाँ जिस शरीर में होता है, वहाँ तदनुकूल भोगों की प्राप्ति कराकर उसे तृप्ति पहुँचाते हैं ।
ये दिव्य पितर नित्य और सर्वज्ञ होते हैं । पितरों के उद्देश्य से शक्ति के अनुसार सदा ही अन्न और जल का दान करते रहना चाहिए । जो नीच मानव पितरों के लिए अन्न और जल न देकर आप ही भोजन करता है या जल पीता है, वह पितरों का द्रोही है । उसके पितर स्वर्ग में अन्न और जल नहीं पाते हैं । श्राद्ध द्वारा तृप्त किये हुए पितर मनुष्य को मनोवांछित भोग प्रदान करते हैं ।
आनर्त-नरेश : ‘ब्रह्मन् ! श्राद्ध के लिए और भी तो नाना प्रकार के पवित्रतम काल हैं, फिर अमावस्या को ही विशेषरूप से श्राद्ध करने की बात क्यों कही गयी है ?
भर्तृयज्ञ : ‘राजन् ! यह सत्य है कि श्राद्ध के योग्य और भी बहुत-से समय हैं । मन्वादि तिथि, युगादि तिथि, संक्रांतिकाल, व्यतीपात, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण – इन सभी समयों में पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए । पुण्य-तीर्थ, पुण्य-मंदिर, श्राद्धयोग्य ब्राह्मण तथा श्राद्धयोग्य उत्तम पदार्थ प्राप्त होने पर बुद्धिमान पुरुषों को बिना पर्व के भी श्राद्ध करना चाहिए । अमावस्या को विशेषरूप से श्राद्ध करने का आदेश दिया गया है, इसका कारण है कि सूर्य की सहस्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम ”अमा” है । उस “अमा” नामक प्रधान किरण के तेज से ही सूर्यदेव तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं । उसी “अमा” में तिथि विशेष को चंद्रदेव निवास करते हैं, इसलिए उसका नाम अमावस्या है । यही कारण है कि अमावस्या प्रत्येक धर्मकार्य के लिए अक्षय फल देनेवाली बतायी गयी है । श्राद्धकर्म में तो इसका विशेष महत्त्व है ही ।
श्राद्ध की महिमा बताते हुए ब्रह्माजी ने कहा है : ‘यदि मनुष्य पिता, पितामह और प्रपितामह के उद्देश्य से तथा मातामह, प्रमातामह और वृद्धप्रमातामह के उद्देश्य से श्राद्ध-तर्पण करेंगे तो उतने से ही उनके पिता और माता से लेकर मुझ तक सभी पितर तृप्त हो जायेंगे ।
जिस अन्न से मनुष्य अपने पितरों की तुष्टि के लिए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त करेगा और उसीसे भक्तिपूर्वक पितरों के निमित्त पिंडदान भी देगा, उससे पितरों को सनातन तृप्ति प्राप्त होगी ।
पितृपक्ष में शाक के द्वारा भी जो पितरों का श्राद्ध नहीं करेगा, वह धनहीन चाण्डाल होगा । ऐसे व्यक्ति से जो बैठना, सोना, खाना, पीना, छूना-छुआना अथवा वार्तालाप आदि व्यवहार करेंगे, वे भी महापापी माने जाएंगे । उनके यहाँ संतान की वृद्धि नहीं होगी । किसी प्रकार भी उन्हें सुख और धन-धान्य की प्राप्ति नहीं होगी ।
यदि श्राद्ध करने की क्षमता, शक्ति, रुपया-पैसा नहीं है तो श्राद्ध के दिन पानी का लोटा भरकर रखें फिर भगवदगीता के सातवें अध्याय का पाठ करें और 1 माला द्वादश मंत्र “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” और एक माला “ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा” की करें और लोटे में भरे हुए पानी से सूर्यं भगवान को अर्घ्य दे फिर 11.36 से 12.24 के बीच के समय (कुतप वेला) में गाय को चारा खिला दें । चारा खरीदने का भी पैसा नहीं है, ऐसी कोई समस्या है तो उस समय दोनों भुजाएँ ऊँची कर लें, आँखें बंद करके सूर्यनारायण का ध्यान करें : ‘हमारे पिता को, दादा को, फलाने को आप तृप्त करें, उन्हें आप सुख दें, आप समर्थ हैं । मेरे पास धन नहीं है, सामग्री नहीं है, विधि का ज्ञान नहीं है, घर में कोई करने-करानेवाला नहीं है, मैं असमर्थ हूँ लेकिन आपके लिए मेरा सद्भाव है, श्रद्धा है । इससे भी आप तृप्त हो सकते हैं । इससे आपको मंगलमय लाभ होगा।