हे गोबिंद ! क्या श्री राम को पता था कि उनके एक कदम भी आगे पीछे न रखने से उनके दल के सभी सदस्यों पर मुसीबत का कहर टूट पड़ेगा।
हे भारत ! श्री राम सत्य की मूर्ति है और उन्हें अपने चरित्र पर व दृढ़ संकल्प में शिव शक्ति पर अटूट विश्वास है कि उनके संकल्प कभी न कमजोर पड़ सकते व न ही अधूरे रह सकते।दृढ़ प्रतिज्ञ होने के कारण ही वे अविचल रहते हैं, यही मानसिक मजबूती है जो परिणाम भी अनूकूल देती है।अतः उन्हें स्वयं पर ही अविचल विश्वास है, यही उनकी जीत है।
लेकिन जब श्री राम ने देख लिया कि अमृत बाण मेरे दल को भस्म करने को छोड़ दिया रावण ने।
तो फिर उन्होंने तो पीछे मुड़कर देखा भी नहीं।क्या उन्हें पता था कि हनुमान इसकी काट जानता है❓
नहीं महाबाहु,श्री राम को इस विषय में कोई अंदाजा नहीं था क्योंकि वह तो रावण के साथ पूरी एकाग्रता के साथ लड़ने में व्यस्त थे।परन्तु तेजस्वियों की एक ही पहचान है कि उनके सारे रास्ते खुद खुलते चले जाते हैं।
झूठ व धोखे के पुलिंदे निष्कपट व सरल और अहिंसक वादियों के प्रति खुद ही फीके पड़ जाते हैं।अतः वह रक्षा किसी के भी माध्यम से हो,हो ही जाती है।वह ईश्वर किसी न किसी को निमित्त बनाकर कार्य सिद्ध कर ही देता है।युद्ध में उन्होंने अमृत बाण के लिये हनुमान को निमित्त बनाया और कार्य सफल हो गया।
तो फिर ईश्वर लक्ष्मण को भी तो निमित्त बना सकते थे,हनुमान को ही क्यों बनाया❓लक्ष्मण भी तो शेषावतार हैं, वे भी अग्नि तक पी सकते हैं और रसायनों को भस्म कर सकते हैं तो फिर उन्हें क्यों निमित्त नहीं बनाया।
निमित्त बनाने के लिये हनुमान इस कसौटी पर खरे थे क्योंकि लक्ष्मण जी तो राम जी की तरह उनकी लीला में मर्यादित हैं।अतः कुछ विशेष गुणों के कारण हनुमान स्वछंद हैं,लक्ष्मण नहीं।इसलिये विशिष्टता हेतु ही हनुमान द्वारा अमृत बाण ले जाया गया।निमित्त के लिये भी कार्य अनुरूप कुछ गुणों की परखता की जाती है, तब निमित्त बनाया जाता है।
राम लक्ष्मण नर लीला में रत हैं,हनुमत स्वाभाविक क्रियाओं में रत हैं।अतः निमित्तता में वे खरे उतरे इस कार्य में,लक्ष्मण नहीं।
तो फिर राम जी ने ब्रह्मास्त्र क्यों संधान किया जबकि रावण ने पहले ही संधान किया वही अस्त्र।राम जी जानते हैं कि दो ब्रह्मास्त्र टकराने से महाविनाश होगा पृथ्वी व नक्षत्र मंडल में।फिर क्यों सांधा? ब्रह्मास्त्र को नमस्कार व स्तुति करके उसे लौटाया जा सकता था।
इसके पीछे राम जी की खास योजना थी।उसे सुनो
हनुमान जी ने कहा कि प्रभु❗आप रावण के ब्रह्मास्त्र को शांत कर दीजिये परन्तु ब्रह्मास्त्र मत प्रेक्षिप्त करो।परन्तु श्री राम ने एक न सुनी तो शिव जी आसन छोड़ खड़े हो गए कि राम जी को कैसे मनाऊँ,क्या करूँ।
पार्वती ने पूछा कि महादेव❗आप इतने व्यग्र क्यों हैं?
महादेव कहने लगे कि राम जी ने ये क्या निर्णय ले लिया।ब्रह्मास्त्र शांत करने के बजाय उसकी टक्कर लेने की ठानी,सब कुछ बर्बाद हो जाएगा।फिर काहे की जीत मुझे यही चिंता है।पार्वती कहने लगी कि आप मेरे रूप तारा के विरुद्ध राम जी की मदद नहीं कर सकते लेकिन उन्हें समझा तो सकते हैं, इससे कोई हानि नहीं होगी रावण की और तारा देवी भी प्रसन्न ही होंगी।जाईये महादेव,आप शीघ्र जाईये राम जी को शांत करें।
महादेव ने राम जी के मानस में दर्शन देकर कहा कि ब्रह्मास्त्र सांधने की जरूरत नहीं है।आप रावण के ब्रह्मास्त्र को ब्रह्म स्तुति द्वारा लौटा दें,आपका अवतार विनाश नहीं सृजन के लिये हुआ है।रघुकुल शत्रु पर विजय अवश्य प्राप्त करते हैं, लेकिन निर्दोषों की जान नहीं लेते और न प्रकृति का विनाश करते।यह कहकर महादेव अंतर्ध्यान हो गए।
अब राम जी ने करीब आते हुए ब्रह्मास्त्र की स्तुति की और वह अस्त्र वापस लौट गया और राम जी ने क्योंकि दोनों हाथ जोड़कर ब्रह्म स्तुति की थी तो कंधे से धनुष नीचे उतारकर ही की थी
रावण को ब्रह्मास्त्र खाली वापस आते देख बड़ा क्रोध आया और उसने क्रोध में भरकर राम जी की छाती छलनी करने के लिये भाला फेंक दिया।राम जी निहत्थे खड़े थे,बस यह रावण का महा अपराध बन गया और तारा देवी को क्रोध चढ़ गया।वे रावण के रथ को त्यागकर चली गयी कि अन्यायी❗आज तूने नियम भंग कर दिया।मेरी शर्त अनुसार अब मैं तुझे त्यागकर जा रही हूँ।इधर राम जी धनुष उठाने नीचे झुके और भाला उनके सिर के ऊपर से गुजर गया और राम जी बच गये।
जैसे ही तारा देवी भगवती रावण के रथ को त्यागकर चली तो रावण का दिव्य रथ भस्म हो गया और रावण जमीन पर गिर पड़ा।लेकिन चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था कि नहीं भगवती,तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकती,नहीं जा सकती,लौट आओ।मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूँ।क्षमा दो तारा देवी पर देवी तारा अब कैलाश लौट आयी थी और पार्वती ने उनका अभिनन्दन किया और महादेव भी बड़े प्रसन्न हुए।
रावण ने अपना दूसरा रथ मंगाया, पर वह दिव्य नहीं था।फिर चिढ़कर राम जी पर बाण वर्षा करने लगा तो राम जी ने उसके रथ के परखच्चे उड़ा दिए और उसे घायल कर दिया।परन्तु अब उसके शरीर में रक्त बह रहा था,इसलिये वह अति कुपित हुआ।इतने में सूर्यास्त हो गया और रावण लंका न जाकर सीधे श्मशान में जाकर देवी तारा का आवाहन करने लगा।
राम जी भी शिविर में लौट आये और महर्षि अगस्त्य जी उनसे मिलने आये।
महर्षि अगस्त्य ने कहा कि राम जी आज तक तो आप विजयी रहे लेकिन रावण का तनिक भी अनिष्ट नहीं कर सके क्योंकि देवी तारा उनकी हर सम्भव मदद करके उसके रथ पर सवार उसके जख्म तक सुखाती थी परन्तु अब रावण महल में नहीं गया, वह देवी तारा को मनाने श्मशान में चला गया।
रावण बड़ा हटी है, वह देवी तारा के लिए सिद्धि प्राप्त करने हेतु दिन रात एक करके अखण्ड तपस्या करेगा।
लेकिन युद्ध का नियम है कि तीन दिन से अधिक तप नहीं किया जा सकता नहीं तो,शत्रु की विजय घोषणा हो जाती है।अतः रावण तीन दिवसीय ही सिद्धि करेगा।यदि उसे देवी की सिद्धि मिल गई,तब आप उस पर विजय नहीं प्राप्त कर पाओगे।अतः रावण को हराने के लिये आप देवी पार्वती की दुर्गा रूप की आराधना गणेश सहित करो।तीन दिन का समय आप दोनों के पास है, जिसे देवी पहले वरदान देगी,वही विजयी होगा लेकिन सावधान❗रावण बड़ा चालाक है, वह देवी तारा को मनाने में अपना सर्वस्व पुनः लगाएगा अतः आप तनिक भी समय नष्ट न करके तीन दिवसीय दुर्गा के अखण्ड जप आरम्भ करो।
राम जी ने महर्षि अगस्त्य जी का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि हे पूज्य गुरुवर❗ऐसा ही होगा।मेरा अहोभाग्य कि महामाया के लिये मुझे तप करने का त्रिदिवसीय अनुष्ठान का सौभाग्य प्राप्त हुआ।