नाम था कुमारिल भट्ट इनका जन्म पंडित यज्ञेश्वर भट्ट एवं माता चंद्रकना (यजुर्वेदी ब्राम्हण ) के घर हुआ, इनके जन्म स्थान और जन्म वर्ष को लेकर अलग-अलग मत है कुछ विद्वानों के अनुसार कुमारिल भट्ट का जन्म उत्तरभारत वर्तमान के आसाम राज्य में हुआ था तो कुछ के अनुसार मिथिला में हुआ था, तारानाथ के अनुसार कुमारिल भट्ट का जन्म दक्षिण भारत में ६३५ इसवी के पास हुआ था तो एक अन्य विद्वान् कृपुस्वामी की अनुसार इनका काल ६००- ६५० ईसवी के आस पास का है।
एक प्रख्यात मत के अनुसार काशी में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान एकदिन जब कुमारिल भट्ट भिक्षाटन के लिए निकले हुए थे तब उनके सर पर कुछ ऊष्ण तरल की कुछ बुँदे गिरी जब उन्होंने ऊपर देखा तो एक स्त्री रो रही थी वह स्त्री कोई और नहीं बल्कि उस राज्य की रानी थी जो भगवान विष्णु की परम उपासक एवं वैदिक सनातन धर्म की अनुयायी थी। लेकिन राजा बौद्ध धर्म का अनुयायी था
उस समय पूरा भारत बौद्धों की चपेट में यानि की पूरा बौद्धप्राय हो गया था। नास्तिकता तेजी से बढ़ रही थी भारत देश विदेशी आक्रान्ताओं के लिए चारागाह बन गया था। राजा महाराजाओं का धर्म बौद्ध धर्म बन गया और प्रजा पर भी बिना उनकी इच्छा के बौद्ध धर्म को थोपा जा रहा था इसी से द्रवित होकर रानी रो रही थी जिसकी कुछ बुँदे कुमारिल भट्ट के सर पर गिरी, जब कुमारिल भट्ट ने कारण पूछा तो रानी बोली “ किंकरोमिकगच्छामि कोवेदानुद्ध्रिश्यती” अर्थात कहा जाऊं, वेदों का उद्धार कौन करेगा , कौन बचाएगा वैदिक धर्म ? यह सुनते ही विद्यार्थी कुमारिल भट्ट बोले “माँविषादबरारोहे ! भट्टाचारयोअस्मिभूतले” अर्थात माँ विषद रहित रहो कुमारील भट्ट अभी इस भूतल पर है।
इन बातों के बाद रानी ने कुमारिल भट्ट को आपने पास बुलाया और बौद्ध धर्म की अनेक कमियों के बारे में बताया लेकिन समस्या यह थी की कुमारिल भट्ट के पास बौद्ध धर्म के बारे में अधिक जानकारी नहीं थी वे वैदिक धर्म के प्रकाण्ड पण्डित तथा पूर्णतया अनुयायी थे। उन्होंने वेद, शास्त्रों तथा उपनिषदों का गहन अध्ययन किया था। उनका विश्वास था कि वैदिक तथ्य ही मानव जीवन को ऊँचा उठाने में समर्थ हो सकता है। किंतु जनता के सामने अपनी बात कहने तथा उसे मनवाने से पूर्व यह आवश्यक था कि उस प्रभाव को मिटाया जाय तो बौद्ध धर्म नास्तिक विचारधारा के रूप में जन मानस में छाया हुआ था। उन्होंने प्रतिज्ञा की, कि – चाहे जो कठिनाई मेरा मार्ग अवरुद्ध करे- मैं वैदिक मान्यताओं का प्रचार प्रसार करने में कुछ भी कमी न रखूँगा।
लेकिन इस मार्ग में सबसे बड़ी कठिनाई बौद्ध धर्मानुयायियों से शास्त्राथ करने से पहले स्वयं को बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन न होना था। अतः इसके लिए कुमारिल भट्ट ने प्रतिज्ञा ली की सबसे पहले बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन करेंगे। इसके लिए वह उस समय के सबसे प्रख्यात विश्वविद्यालय तक्षशिला विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और पूरे पाँच वर्षों तक बौद्ध धर्म का क्रमबद्ध व विशद् अध्ययन किया। जब शिक्षा पूर्ण हो गई तो चलने का अवसर आया। इस समय की प्रथा के अनुसार बौद्ध विश्वविद्यालयों के स्नातकों की यह प्रतिज्ञा करनी होती थी कि कि मैं आजीवन बौद्ध धर्म का प्रचार व प्रसार करूंगा तथा धर्म के प्रति आस्था रहूँगा।
लेकिन एक वैदिक ब्राम्हण के लिए झूठी प्रतिज्ञा मृत्यु के सामान होती है अतः कुमारिल भट्ट के सामने पुनः पहले से बड़ी समस्या आकर खड़ी हो गयी, समस्या बड़ी ही गम्भीर तथा उलझनमय थी। करना तो था उन्हें वैदिक धर्म का प्रचार और बौद्ध धर्म का अध्ययन तो उन्होंने उनकी ही जड़े काटने के लिए किया था। झूठी प्रतिज्ञा का मतलब था कि गुरु के प्रति विश्वासघात तथा वचनभंग अतः आपत्ति धर्म के रूप में उन्होंने प्रतिज्ञा ली और बौद्ध धर्म का अपार ज्ञान लेकर वहाँ से चल दिये। लौटकर उन्होंने वैदिक धर्म का धुँआधार प्रचार करना शुरू कर दिया। जन जन तक वेदों का दिव्य संदेश पहुँचाया। फिर जहाँ भी विरोध की परिस्थिति उत्पन्न हुई वहाँ पर उन्होंने बौद्ध मान्यताओं का खण्डन किया। अपने गहन अध्ययन के आधार पर चुन चुन कर एक एक भ्रान्त बौद्ध मान्यता और वैदिक तथ्यों द्वारा काटा। बौद्ध मतावलम्बियों को खुला आमंत्रण दिया शास्त्रार्थ के लिए बड़े से बड़े विद्वानों को अपने अगाध ज्ञान और विशद अध्ययन के आधार पर धर्म संबंधी विश्लेषणों तथा वाद विवादों में धराशायी किया। दिग्भ्रान्त जनता को नया मार्ग,नया प्रकाश और नयी प्रेरणाएँ दी। वैदिक धर्म के प्रचार में उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया।
इस मध्य ही कुमारिल ने बौद्ध मत के खंडन के लिए सात ग्रंथों की रचना कर डाली और शिष्यों की एक विशाल मंडली खड़ी कर डाली। पुरे क्षेत्र में इनके नाम की चर्चा होने लगी और बौद्ध विद्वानों में हाहाकार मच गया वह कुमारिल भट्ट के नाम से ही घबराने लगे। जब यह घटनाएँ राजा तक पहुंची तो राजा कुमारिल भट्ट से मिलने के इच्छुक हुवे अवसर पाकर कुमारिल भट्ट भी राजा के यहाँ पहुंचे। यहाँ राजा की इच्छा के अनुसार विशाल सभा का आयोजन हुआ जिसमें शास्त्रार्थ होना निर्धारित हुआ। जिसमे एक तरफ बौद्ध विद्वानों की सेना दूसरी तरफ कुमारिल भट्ट और उनके शिष्यों की फ़ौज पूरा सभा स्थल दर्शकों एवं श्रोताओं से भरा हुआ था। शास्त्रार्थ की शुरुआत हुई, तर्क सुरु हुए कुमारिल जी वेदों के साथ बौद्ध धर्म के भी ज्ञाता थे अतः बौद्ध धर्माचार्यों की एक न चलने दी। तभी सभास्थल के समीप एक वृक्ष पर कोयल कूक उठी उसी समय कुमारिल भट्ट ने एक श्लोक कहा जिसका अर्थ है “अरे कोयल ! मलिन , नीच और श्रुति –दूषक काक – कुल से यदि तेरा सम्बन्ध न हो, तो तु वास्तव में प्रशंसा के योग्य है” यह व्यंग राजा और बौद्धों के लिए था राजा के लिए यूँ कि ” हे राजन ! मलिन , नीच और वेद निंदक लोगों से यदि तेरा सम्बन्ध न हो ,तो तू अवश्य ही प्रशंसा के योग्य है”। इस व्यंग्य का मुख्य आशय तो बोद्धों के लिए था , इस कारण वह मन ही मन कुमारिल पर बहुत चिढ़े ।
बौद्धों के वेद विरुद्ध तर्कों का कुमारिल ने खंडन किया तथा अपने पांडित्य का प्रदर्शन करते हुए वेदों की सभ्यता ,सत्यता,न्याय प्रियता ,सद्गुण , कर्मवाद , कर्मफल , उपासना ,मुक्ति तथा व्यक्तित्व वाद आदि को इस उत्तमता से सिद्ध किया कि प्रत्येक व्यक्ति को वेद की विमल मूर्ति के दर्शन होने लगे। राजा सहित सब लोग कुमारिल की विद्वता पर मोहित हो गए। सब ने स्वीकार किया कि वेद ही मानवता का सर्वोच्च व दिव्य ज्ञान है। यह भी सिद्ध हो गया की बौद्ध ज्ञान व सिद्धांत सर्वथा भ्रामक, भ्रान्ति मूलक व अनिष्टकारी हैं। इस से सब संतुष्ट हुए और बोद्धों पर धिक्कारें व लानतें पड़ने से वह अपना मुंह लटकाए सभा से चले गए। इसके बाद वेद का गायन और यज्ञ कर्म पुनः सुरु हुए और तेजी से बढ़ने लगे लेकिन कुमारिल भट्ट इतने में कहाँ संतुष्ट होने वाले थे उन्होंने तो बौद्धों का जड़ सहित समाप्त करने का संकल्प लिया था अतः वह आपने जैसे अनेक शिष्य बनाने सुरु किये।
लेकिन एक चिंता उन्हें सदैव सताती रहती थी, वह थी गुरुकुल में ली हुई झूठी प्रतिज्ञा और गुरु से किया हुआ द्रोह अतः उन्होंने इसका प्रायश्चित करने का निर्णय लिया और शाश्त्रों में गुरुद्रोह की प्रायश्चित की सजा क्या होती है पढ़ा,जिसके अनुसार उन्होंने तुषानल (भूषे/धान के छिलके की आग) में देह त्यागने का निर्णय लिया जो की जलती नही अपितु सुलगती है और स्वयम को इसके लिए तैयार किया।तुषाग्नि में प्रवेश के लिए उन्होंने प्रयाग का चुनाव किया वर्तमान में यह स्थान झूंसी में है।
इस प्रायश्चित के हृदयस्पर्शी दृश्य को देखने देश के बड़े बड़े विद्वान आये थे । उनमें आदि शंकराचार्य भी थे। उन्होंने समझाया भी, कि आपको तो लोक हित के लिए वैसा करना पड़ा है। आपने स्वार्थ के लिए तो वैसा नहीं किया है। अतः इस प्रकार भयंकर प्रायश्चित मत कीजिए। लेकिन कुमारिल भट्ट ने मंद मंद मुस्कुराते हुवे उत्तर दिया “माना की मैंने धर्म की रक्षा एवं प्रचार के लिए ऐसा किया था लेकिन इस प्रकार की परमपरा का चलन नहीं होना चाहिए। हो सकता है की कोई मेरे मन की बात को न समझ के केवल ऊपरी बात का ही अनुकरण करने लग जाये। अगर ऐसा हुआ तो धर्म और सदाचार नष्ट ही हो जायेगा और तब इससे प्राप्त लाभ का कोई मोल नहीं रह जायेगा” अतः मेरा प्रायश्चित करना सर्वथा उचित है । उनके यह वाक्य कुमारी भट्ट की महानता को कई गुना बढ़ा देते हैं।
इन्ही वाक्यों के साथ कुमारिल भट्ट तुषानल की अग्नि में प्रवेश कर गए। कहा जाता है की आदि शंकराचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थ विद्वत समाज तब तक स्वीकार नहीं करेगा जब तक कुमारिल भट्ट उस पर टिपण्णी न कर दें लेकिन जब आदि शंकराचार्य उनके पास पहुंचे तब उनके पैर झुलस चुके थे अतः उन्होंने विधि का विधान न बदलते हुवे शंकराचार्य जी के शास्त्रार्थ के निवेदन पर कहा की मेरा शिष्य मंडन मिश्र भी मेरे सामान ज्ञानी है उससे शास्त्रार्थ करो मंडन मिश्र के साथ किया गया शास्त्रार्थ मेरे साथ किये गए शास्त्रार्थ के सामान ही माना जायेगा।
इस तरह वैदिक-सनातन धर्म के लिये हजारों–लाखों योद्धाओ ने अपना बलिदान किया है,धार्मिक नियमों की स्थापना की है तब जाकर आप अपने पूर्वजों के दिए नाम, थाती,संस्कृति, पूजा पद्धतियों,जीवन प्रणाली, राष्ट्रनूभूति के साथ बचे हैं नहीं तो आज बचे 198 देशों की तरह इस्लामी या ईसाई रूप में बदल चुके होते।
साभार~ प्रमोद कुमार