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तुझे किस किसने नहीं ध्याया मेरी माँ,भाग-2

तुम किस भ्रम की बात कर रहे हो अर्जुन ? जरा खोलकर बताओ तो।

हे हृषिकेश युद्ध के मैदान में आप मुझे समझा रहे थे कि तू अपना सर्वस्व मुझे अर्पण कर दे।मेरी मन बुद्धि चित्त में अपना मन बुद्धि चित्त मिला दे।सब धर्मों को छोड़कर तू मेरी शरण में आजा,मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा आदि आदि।लेकिन मैं देख रहा हूँ कि आप माता भगवती का ही गुणगान किये जा रहे हैं।जब आपने विराट रूप दिखाया तो ब्रह्मा विष्णु शिव अग्नि वायु जल धरती आकाश सब आपमें समाहित थे और समस्त देव पितर आपमें प्रविष्ट थे,पूरे ब्रह्मांड में आप ही आप थे।फिर आप दुर्गा के चरणों की पूजा

मैं तो विस्मित हूँ भगवन❗मैं आपको बड़ा मानूँ या महामाया को❓मेरी कुछ समझ नहीं आया।ये सब तो भ्रम पैदा कर रहा है मुझमें।मेरे संशय का नाश करें मेरे गुरु बनकर।

कैसा संशय अर्जुन❗दो ही अनादि तत्व इस जगत में हैं।एक पुरुष और दूसरा प्रकृति।

प्रलय में प्रकृति का प्रलय मुझमें अवश्य है पर लीन नहीं हो सकती।पुनः पुनः सृष्टि में यही अनादि प्रकृति मुझसे बाहर मूर्त रूप धारण करती है और प्रलय में मुझमें आकर सुप्त हो जाती है पर मरती नहीं।

मरते हैं इसके रंग रूप आकृति,यह नहीं मरती।अदलती बदलती रहने से ही इसे नश्वर संज्ञा मिली और मुझे शास्वत।लेकिन मेरी विराटता को दिखाने में इसी का सहयोग है।

यह रूप है तो दर्शन हैं।यह शब्द है तो श्रवण है।यह गन्ध है तो ग्राह्य है।यह त्वग है तो स्पर्श है।यह रस है तो स्वाद है।

अतः तूने जो विराट दर्शन देखा,इसके बिना न तो तू देख सका और न मैं दिखा सका।

आत्मा परमात्मा के मध्य सारा खेल इसी महामाया का है अर्जुन❗बंधन व मोक्ष सब इसी के खेल हैं अर्जुन❗विद्या भी यही और अविद्या भी यही है अर्जुन❗साधना भी यही तो शक्ति भी यही है अर्जुन।

इसलिये इसके बिना मैं भी निष्क्रिय हूँ, शिव भी व ब्रह्मा भी।

मैं इसे प्रकट अवश्य करता हूँ अपने भीतर से परन्तु देह तो यही धारण करवाती है मुझसे।

दुनिया की प्रार्थना यही सुनवाती है मुझसे।

जग का विस्तार इसी से है अर्जुन।

यह मुझमें व मैं इसमें हूँ।

लेकिन दीनानाथ ! जब आप प्रकृति के स्वामी हैं तो इनकी आराधना क्यों की आपने❓यही तो मेरा भ्रम है जो दूर करिए।

इस प्रकृति ने देह धारण करके शंकर का वरण किया है।शंकर मेरे आराध्य हैं।अतः यह मेरी आराध्य देवी हैं अर्जुन❗

इसने शिव का ही वरण क्यों किया भगवन❓आप भी तो अविनाशी हैं।

वस्तुतः शिव एक परम सत्ता है अर्जुन।जिसके तीन विभाग होकर ब्रह्मा,विष्णु व रुद्र हुए।अतः शिव अनादि तत्व हैं।उन्हीं शिव की ये आल्हादिनी शक्ति है, जिसके तीन अंश लक्ष्मी,शारदा व उमा हैं।पर महामाया परिपूर्ण परमेश्वरी शिव की अधिकृत शक्ति हैं।

शिव मेरे आराध्य व शिवा अर्थात महामाया मेरी आराध्या देवी।

देखो अर्जुन तुम कितने भी बड़े बन जाओ,लेकिन अपनी माँ से बड़े नहीं हो सकते।

जगत में सगुण ज्ञान यही है, जिसमें द्वैत भाव(दृश्य व दृष्टा) से लोक व्यवहार होते हैं और निर्गुण ज्ञान यही है कि द्वितीयो नास्ति(दूसरा तत्व है ही नहीं)।

अतः लौकिक व्यवहार में मैं इन्हें नमन करके इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए इनका आवाहन भी करता हूँ और वंदन भी व भेंट अर्पण भी व आशीष ग्रहण करता हूँ।

इन्होंने ही विष्णु जी की रक्षा की है मधु कैटभ से।इन्हीं विश्वमोहिनी ने मधु कैटभ को मोहित करके उन्हें मारने में विष्णु जी सहायता की थी।

इन्हीं महामाया की ब्रह्मा जी ने स्तुति की थी,जब मधु कैटभ उन्हें खाने को झपटे थे, इन्होंने ही विष्णुजी की पलकों से अपना प्रभाव हटाया था ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर।

यह भक्तों की सहायक हैं।

यह इतनी कोमल हृदय वाली हैं कि सुर भी इन्हें प्रिय व असुर भी।

जो भी इन्हें ध्याता है, उसी को पुत्रवत देखती हैं।

रावण इनकी दस महाविद्या में माता तारा देवी की उपासना करता था।

मेघनाथ इनकी निकुंभला रूप की उपासना करके इतना शक्तिवान बना था कि इंद्र को भी जीत लिया था।अहिरावण पाताला देवी की उपासना करता था।

राम जी ने विजया देवी की उपासना की और जब रावण युद्ध में रूठी हुई तारा देवी की तीन दिन तक उपासना करता रहा तो श्रीराम ने तीन दिन तक गौरी की उपासना की।

हनुमान ने कभी चन्द्रघण्टा तो कभी कुष्मांडा देवी और कभी कालरात्रि देवी की उपासना की,सीता ने तो रावण की लंका में नवदुर्गा उपासना की और रावण के मरने के बाद सिद्धिदात्री देवी की पूजा की।चौदह भुवन में जो भी दृश्य हैं, वे सब इसी के रूप हैं।यही भोग्य पदार्थ है।

मेरा भी पेट इससे भरता है और त्रिदेवों का व देवों का भी और तुम्हारा भी अर्थात पूरे संसार का पेट भरने वाली यही है।यही धरणी है और धरा के रत्न भी यही,इसी के गर्भ से शाक,फल,फूल,अन्न,दालें, मेवे आदि उत्पन्न होते हैं।गाय बछड़े,हाथी,शेर,भालू,बकरी,मगर मगरी सब जीव जंतु,कीट मर्कट आदि सभी जीवधारी इसी के गर्भ से प्रकट रस भोगों से अपनी क्षुधा शांत करते हैं।अतः हे अर्जुन ! यही सबकी पालनहार है, यही जगजननी है, यही दुष्टों को भी दलती है और प्रार्थना पर उनको वर भी देती हैं।जितनी सरल है, उतनी कोमल हृदयी है।हमारी तुम्हारी सभी की देह इसी के तत्वों से बनी,साकार भी यही,आकर भी यही।यही गुण है, यही शब्द श्रुति का आधार,यही नाद है, यही प्रसाद।इसी के द्वारा मेरी व ब्रह्मा शिव की सगुण देह है।इसके बिना जगत की कल्पना भी सम्भव नहीं।सर्वत्र इसी का पसारा है।अतः इसके उपकारों का बदला कोई नहीं चुका सकता,न मैं और न तुम।निर्गुण ब्रह्म तो निष्क्रिय है, उसे सगुण यही बनाती है, सगुण ब्रह्म की क्रिया,फल व संस्कार सब यही है।इसके बिना सब शून्य है।सभी की रग रग में यह रक्त बनकर बह रही है, समीर बनकर श्वासों में बह रही है। देह इसकी, स्पंदन मेरा।जड़ ये, चेतन मैं।

इसके बिना सृष्टि सम्भव ही नहीं अर्जुन❗

मेरी बुद्धि के पट खुल गए जगदात्मा प्रभु❗ मैं भी इनके अनुग्रह के लिये इन्हें नमन करता हूँ और गीता के बहुत सारे मर्म अधूरे थे,आज गीता पूरी कर दी आपने मेरे जीवन धन।

अब तू पूर्ण कुशल हुआ अर्जुन ! शिव ब्रह्मांड का विस्तार और यह महामाया ब्रह्मांड की चौसठ कला।सभी लोकों में सर्वत्र शिव व शिवा ही हैं।

लेकिन अभी आपका पीछा नहीं छोडूंगा केशव !जब तक मुझे राम व हनुमान की बात नहीं बता देते,मुझे सब कुछ बताओ…….

क्रमशः●●●●●●●●●●

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