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समुद्र को जब मैंने लाँघा - हनुमान

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना,

एही भाँति चलेउ हनुमाना !

(रामचरितमानस)

 

भरत भैया !   सौ योजन सागर पार छलाँग लगाने के लिए… कोई सुदृढ़ आधार तो चाहिए ना  !

 

पर मेरे साथ एक दिक्कत हो रही थी… मैं जिस पहाड़ पर अपने पैर रख रहा था…वो पहाड़ ही  भरभरा के गिर रहे थे…

 

मैंने बहुत पर्वतों में अपने पैर जमा के देख लिए पर सारे के सारे पर्वत धँस जाते थे सागर में ही  ।

 

मेरी समझ में नही आ रहा था कि मैं करूँ क्या  ?

 

तब जामवन्त ने जोर से कहा जोर से इसलिए भरत भैया ! कि मेरे उस विशाल देह के कारण…आँधी तेज़ी से चल पड़ी थी ।

जामवन्त की आवाज मुझ तक पहुंची… अपने शरीर को कुछ कम कीजिये पवनसुत !         हाँ… तब मैंने संकल्प शक्ति से अपने शरीर को कुछ कम किया था ।

 

एक पर्वत था मन्दराचल पर्वत… समुद्र में… मैं  उस पर चढ़ गया…पर ये क्या मेरे चढ़ते ही… मेरे भार को वह विशाल मन्दराचल भी सह नही पा रहा था वो समुद्र में धँसने लगा ।

 

मैंने दोनों हाथों को ऊपर उठाया… ताकि आकाश से उड़ने में आसानी हो… मन्दराचल पर्वत धँस रहा था… मैंने आँखें बन्द कीं और प्रभु श्री राम को याद किया… मेरे हृदय में विराजमान प्रभु श्रीराम भद्र ने मुझे आशीर्वाद दिया… मैंने मन ही मन में कहा- आपका मैं बाण हूँ ।

 

आपको किंचित भी अहंकार नही आया ? इतना कठिन कार्य आपसे ही सम्भव हो रहा था… फिर भी आपको अहंकार नही… ये कैसे सम्भव हो गया ?    भरत जी ने हनुमान जी से पूछा ।

 

हनुमान जी ने हँसते हुए कहा… धनुष से बाण छूटता है… और वह बाण दुष्कर कार्य करके  आ जाये… तो क्या बाण को अभिमान होता है भरत भैया ?

 

बाण को क्यों अभिमान होना चाहिये ? अभिमान हो तो  बाण को धनुष में रख कर चलाने वाले को हो तो हो…भरत भैया !  मैं तो रघुवीर का बाण हूँ… उन्होंने ही मुझे चलाया है इसमें मेरे अहंकार का कोई अर्थ ही नही है… हनुमान जी ने भरत जी से कहा ।

 

हनुमान जी !   मन्दराचल पर्वत डूब रहा है…  छलाँग लगाइये !

 

अंगद ने चिल्लाकर कहा ।

 

मैंने नीचे देखा मन्दराचल धँस चुका था समुद्र में… मैंने जोर से  पुकारा…  “श्री राम जय राम जय जय राम”

 

और मैं कूद गया ।

 

जब मैं कूदा था मेरा वेग इतना तीव्र था कि… जड़ के सहित वृक्ष उखड़ रहे थे…नहीं नहीं  भरत भैया ! उखड़ ही नही रहे थे… वो भी मेरे पीछे कुछ दूरी तक उड़ते थे… फिर समुद्र में जाकर गिर रहे थे ।

 

अरे ! वृक्ष ही क्या… बड़ी-बड़ी चट्टानें भी उड़ कर समुद्र में गिर रही थीं… भरत भैया !  मैंने  एक बार अपने पीछे  मुड़ कर देखा था तो तूफ़ान उठा  हुआ था मेरे पीछे तो… ।

 

हनुमान जी सहजता में बोल रहे थे… भरत भैया !    जब मैं लंका से लौटकर आया ना तब वानरों ने मुझे दिखाया था… कि मेरे उड़ने के कारण… मेरे उड़ने की तीव्रता के कारण… जंगल के जंगल…  उस जंगल में रहने वाले बड़े-बड़े हिंसक प्राणी भी  समुद्र में गिर गए थे ।

 

भरत भैया !   जामवन्त ने हिसाब लगाया था  सबसे तेज़ गति होती है वायु की… पर वायु से भी तेज़ गति होती है प्रकाश की… पर प्रकाश से भी तेज़ गति होती है मन की… पर मन से भी तेज़ गति होती है… भगवान नारायण के वाहन गरुण की… पर जामवन्त ने मुझे लौटने पर कहा था गरुण से भी तेज़ गति थी हे पवनसुत ! आपकी   ।

 

मैं आकाश में उड़ गया था…

 

पर ये क्या सागर से एक गम्भीर आवाज मुझे सुनाई दी ।

 

हे रामदूत !  हे पवनपुत्र !  हे अंजनी नन्दन !

हमारा स्वागत सत्कार स्वीकार करो ।

 

मैंने पहले तो सागर से उठ रहे इन शब्दों की  उपेक्षा की…

 

पर उपेक्षा करना उचित नही होगा ऐसा विचार करके मैंने जब ध्यान से देखा… तो  मुझे भी आश्चर्य हुआ था ।

 

एक विशाल पर्वत समुद्र से ऊपर की ओर धीरे-धीरे आ रहा था, उस पर्वत ने अपना नाम बताया… “मैनाक”  !

 

भरत भैया !    उस पर्वत के अधिदेवता भी मेरे सामने प्रकट हो गए थे ।

 

एक हाथ में  मणि माणिक्य लिए हुए… दूसरे हाथ में फल-फूल इत्यादि लेकर मेरे सामने प्रस्तुत थे… “पर्वत मैनाक” ।

 

आप विश्राम करें हे पवन पुत्र !   आप कुछ  आहार स्वीकार करें ।

 

मैनाक ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की ।

 

भरत भैया !   राम काज में कहाँ थकान है ?

मैंने मैनाक पर्वत को कहा भी राम के कार्य को जब तक मैं पूरा नही करूँगा… तब तक मैं विश्राम कैसे करूँ  !

सावधान था मैं भरत भैया !… मैंने मना तो कर दिया पर्वत के इतने बड़े वैभव को… पर अब मेरे मन में अहंकार आ सकता है… और ये अहंकार कि… मैंने  त्यागा !  मैंने  मना कर दिया… कितने मणि माणिक्य थे उस मैनाक पर्वत के पास… पर मैंने त्याग दिया…।

भरत भैया !  अहंकार बहुत सूक्ष्म है…

मैं सवधान हुआ… और मैंने  तुरन्त अपना दाहिना हाथ मैनाक पर्वत के ऊपर रख कर आगे के लिए बढ़ गया था ।

मैंने आगे बढ़ते हुए हाथ जोड़कर प्रणाम भी किया था मैनाक पर्वत को ।

तभी समुद्र में से नाना प्रकार के रत्न प्रकट होने लगे थे… आकाश से नन्हीं-नन्हीं  बूँदे पड़ने लगीं थीं… मेरी तेज़ गति के कारण पुष्पों के वृक्ष उड़ते हुए मेरे ऊपर ही आकर बरस रहे थे… मानो ऐसा लग रहा था जैसे प्रकृति ही मेरे स्वागत को  उत्सुक है  ।

हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा… 

कौन है तू  ?  मैं तुझे छोडूंगी नही… बोल कौन है तू ?

बहुत दिनों के बाद आज मुझे आहार मिला है… मैं तुझे खाऊँगी ।

सुरसा ये नागों की माता हैं…

हनुमान जी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया… और बड़े प्रेम से कहा माते !  मुझे अभी जाने दो मैं प्रभु श्री राम का कार्य करने जा रहा हूँ… बस “रामकाज” करके  मैं लौट आऊँ… फिर आपको मुझे खाना हो… खा लेना  ।

सुरसा सोच में पड़ गयी… 

फिर बोली –  ए बन्दर !   तुझे क्या पता नही है… मैं सर्पों की माता हूँ… भूख लगती है मुझे तो मैं अपने बच्चों को भी नही छोड़ती… फिर तुझे कैसे छोड़ दूंगी ।

भरत भैया !  वो मुझे खाने के लिए आगे बढ़ी…

उसने एक योजन का अपना मुख बना लिया था… भरत भैया ! मैंने भी उससे दुगुना अपना शरीर बढ़ा लिया ।

उसने सोलह योजन किया अपना मुख… मैंने  बत्तीस योजन बढ़ा कर लिया अपना शरीर…।

वो बढ़ती जा रही थी वो सुरसा अपने मुख को निरन्तर बढ़ाये जा रही थी  मुझे खाने के लिये… पर मैं उससे दुगुना ही अपना रूप बना रहा था ।

अब तो सुरसा ने सौ योजन का मुख फैला लिया… भरत जी ने पूछा…  सौ योजन तो सागर है ?

हाँ भरत भैया !  सुरसा ने समुद्र के इस छोर से… उस छोर तक का अपना मुख बनाया…।

भरत जी  सुन रहे हैं… आपने दो सौ योजन बढ़ा लिया होगा अपना शरीर ?  भरत जी की बातें सुनकर  हनुमान जी ने कहा- नहीं भरत भैया !      उसने जैसे ही सौ योजन मुख का विस्तार किया… मैं तुरन्त ही छोटा हो गया ।

बहुत छोटा और इतना छोटा बनकर सुरसा के मुख से प्रवेश करके… उसके भीतर पूरा घूम कर वापस नाक से होकर निकल भी गया बाहर…।

और हाथ जोड़कर बोला… हे माँ ! आपके पेट में जाकर आ गया हूँ… आपने मुझे खा लिया है…  अब बताइये आप क्या चाहती हैं ।

हे पवनपुत्र !  मैं बहुत प्रसन्न हूँ तुमसे… जाओ वत्स !  राम कार्य में सफल रहो… जाओ !  

इतना कहते हुए  सुरसा ने मुझे शुभ कामना दी…  और मैं आगे की ओर बढ़ गया ।

भरत भैया !   कभी-कभी कोई-कोई काम बड़े बनने से नही होते… वहाँ छोटा बनना ही पड़ेगा ।

हर जगह में संघर्ष से काम नही चलता कहीं-कहीं नम्रता  आवश्यक है…  ।

हाँ  हनुमान जी ! इस बात को आपसे ज्यादा और कौन जान सकता है !

इतने बड़े पराक्रमी होकर भी महावीर होकर भी आपमें कितनी सहजता और सरलता है… नम्रता विनम्रता की साक्षात् मूर्ति हैं आप तो भरत जी ने  हनुमान जी से कहा  ।

साष्टांग प्रणाम कर रहे थे हनुमान जी भरत जी को और क्या सुंदर दृश्य था उस अवध के उपवन का… भरत जी हनुमान जी को प्रणाम कर रहे थे।

रघुपति प्रिय भक्तम् वातजातं नमामि…

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