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सुषुम्णा योग कुंडलीनी योग

अनेक ऋषि-मुनियों और संतो ने  सनातन धर्म में गुरु परंपरा से श्रवण मनन निदिद्यासन से सुषुम्णा योग कुंडलीनी  योग अर्थात छे चक्र भेदन से परम तत्व का साक्षात्कार होता है , ऐसा अनुभव युक्त कहा है। यही सनातन सत्य का प्रमाण श्री राम और उनके गुरु श्री वशिष्ट जी का योग वशिष्ठ में दिया है।

ज्ञान विज्ञान के अनुभव युक्त , ऐसा अद्भुत ग्रंथ योग वशिष्ठ में श्री विश्वामित्र मुनि श्री वशिष्ठ जी महाराज को कहते हैं कि हे भाग्यवान वशिष्ठ जी आप सही में महान है । क्योंकि श्री रामचंद्र जी की अखंड आत्माकार चित्त व्रुति में आनंद स्वरूप आत्म तत्व को प्रगट कराके अथवा तो मात्र अनुग्रह दृष्टि से कुंडलिनी शक्ति का सुषुम्ना मार्ग में छट चक्र भेदन से ब्रह्मरंध्र में प्रवेश करने से योग शास्त्र में बताया हुआ शिव शक्ति संयोग कराने से क्षण मात्र में आपने आपका सद्गुरु पद सहीमे दिखा दिया है । जो गुरु दर्शन से, स्पर्श से और शब्द बोधसे कृपा करके शिष्य के देह में कुंडलिनी का षटचक्र भेदन से ब्रह्मरंध्र में रहे हुए परम शिव, सदा शिव में महावेध से मिलन रूप अर्थात देह आदि उपाधि का त्याग द्वारा शुद्ध ब्रह्म भाव उत्पन्न कराएं , वही सच्चा सद्गुरु है ।

श्री राम शुद्ध चित वाले होने से परम पद में स्वयं का निज स्वरूप को प्राप्त हुए हैं। परंतु जिस उद्देश्य मेरा यहां आना हुआ है , वही कार्य स्मरण में लाकर अभी आप कृपा करके श्री राम को समाधि में से उत्थान करवाने में योग्य हो । क्योंकि श्री राम परम पद में विश्रांत हुए हैं। परंतु हमें जिस कार्य को करनाहै वह  बाकी है अर्थात जिस आशय से रामावतार का प्रयोजन है वही सिद्ध करना है । इसलिए आप श्री राम को उत्थित करा कर हमारी प्रार्थना का स्वीकार कीजिए । परम पुरुष ऐसे श्री रामचंद्र जी  कभी ग्यानमुक्त की तरह स्वयं स्वरूप में स्थिर होकर रह रहे हैं ।कभी नित्य मुक्त की तरह तुरिय पद में शांति ले रहे हैं। कभी माया में नियंता रूप होकर रह  रहे हैं।और कभी कभी माया के अंदर बंधन में है , ऐसा दिखते हैं ।यह देव ही वेदत्रयी शरीर को धारण किए हुए हैं। यही देव जगत के पालक विष्णु है । यही देव जगत के सर्जन हार ब्रह्मा भी है ।और यही देव जगत के संहार करने वाले त्रिनेत्र श्रीमहादेव जी भी है । ऐसे हमारे श्री रामचंद्र जी है ।यही रामचंद्र जी जन्मरहित है ,मगर माया के संबंध से अवतार ग्रहण किए हुए है। यही पूज्य भगवान श्री रामचंद्र जी निराकार है, फिर भी विश्वरूप धारण किए हुए हैं।

 बादमें श्री वाल्मीकि ऋषि का वचन सुनकर श्री वशिष्ठ महाराज बोले हे राम , हे महापुरुष हे, हे महाचैतन्य , यह आपका शांति का समय नहीं है। इसलिए सर्व लोगों को आनंदके लिए उठीए ।जब तक लोक दृष्टि के अधिकार के लिए अलौकिक विचार सिद्ध नहीं हुए हैं, तब तक योगी पुरुष को निर्मल ऐसे समाधि में जाना ठीक नहीं है । श्री वशिष्ठ जीने ऐसा कहा फिर भी श्री रामचंद्र जी परब्रह्म में लय होने से अर्थात सर्व मन इंद्रियां आदि से पर होने से कुछ भी बोले नहीं , तब श्री  वशिष्ठ ऋषि ने धीरे से सुषुम्णा नाड़ी द्वारा उनके हृदय में प्रवेश किया। प्रथम प्राण आदि सर्व के बीज रूप आधार शक्ति में, उसके बाद प्राणों के आविर्भाव होने से प्राणों में और बाद में चित्त का आविर्भाव होने से चितमें चिदाभास रुप से प्रवेश करे हुए प्रकाश स्वरूप यही जीव प्राण द्वारा सर्व नाडीओके छिद्रों में प्रवेश करके ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय यह दोनों को सही रीत से पूष्ट तैयार बनाकर धीरे से नेत्र खोलकर बाहर पूज्य श्री वशिष्ठ आदि विद्वान महर्षि ओके दर्शन करके स्वयं कृतकृत्यता से सर्व कामना से रहित होने से श्री राम समाधि में से उत्थान हुए ।श्री राम ने कहा कि आपकी कृपा से अब यह शरीर विधि या निषेध का अधिकारी नहीं है ।और आपका वाक्य सदा काल माननीय है। क्योंकि हे महामुनि , वेद शास्त्र , पुराण तथा स्मृतियों में गुरु का वाक्य विधि रूप पालन करना योग्य है। और गुरु के वचन का तिरस्कार करना निषेध है ।इस तरह श्री राम ने वशिष्ठ जी के चरणकमल को मस्तक में धारण करके फिर एक बार कहा कि हे  जगत के सर्व  लोग , यह बात का श्रवण करो और यही अनुभव पूर्वक प्रमाण करके निश्चित करो की यही आत्मज्ञान से और आत्मवेत्तागुरु से दूजा और कोई भी विशेष नहीं है।

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