चौपाई-
एतना मन आनत खगराया।
रघुपति प्रेरित ब्यापी माया।।
सो माया न दुखद मोहि काहीं।
आन जीव इव संसृत नाहीं।।
नाथ इहाँ कछु कारन आना।
सुनहु सो सावधान हरिजाना।।
ग्यान अखंड एक सीताबर।
माया बस्य जीव सचराचर।।
जौं सब कें रह ग्यान एकरस।
ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस।।
माया बस्य जीव अभिमानी।
ईस बस्य माया गुन खानी।।
परबस जीव स्वबस भगवंता।
जीव अनेक एक श्रीकंता।।
मुधा भेद जद्यपि कृत माया।
बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।
भावार्थ-
काकभुशुण्डि जी कहते हैं कि- हे पक्षिराज ! मन में इतनी (शंका) लाते ही श्रीरघुनाथजी के द्वारा प्रेरित माया मुझपर छा गयी है। परंतु वह माया न तो मुझे दुःख देने वाली हुई और न दूसरे जीवों की भाँति संसार में डालने वाली हुई।
हे नाथ ! यहाँ कुछ दूसरा ही कारण है। हे भगवान् के वाहन गरुड़जी ! उसे सावधान होकर सुनिये। एक सीतापति श्रीरामजी ही अखण्ड ज्ञानस्वरुप हैं और जड़-चेतन सभी जीव माया के वश हैं।
यदि जीवों को एकरस (अखण्ड) ज्ञान रहे तो कहिये, फिर ईश्वर और जीवमें भेद ही कैसा ? अभिमानी जीव मायाके वश है और वह सत्त्व, रज, तम- इन तीनों गुणों की खान माया ईश्वर के वशमें है।
जीव परतंत्र है, भगवान् स्वतंत्र हैं। जीव अनेक हैं, श्रीपति भगवान् एक हैं। यद्यपि माया का किया हुआ यह भेद असत् है तथापि वह भगवान् के भजन के बिना करोड़ों उपाय करनेपर भी नहीं जा सकता।
दोहा-
रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान।।
राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ।
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ।।
भावार्थ-
श्रीरामचन्द्रजी के भजन बिना जो मोक्षपद चाहता है, वह मनुष्य ज्ञानवान् होनेपर भी बिना पूँछ और सींग का पशु है।
सभी तारागणों के साथ सोलह कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा उदय हो और जितने पर्वत हैं, उन सबमें दावाग्नि लगा दी जाय, तो भी सूर्य के उदय हुए बिना रात्रि नहीं जा सकती।
जय जय श्री राम
“सद्भावना समूह”
ज्ञान का सागर