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सरदार पटेल जी की 148वीं जयन्ती: 31 अक्टूबर 2023 पर विशेष लौह पुरूष पर चन्द अनकहीं बातें

आजादी तभी नयी-नयी आयी थी। पश्चिमी सीमा के अरब सागरतट पर उपप्रधान मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल नौसेना के जहाज से यात्रा कर रहे थे। एक बस्ती दिखी मगर जहाज उससे कुछ दूर जाने लगा। पटेल ने कारण पूछा तो कप्तान ने बताया कि वह पुर्तगाली उपनिवेश गोवा है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून के मुताबिक सीमा बारह मील तक की होती है अतः तट से जहाज दूर ले जाया जा रहा है। सरदार ने कुछ सोचा, फिर पूछाः ‘‘तुम्हारे पास अभी कितने सैनिक हैं? वे कितना वक्त लेंगे गोवा को पुर्तगालियों से मुक्त कराने में ?’’ कप्तान अचंभित हुआ, फिर बोलाः ‘‘करीब तीन घंटे।’’ पटेल इतिहास रचने जा रहे थे। गोवा को तीन सदियों की दासता से तीन घंटों में मुक्त कराकर भारतीय संघ में शामिल करने की तत्परता थी। ठीक वैसी ही जिससे पटेल ने निजामवाले हैदराबाद से लेकर जूनागढ़, पटियाला, जोधपुर, भोपाल आदि राजेरजवाड़ों को भारत में समाविष्ट किया था। कप्तान से सरदार, फिर कुछ रुक कर, बोलेः ‘‘विदेशी विभाग का मामला है, जवाहरलाल नाराज हो जाएंगे। पुर्तगाल से आजादी दिलाना उनका जिम्मा है।

हालांकि इस घटना के बाद करीब 13 वर्ष लगे गोवा को स्वतंत्र होकर भारतीय प्रदेश बनने में। उसका मुक्ति संघर्ष 19 दिसम्बर 1946 में चला था जब राममनोहर लोहिया ने मारगावों (18 जून 1946) के निकट एक मैदान मे गोवा स्वाधीनता का बिगुल बजाया था। मगर कई बार सत्याग्रह और पुर्तगाली उपनिवेशवादियों द्वारा अमानुषिक अत्याचार के बावजूद भी नेहरू सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। जब तीसरी लोकसभा (1962) का चुनाव होना था तो दक्षिणी मुम्बई से आचार्य जे.बी.कृपालानी ने संयुक्त विपक्ष के प्रत्याशी बनकर कांग्रेस के उम्मीदवार और नेहरू के करीबी वी.के. कृष्ण मेनन (चीन से पराजय के हीरो) को चुनौती दी थी। अपने रक्षा मंत्री की निश्चित हार देखकर नेहरू ने अचानक भारतीय सेना को पुणे से प्रस्थान कर गोवा को बलपूर्वक स्वतंत्र कराने का आदेश दे डाला। दक्षिण मुम्बई में हजारों गोवा प्रवासी वोटर हर्षित हुए। कांग्रेस कठिन सीट निकाल ले गई। जो काम सरदार पटेल तीन घंटो में करा लेते, नेहरू ने तेरह वर्षों बाद कराया। मगर दोनों का निमित्त भी जुदा था।

 पटेल की फौलादी इच्छा शक्ति के दो उदाहरण और हैं। केरल के समीपवर्ती लक्षद्वीप समूह, जहां राजीव गांधी सपरिवार छुट्टी मनाने जाते थे, आबादी के हिसाब से एक मुस्लिम बहुल इलाका है। पाकिस्तान बनते ही मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तानी बेड़े को लक्षद्वीप भेजा था कि उसे कब्जिया कर इस्लामी मुल्क में शामिल कर लें। ठीक वैसी ही सैनिक हरकत जो जिन्ना ने कबाईलियों की पोशाक में पाकिस्तानी सैनिकों को कश्मीर पर हमले के लिए 1948 में भेजा था। नेहरू की असमंजसता भरी नीति के कारण कश्मीर आधा कट गया। आज नासूर बन गया है। उधर जब जिन्ना के आदेश पर पाकिस्तानी नौसेना का बेड़ा लक्षद्वीप पहुँचा तो पाया कि भारतीय नौसेना का रक्षक बेड़ा वहां पहलें ही पहुंच गया था। पटेल को अन्देशा हो गया था कि कश्मीर की भांति लक्षद्वीप को भी पाकिस्तान हथियाना चाहेगा।

इसी भांति जब अन्तिम ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड माउन्ट बैटन ने अण्डमान निकोबार को पाकिस्तान को सौंपने के लिए नेहरू को मना लिया तो, पटेल ने उस प्रस्ताव को ठुकराकर, अण्डमान द्वीप को भारतीय संघ में सुरक्षित रखा। भारत को इन द्वीपों से भावनात्मक लगाव है।  नेताजी सुभाष चन्द्र बोस इन्हें स्वतंत्र करा चुके थे। आज अण्डमान पर चीन की नौसेना की गिद्धदृष्टि लगी है। भारत पर सामुद्रिक आक्रमण के लिए लक्षद्वीप और अण्डमान द्वीप सामरिक तौर पर अत्यन्त सुविधाजनक हैं।

जवाहरलाल नेहरू की सेक्युलर सोच से तुलना के समय कुछ लोग सरदार पटेल की मुस्लिम-विरोधी छवि निरूपित् करते है तो इतिहास-बोध से अपनी अनभिज्ञता वे दर्शाते हैं, अथवा सोचसमझकर अपनी दृष्टि एंची करते हैं। स्वभावतः पटेल में किसानमार्का अक्खड़पन था। बेबाकी उनकी फितरत रही। लखनऊ की एक आम सभा (6 जनवरी 1948) में पटेल ने कहा था, ‘‘भारतीय मुसलमानों को सोचना होगा कि अब वे दो घोड़ों पर सवारी नहीं कर सकते।’’ इसे भारत में रह गये मुसलमानों ने हिन्दुओं द्वारा ऐलाने जंग कहा था। पटेल की इस उक्ति की भौगोलिक पृष्टभूमि रही थी। अवध के अधिकांश मुसलमान जिन्ना के पाकिस्तानी आन्दोलन के हरावल दस्ते में रहे। उनके पुरोधा थे चौधरी खलिकुज्जमां। जिन्ना के बाद मुस्लिम लीग के अध्यक्ष बनने वाले नवाब मोहम्मद इस्माइल खान भी मेरठ में ही रह गये। कराची  नहीं गये। पश्चिम यूपी में नवाब बेहिसाब जमीन्दारी थी।

 

कभी प्रश्न उठे कि सरदार वल्लभभाई झवेरदास पटेल के बहुगुणी जीवन की एक विशिष्टता गिनाओ ? तो आज के सियासी परिप्रेक्ष्य में उत्तर यही होगा कि ‘‘पटेल द्वारा अपने घर में वंशवाद का आमूल खात्मा।’’ यह भायेगा उन आलोचकों को जो अघाते नहीं है भत्र्सना करते हुए कि वर्तमान चुनाव और सत्ता में परिवारवाद का रूप विकराल होता जा रहा है। आखिर बचा कौन है इस कैकेयी-धृतराष्ट्री मनोवृत्ति से ? महात्मा गांधी के बाद सरदार पटेल ही थे जिनके आत्मजों का नाम-पता शायद ही कोई आमजन जानता हो।

 पटेल का इकलौता पुत्र था डाह्यालाल वल्लभभाई पटेल जिससे उनके पिता ने सारे नाते तोड़ लिये थे। स्वतंत्रता के एक वर्ष बाद ही मुम्बई के एक सार्वजनिक मंच पर से सरदार पटेल ने घोषणा कर दी थी कि उनके पद पर उनके पुत्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अतः सार्वजनिक जीवन में शुचिता के लिए सत्ता और कुटुम्ब के मध्य रिश्ता नहीं होना चाहिए। सरदार पटेल की एक ही पुत्री थी मणिबेन पटेल जो अविवाहित रही और पिता की सेवा में ही रही। सरदार पटेल का एक ही पोता था विपिन पटेल जो गुमनामी जिन्दगी गुजारता रहा। उसका जब निधन (12 मार्च 2004) दिल्ली में हुआ था तो अंत्येष्टि में चन्द लोग ही थे। लोगों को अखबारों से दूसरे दिन पता चला।

     अहंकारी अंग्रेजी साम्राज्यवादियों को आजादी के बाद भी प्रत्युत्तर देने का माद्दा लौह पुरुष में भरपूर था। सर विन्स्टन चर्चिल ने नेता विरोधी दल के रूप में ब्रिटिश संसद में सत्तारूढ़ लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री क्लीमेन्ट एटली द्वारा भारत को स्वतंत्रता देनेवाले प्रस्ताव के विरोध में कहा थाः “अंग्रेज जब भारत छोड़ देंगे, तो न तो एक पाई और न एक कुंवारी बच पाएगी।” सरदार पटेल ने इसका जवाब दिया इण्डियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स की मुम्बई इकाई की बैठक में चर्चिल को अपनी गरिमा सहेजने की राय दी थी। चर्चिल ने कहा था कि केवल तीस हजार ब्रिटिश सैनिकों ने भारत पर राज किया। पटेल ने जवाब दिया, “अब तीन लाख अंग्रेज भी भारत पर शासन नहीं कर सकते।”

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