जहां-जहां धुआं है, वहां-वहां अग्नि होगी, यह अनुमान प्रमाण है। कारण को देखकर कार्य की कल्पना अनुमान प्रमाण का विषय है। इसमें वस्तु साक्षात् नहीं दिखलाई देती।
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उत्तर जो वस्तु साक्षात् पंच ज्ञानेन्द्रियों के सम्पर्क का विषय है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है। अग्नि में उष्णता है, जल में आर्द्रता है, वायु में गति है, पुष्प में गंध है, ये सभी प्रत्यक्ष प्रमाण के विषय हैं।
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निर्लिप्त, निर्विकार ऋषियों व आप्त (स्व) जनों द्वारा जो ज्ञान हमें प्राप्त होता है, वह शब्द प्रमाण माना गया है। वेद, पुराण, इतिहास इसी श्रेणी में आते हैं।
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हिन्दू मान्यताओं के अनुसार ‘आप्त वाक्य प्रमाण सबसे पुष्ट प्रमाण माना गया है क्योंकि अनुमान तो अनुमान है, प्रत्यक्ष भी कभी-कभी सत्य नहीं होता है, जैसे सूर्य देखने में प्रत्यक्ष हमें थाली के बराबर दीख पड़ता है, परन्तु विज्ञान और गणित के अनुसार वह हमारी पृथ्वी से बड़ा है। इसी प्रकार चंद्रमा प्रत्यक्ष तो शुभ्र, श्वेत, द्यवलित कान्ति से सम्पन्न बहुत ही सुन्दर है व मनमोहक है परन्तु जब वह सूर्य और पृथ्वी के ठीक मध्य में समानान्तर रेखा पर पड़कर सूर्य को ढंक लेता है तो उसके वास्तविक काले या भयंकर विकराल गड्ढे वाले रूप के दर्शन होते हैं, जिसे देखकर मनुष्य घबराकर अपनी प्रेयसी को चन्द्रमुखी कहना छोड़ देगा। इसी प्रकार अतिस्वच्छ समुद्र का जल अपनी गहराई के अनुपात में उत्तरोत्तर अधिकाधिक काला दीख पड़ता है, शून्य आकाश प्रत्यक्ष रूप से नीला प्रतीत होता है परन्तु ऋषियों के, आप्त जनों के वाक्यों में कभी भ्रान्ति नहीं होती। वह पूर्ण सत्य पर आधारित स्पष्ट ज्ञान होता है। उदाहरणार्थ व्यक्ति, अमुक व्यक्ति का पिता (जनक) है। यह बात न तो अनुमान प्रमाण, न ही प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा प्रमाणित की जा सकती है। आप्त वचन के रूप में जातक की माता के वाक्य ही इसमें अंतिम प्रमाण है।