हे वीर अर्जुन अब मेरी बात ध्यान से सुनो।
ये ब्रह्मांड बड़ा ही विचित्र है।इसमें सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही ऊर्जाओं से अलग अलग लोकों की रचना हुई और इन ऊर्जाओं की मात्रा को घटा बढ़ाकर विभिन्न संरचनाएं निर्मित हुई।केवल देव सृष्टि से बात नहीं बनी और न अन्य सृष्टि से।केवल मनुष्य सृष्टि से भी बात नहीं बनी।
समस्त 14 भुवनों का आपस में एक तालमेल है।
यदि देव सृष्टि हटा दें तो मनुष्य सृष्टि कहीं की भी न रहेगी।धरती आकाश अग्नि वायु व जल ये एक देव व्यवस्था के अंतर्गत है जो कि प्रकृति का भाग है, ये पंच तत्व व तीन गुण इन सबके कम व अधिक मिश्रण से भिन्न भिन्न अनुपात के कारण भिन्न भिन्न संरचना सम्भव हुई जिस कारण कोई सतोगुणी वस्तु,कोई रजोगुणी वस्तु और कोई तमोगुणी।
हर पदार्थ में रचना व संहार होता है।अर्थात बनना बिगड़ना व स्थिर रहना ये सब सम्भव हो पाता है।तो ये सब किसी खास सूत्र के कारण होता है।वे सूत्र ही विद्याएं हैं।सृष्टि में केवल प्रकाश का ही महत्त्व नहीं,अंधकार का भी महत्त्व है।चन्द्र व सूर्य दोनों विपरीत धर्मी हैं और विपरीत समय में कार्य करते हैं।इसी प्रकार ब्रह्मांड की असंख्य वस्तुएं किसी खास मकसद के लिये अस्तित्व में हैं।लेकिन हर रचना एक खास कला के अंतर्गत रची गयी,ये सब एक विशेष विज्ञान के तहत है।वह विज्ञान ही विद्या है।
रचना,पालन संहार ये भी एक विज्ञान द्वारा सम्भव है, जिसे ब्रह्मा विष्णु महेश संचालित करते हैं।
वीर अर्जुन समस्त विद्याएं शिव व शिवा के अधिकार में हैं।मरण मारन मोहन उच्चाटन आदि भी विद्याएं हैं।अंतर्ध्यान होना भी एक विद्या है।अणिमा,महिमा लघिमा,गरिमा,प्राप्ति,प्राकाम्य,ईशित्व वशित्व,ये सब भी योग विद्याएं हैं, जिन्हें सिद्धि की उपलब्धि कहा जाता है और चोंसठ कलाएं भी विद्याएं ही हैं।हर विषय वस्तु के विज्ञान हैं, उनके नियम सूत्र हैं।तो बिना विद्या के तो कुछ भी सम्भव नहीं वीर अर्जुन।
अतः इनके सात्विक राजसी व तामसी वर्गीकरण किये गए और सभी वर्गीकरणों को दस जगह विभक्त करके संचित व सुरक्षित किये गए जिनको शिव की शक्ति पार्वती ने धारण किये और ये दस महाविद्याएं दस देवियों के अधिकार में हैं।जिनसे जगत का सारा कार्य किया जाता है।
अतः इसमें भी आश्चर्य की कोई बात नहीं कि शिव की लाखों योगनियाँ हैं,जो किसी न किसी विद्या में परिपूर्ण हैं।पार्वती तो समस्त विद्याओं का आगार हैं लेकिन दस महाविद्याएं दस देवियाँ अपने अपने अधिकार में सुरक्षित रखती हैं जो सकारात्मक व नकारात्मक सभी ऊर्जाओं को समेटे हुए हैं।विद्या भी व अविद्या भी सब महामाया के ही वश में है, जो जिस वृत्ति का होता है, ये वही ऊर्जा धारा प्रकट करती हैं।
अतः अर्जुन हम जिस भाव से उन्हें ध्याते हैं, वे हममें उन्हीं ऊर्जाओं को भरने लगती हैं।
रावण केवल राक्षसी साम्राज्य विकसित करके ब्राह्मणों व ऋषिमहर्षियों का महाविनाश करना चाहता था तो महाविनाशक चामुण्डा व तारा और पाताला व नारसिंही ने उनके अंदर वही ऊर्जा भरनी आरम्भ कर दी।
यदि कोई अन्य नर या नारी उनकी शुद्ध मनोभावों से पूजा करते हैं तो ये उनमें शुद्ध प्रकाशमयी ऊर्जा विकसित कर देती हैं।
अतः अर्जुन तामस व विद्या का संगम इन भगवती योगनियों में बड़ा ही अनूठा है, तभी तो ये त्रिभुवन को नाच नचाने व भूल भुलैया में रखने में माहिर हैं।
ये भक्ति शक्ति की दात्री हैं तो मुक्ति की ओर भी अग्रसर करने में जीव की मदद करती हैं।परन्तु हैं बड़ी दुष्कर,शिव के अलावा किसी के वश में नहीं आती।ब्रह्मा जी को भी भ्रम में डाल देती हैं व मुझसे भी मोह जनित कार्य करवा देती हैं।विष्णु जी को वृंदा के मोह में दिन रात चिता की राख में सने रहने पर विवश कर दिया था।अतः त्रिदेव इनकी मान्यता नहीं नकारते,बल्कि बड़ा आदर मान करते हैं और स्तुति भी करते हैं।कभी कभी तो स्वयं शिव इनकी स्तुति करते हैं।
अतः तामस शरीर ही है,स्वभाव नहीं, जो तामस दैत्यों को भक्षण करने के लिए हुआ।
हे निधिपति❗ये बताओ कि मनुष्य तामसी भोजन करे तो स्वभाव भी तामसी बने तो इन दुर्गाओं का क्यों नहीं हुआ मांस भक्षण करके,मदिरा पान करके,रक्त पीकर व हड्डी चूसकर❓
प्रिय अर्जुन❗ये प्रकृति स्वरूपा हैं।अर्थात रक्त मास मज्जा अस्थि सब इन्हीं के रूप हैं, ये फूल पत्ते,तने,जड़,फल शाक स्वरूपा सब कुछ हैं।अतः इनसे भिन्न कोई आकृति नहीं।अक्षर शब्द मात्रा,छंद, गायत्री, सब कुछ यही प्रकृति देवी हैं।जो भी दृश्यमान है,वो इन्हीं का रंग रूप हैं।ये प्रकृति व शिव पुरुष।पुरुष प्रकृति का ही रचा सारा ब्रह्मांड है।अतः इन पर मांस मदिरा का कोई प्रभाव नहीं।
अच्छा❗जैसे मैंने आपके विराट रूप में देखा कि आप सब कुछ भक्षण किये जा रहे हैं।अपनी उग्र दाढ़ों से सब जीवों को चबाते जा रहे हैं।द्रुत गति से सब कुछ आपके मुख में समाए जा रहा है।ठीक ऐसे ही दुर्गा सब कुछ तामस भोगकर भी निर्लिप्त है।यही बात हुई न मधूसूदन❗
हाँ अर्जुन❗तुम ठीक समझे।ये प्रकृति प्रकृति का ही भक्षण करके फिर निर्लिप्त होकर रहती हैं।
पर शिव ने इन्हें श्मशान पर वहाँ के परिवेश के हिसाब से स्वभाव दिया और ईशान में अलग व कैलाश में अलग व अन्य स्थलों पर अलग।इसलिये स्वभाव में विचरना भी कुछ कलाओं को प्रकट करता है।
हे मुदितमने मनमोहन❗आज आपने मुझे बहुत गूढ़ ज्ञान दिया।आपके श्री चरणों में मेरा मस्तक है।अब कृपा करिए और आगे की कथाओं में मुझे भिगो दीजिये,मैं पूरी तरह इस पावन अम्बे मां की कथा गङ्गा में स्नान करना चाहता हूँ।
अब आप मुझे तारा देवी की बात बताओ कि वे रावण के वचन से कब मुक्त हुई।
पहले नारसिंही की कथा सुनो अर्जुन।तारा देवी बाद में मुक्त हुई वचनों से,पहले निकुम्भला देवी और फिर पाताला योगिनी व बाद में तारा देवी वचन मुक्त हुई।ध्यान से सुनो।
क्रमशः