बालवाड़ी जैसा कोई कॉन्सेप्ट नहीं था।
छह साल की उम्र के बाद ही स्कूल जाना शुरू होता था, वह भी खुद।
साइकिल से या पैदल।
बच्चों को स्कूल भेजने के लिए बसों या गाड़ियों का कोई चलन नहीं था।
हमारे माता-पिता को यह डर कभी नहीं होता था कि बच्चे अकेले स्कूल गए तो कुछ गलत हो जाएगा।
हम बस इतना जानते थे कि पास होना है या फेल।
अंक और प्रतिशत से हमारा कोई खास रिश्ता नहीं था।
ट्यूशन लगाना तो मानो शर्म की बात थी।
अगर कोई कहे कि वह ट्यूशन पढ़ता है, तो उसे “ढीला” समझा जाता था।
किताबों में पेड़ की पत्तियां और मोरपंख रखकर पढ़ाई में अच्छे नंबर लाने का हमारा अटूट विश्वास था।
कपड़े के थैले में और बाद में धातु के बक्सों में किताबों और कॉपियों को सजाने का हुनर हमने खुद सीखा था।
हर साल, जब नई कक्षा में जाने का समय आता था, तो किताबों और कॉपियों पर कवर चढ़ाना हमारे लिए एक सालाना उत्सव जैसा होता था।
साल के अंत में पुरानी किताबें बेचना और नई खरीदना, यह सब बड़ी सहजता से होता था।
हमारे माता-पिता पर हमारे पढ़ाई का कोई बड़ा बोझ नहीं होता था।
किसी दोस्त की साइकिल के आगे की सीट पर और किसी को पीछे बिठाकर सड़कें नापना, वो दिन कैसे बीते, अब याद भी नहीं आता।
स्कूल में मास्टर जी से पिटाई खानी हो, या कान पकड़े खड़े रहना हो, या कानों को लाल होने तक मरोड़ा जाना, हमारे आत्मसम्मान को कभी ठेस नहीं पहुंचती।
दरअसल, हमें “आत्मसम्मान” का मतलब ही पता नहीं था।
पिटाई तो हमारी जिंदगी का एक सामान्य हिस्सा थी।
मारने वाले और मार खाने वाले दोनों ही खुश रहते थे।
मार खाने वाला इसलिए खुश होता था कि “चलो, आज तो कल से कम डांट पड़ी।”
और मारने वाला इसलिए, कि “आज फिर से बच्चों को सुधारने का मौका मिला।”
नंगे पांव, बिना जूते, किसी भी गेंद और लकड़ी की बैट से क्रिकेट खेलने का सुख क्या होता है, यह हम ही जानते हैं।
पॉकेट मनी कभी मांगी नहीं और पिताजी ने कभी दी नहीं।
हमारी ज़रूरतें बहुत छोटी थीं।
जो कुछ चाहिए होता था, घर के किसी बड़े से मांगकर पूरी हो जाती थीं।
अगर छह महीने में एक बार मुरमुरे या फरसाण खाने को मिल जाए, तो हम बेहद खुश हो जाते थे।
दिवाली में लवंगी फटाके की लड़ी को खोलकर एक-एक करके फोड़ना हमारे लिए बड़ी खुशी की बात थी।
इसमें हमें कभी अपमानजनक कुछ महसूस नहीं हुआ।
हम अपने माता-पिता को कभी यह बता ही नहीं पाए कि हम उनसे कितना प्यार करते हैं,
क्योंकि हमें “आई लव यू” कहना आता ही नहीं था…
आज, हम अनगिनत ताने सुनते हुए और संघर्ष करते हुए दुनिया का हिस्सा बन गए हैं।
कुछ लोगों ने वह पा लिया, जो वे चाहते थे,
और कुछ… शायद अब भी सोच रहे हैं, “क्या पता, आगे क्या होगा?”
स्कूल के उन दिनों में, जब दोस्तों के साथ एक ही साइकिल पर डबल या ट्रिपल सीट घूमते थे,
वो दोस्त अब कहाँ खो गए हैं…
हम भले ही दुनिया के किसी भी कोने में हों, लेकिन सच्चाई यह है कि
हमने हकीकत की दुनिया में जिया और हकीकत में ही बड़े हुए।
भाकरी और सब्ज़ी (कालवन) के सिवा टिफिन में कुछ और भी होता है,
यह बात तो हमें कभी पता ही नहीं चली।
अपनी किस्मत को कभी दोष दिए बिना,
आज भी हम खुशी-खुशी सपने देख रहे हैं।
शायद यही सपने हमें जीने का हौसला दे रहे हैं।
जो जीवन हमने जिया, उसकी आज के समय से कोई तुलना ही नहीं हो सकती।
हम अच्छे थे या बुरे, यह भले ही समय बताए,
लेकिन हमारा भी एक “जमाना” था… 👍🏻