Sshree Astro Vastu

तुझे किस किसने नहीं ध्याया मेरी माँ भाग - 1

बात वेदों की शुरू करूँ या पुराणों की या इतिहास की अथवा उपनिषदों की या फिर रामायण और अन्य महाकाव्यों की।सब जगह तेरी चर्चा जरूर मिलेगी मेरी माँ।

दुनिया जानती है कि महाभारत श्रीकृष्ण ने जितवाया अर्जुन का सारथी बनकर।

परन्तु जब युद्ध सम्पूर्ण हो गया और श्रीकृष्ण अपनी द्वारिका लौट आये थे परन्तु एक सुबह अर्जुन ने देखा कि योगेश्वर श्रीकृष्ण दुर्गा का स्तवन कर रहे हैं और उनकी दोनों आंखों से आँसू झर झरकर भगवती के चरणों में अर्पित हो रहे हैं।रुक्मणी जी,सत्यभामा जी,जाम्बवन्ती जी आदि अष्ट रानियां हैरान थी श्रीकृष्ण की ये भक्ति देखकर।सबने दुर्गा की प्रतिमा को शीश झुकाया और अर्जुन ने भी मत्था टेका।

रुक्मणी जी कह रही थी कि आज रात्रि से ही ये गायब थे और अब पता चला कि सारी रात भगवती की आराधना में ही लीन हैं।

दोपहर को पूजा समापन होने से पहले सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश फैल गया और श्रीकृष्ण और दुर्गा का वार्तालाप हुआ।श्रीकृष्ण जो कह रहे थे दुर्गा से,वह कुछ कुछ स्पष्ट सुनाई दे रहा था।वह सब कुरुक्षेत्र के मैदान सम्बन्धी बातें थी जो भवानी का धन्यवाद योगेश्वर कर रहे थे और कुछ माया समेटने वाली बातें भी थी।

जब भोग प्रसाद ग्रहण करके अर्जुन श्रीकृष्ण के पास बैठे तो पूछ ही लिया।

गोबिंद ! आप कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान में किस घटना का धन्यवाद कर रहे थे जगदम्बे से,कुछ समझ नहीं आया ? अगर मुझे इस बात के रहस्योद्घाटन के लिये सही पात्र मानते हों तो बताइए केशव !श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले,अर्जुन ! तुम्हें याद है कि जब तुम पशुपति अस्त्र के लिये शिव आराधना में लगे तो मैंने तुमसे शिव से पहले दुर्गा की छह मास तक आराधना करवाई थी और उनसे निद्राजयी होने का वरदान मांगने को कहा था न।

जी मधुसूदन ! अच्छी तरह याद है और दुर्गा ने ही मेरा नाम गुडाकेश(नींद पर विजय प्राप्त करने वाला)रखा।

जानते हो अर्जुन निद्रा पर विजय केवल महामाया ही दिलवा सकती थी,मैं नहीं क्योंकि वे तो मेरी पलकों पर भी डेरा जमाकर मुझे अपने आधीन कर लेती हैं।अतः क्या भगवती के बिना तुम्हारा इतना बड़ा काम हो सकता था अर्जुन ⁉

तुम्हें बारह या बीस वर्ष लग जाते शिव को मनाने में।परन्तु तुमने निद्राजयी बनकर वह अवधि आधी कर दी क्योंकि रात भी तुम्हारा जप चलता था।

तभी तुम शिव को मना पाए पशुपति अस्त्र के लिये।बताओ सत्य है कि नहीं⁉

जी प्रभु ! सत्य है।भगवती की कृपा से ही यह हो सका।

अच्छा बताओ तो अर्जुन ! जब तुम कुरुक्षेत्र के मैदान में जाने के लिये वीर वस्त्र धारण करने लगे तो मैंने युद्ध के मैदान के बाहरी भाग में तुम्हें बुलाकर भगवती अम्बिका की मृतिका मूर्ति बनाकर पूजन करने को कहा कि नहीं ⁉और तुमने मेरी बात मानी भी और दो घण्टे भगवती का जप ध्यान किया और तब युद्ध के मैदान में आये।तब भगवती के लिये मैंने तुमसे प्रार्थना करवाई थी कि नहीं⁉

जी द्वारिकानाथ ! आपने प्रार्थना में कहलवाया था कि हे महामाया ! सम्पूर्ण जगत तेरी संतान है।पर धर्म स्थापना में मेरे द्वारा कुछ नरसंहार व कुछ पशु संहार अवश्य होंगे।तब आप काली व चामुंडा बनकर उनका भोग लगाना,पिशाचिनी बनकर उनके अंगों से अपना श्रंगार करना और मुझे हत्या दोष से मुक्त करना व मुझे आशीर्वाद देना कि जो भी अग्नि बाण मेरी या गोबिंद की ओर आएं तो आप ज्वाला माई बनकर उन अग्नि का पान करके मुझे व गोबिंद को शीतल गोद प्रदान करना।

और जब नाग बाण दुश्मन की ओर से हमारी ओर प्रस्तुत हों तो आप सर्पश्या योगिनी बनकर उनके अलंकार धारण करना माँ।

इस प्रकार आपने बहुत सारी प्रार्थनाएं बुलवाई थी।

अच्छा अर्जुन बताओ तो सही,जब मैं युद्ध समाप्ति पर रथ से उतरने लगा, तब पहले तुम्हें उतरवाया था कि नहीं ⁉

जी भगवन ! और आपके उतरने से पहले ही हनुमान जी बहुत दूर चले गए थे और आप भी तेजी से दूर दौड़ पड़े और रथ तुरंत जलकर भस्म हो गया था।

जानते हो अर्जुन ! ऐसा क्यों हुआ❓क्योंकि मैं और तुम रथ में दुर्गा की गोद में बैठे थे पूरे युद्ध के दौरान दुर्गा के सात योगनियाँ रूप तुम्हारे रथ के चारों ओर गोपनीय रूप से चक्कर लगाती थी और आठवीं ने रथ की बैठक में अपनी शीतल गोद स्थापित की हुई थी।नवी दुर्गा रथ के ऊपर बैठे हनुमान जी के चारों ओर चक्कर लगा रही थी और दसवीं शक्ति तुम्हारे अश्वों के पैरों में गति भर रही थी।

लेकिन जब युद्ध पूरा हो गया तो इन्हें आराम देना ही था।

केवल मेरे उतरने की देर थी,मेरे उतरते ही इन दसों महाविद्याओं दुर्गाओं ने अपने अंदर का सारा विष जो भयंकर बाणों का चूसा था,सारा उगल दिया और रथ धू धू कर जलकर पल भर में खाक हो गया और दस दुर्गाएँ कैलाश पहुंच गई।वे सब महाविद्याएं भगवती मेरे ही अनुरोध पर युद्ध में तेरी मेरी रक्षा को तैनात हुई थी।

हे कृपालु योगेश्वरमहाप्रभु ! ये मेरा सौभाग्य है कि आप खुद भी मेरे साथ रहे और माता अम्बिका भी।आज मैं युद्ध से पहले दुर्गा पूजन का रहस्य जान गया दीनानाथ जी।लेकिन आज आपका गदगद कंठ से अश्रुपात सहित इतना वंदन पहली बार देखा बनवारी।ऐसा क्यों ❓

अर्जुन महामाया के बिना त्रिदेव भी अधूरे हैं।

मैंने जन्म से पहले भी योगिनी महामाया का स्तवन किया था और उन्होंने ही बलराम जी,जो कि शेष अवतार हैं, उन्हें देवकी के गर्भ से हटाकर रोहिणी माता के गर्भ में स्थापित किया था।

वही दुर्गा को मैंने माता यशोदा के गर्भ से प्रकट होने को कहा था ताकि मैं कंस को भ्रम में डाल सकूं।

बारह वर्ष तक गोकुल,बरसाना,नन्दगाँव,वृंदावन आदि में बहुत सी लीलाओं में मैंने जगदम्बे की ही शक्ति का अवलंबन लिया जो मेरी एक ही पुकार पर मेरी सहायक बन जाती थी।

वीर अर्जुन ! जब मैं समयन्तक मणि को ढूंढते हुए रीछों के प्रदेश जा पहुंचा तो पूरे सत्ताईस दिन तक मैं जाम्बवान व अन्य रीछों से युद्ध करता रहा।मेरे साथी गुफा में बहती रक्त धारा से घबराकर वापस चले गए थे और रुक्मणी तो इतनी व्यतिथ हुई कि प्राणों पर बन गयी थी।तब नारद ने उन्हें नौ दिन की देवी भागवत कथा सुनाई और प्रसन्न होकर उस महामाया ने जाम्बवान के हृदय पटल से अपनी मोह माया खींची और वह मुझे श्री राम के रूप में पहचानकर नतमस्तक हुआ और अपनी पुत्री मुझे भेंट की।तब सत्ताईस दिन बाद मैं सुरक्षित द्वारिका आया।भगवती ने मोह के गर्त में सारा संसार घेरा हुआ है।

और अब मैं अपने स्वधाम जाने से पहले उनका हृदय से अभिनन्दन कर रहा था।आज मैं उनके अपने नयन जल से पद पखार रहा था क्योंकि दुनिया के सारे जल मुझे रसहीन लगे उनके पद पखारन के लिये तो मैंने अपने नेत्रों में भावों का जल ही उत्तम समझा।

आज सारी रात्रि मैं उन्हीं के स्तवन में लगा रहा ताकि जिंदगी भर उन्होंने जो मेरी सहायता की,उन सबका आभार प्रकट कर सकूं।

लेकिन हे पुरुषोत्तम ! आपने तो मुझे विराट रूप दिखाकर समस्त जग अपने में ही दिखाया तो फिर क्या दुर्गा आपके विराट में नहीं है विश्वेश्वर ⁉

अर्जुन जो तुम विराट रूप देख रहे थे,वो भी उसकी ही कृपा से देखकर रहे थे क्योंकि वही दृश्यमान लौकिक व अलौकिक दृश्य है।मैं निर्गुण निराकार ब्रह्म हूँ परन्तु उसी का आश्रय लेकर ये जगत व अन्य लोक उत्पन्न होते हैं।वही प्रकृति है, त्रिगुण मई आद्या शक्ति है।मैं पुरुष तो वह प्रकृति।मैं बीज स्थापन करने वाला पिता तो वह जग धारण करने वाली माता।पिता से माता का स्थान हमेशा अधिक महत्त्व व पूजनीय है अर्जुन।

अर्जुन वो शिव की शिवा हैं।

उनके बिना जिंदगी का कोई यज्ञ पूरा नहीं होता।वो जगतमाता हैं, जगजननी हैं, वो अखिलेश्वरी,परमेश्वरी,विश्वेश्वरी महामाया हैं।वही राधा,वही रुक्मणी,वही लक्ष्मी,वही शारदा और वही महेश्वरी।चौदह भुवन व बैकुंठ तक जितने नजारे हैं, वे उसी के रंग रूप हैं।वही पंच भूत,वही तन्मात्रा,वही दृश्यमान जगत।उसके बिना तो न कोई कल्पना,न विचार और न कोई लीला प्रिय पार्थ❗

उन्होंने राम अवतार में भी युद्ध में मेरी बहुत सहायता की थी।उनके बिना न तो मैं रावण मार सका और न ही लक्ष्मण मेघनाथ को।उनके बिना न शतानन मरा और न अहिरावण।

मैं तो हर जन्म में उनका ऋणी रहता हूँ,अतः हृदय से उनकी अनेकों बार अर्चना वंदन करता हूँ अर्जुन।

अभी तक तो मैं गीता ज्ञान ही नहीं पचा पाया और हे अखिलेश्वर प्रभु ! आज ये ज्ञान सुनने को मिल रहा है। यह सब आज समझ आ रहा है कि आप समय समय पर दुर्गा की आराधना को मुझसे क्यों कहते थे।लेकिन राम अवतार में आप उनके ऋणी कैसे हुए❓कैसे उन्होंने आपकी सहायता की।ये बताओ न गोबिंद⁉

प्रिय अर्जुन ! मैं तो मैं, हनुमान भी रामवतार काल से उनका ऋणी है क्योंकि हनुमान ने तो कदम कदम पर उनका स्तवन वंदन किया।

फिर तो मुझे अपनी राम जन्म वाली व हनुमान वाली सारी बात बताओ क्योंकि हनुमान तो सारे काम जय श्री राम करते हुए करते हैं, उनके रोम रोम में राम ही राम।फिर दुर्गा स्तवन,कुछ समझ नहीं आया जगतनियंता प्रभु जी❗कृपा करें और सारी बात बताएं।

कहाँ तो आप सिखा रहे थे कि मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु और आज ये सब……मेरा भ्रम भी हटाओ प्रभु❗

क्रमश●●●●●●●●●●●●

आप सभी लोगों से निवेदन है कि हमारी पोस्ट अधिक से अधिक शेयर करें जिससे अधिक से अधिक लोगों को पोस्ट पढ़कर फायदा मिले |
Share This Article
error: Content is protected !!
×