राजगढ़ से महाराज लगभग एक हज़ार सैनिक लेकर निकले। (तारीख़: 5 अप्रैल 1663, चैत्र शुक्ल अष्टमी, रात का समय)। वे कात्रज घाट पहुँचे। कात्रज घाट पुणे के दक्षिण में लगभग तेरह-चौदह किलोमीटर की दूरी पर है। महाराज ने घाट में कुछ मावलों की टुकड़ियाँ तैनात कीं और लगभग पाँच सौ मावलों को साथ लेकर पुणे की दिशा में बढ़े।
यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है। शाहिस्तेखाँ ने पुणे की छावनी के चारों ओर रात में गश्त के लिए सैनिक नियुक्त किए थे। इनमें कुछ मराठी सरदार और सैनिक भी शामिल थे। मोगलों की नौकरी करने वाली यह टोली शाहिस्तेखाँ ने जानबूझकर छावनी के दक्षिण भाग की रात की निगरानी के लिए रखी थी। संभवतः यह प्रथा उसके पुणे आने के बाद से ही शुरू हुई थी। इन सैनिकों का काम सुबह तक गश्त करना अपेक्षित था, लेकिन समय बीतते-बीतते उनमें ढिलाई आ गई। वे प्रायः रात के डेढ़-दो बजे तक ही गश्त करते और फिर धीरे से छावनी में लौट आते। यह बात महाराज के गुप्तचरों की नज़र में आई और महाराज ने इसका पूरा लाभ उठाया।
गश्त करने वालों को छावनी के चौकीदार पहचानते थे। महाराज ने इस स्थिति का फायदा उठाया। उन्होंने लगभग पाँच सौ सैनिक अपने साथ रखे और शेष मराठों को योजना के अनुसार छावनी में आगे भेज दिया। ये सैनिक ऐसे बर्ताव करने लगे मानो वे रोज़ की गश्त करने वाले लोग हों। चौकीदारों ने उन्हें रोका भी, परंतु उन्होंने निडर होकर कहा—“हम तो रोज़ गश्त करते हैं, हमें पहचाना नहीं? गश्त से लौट रहे हैं।” चौकीदारों ने उन्हें पहचान लिया समझकर अंदर जाने दिया। इस प्रकार छल से वे लाल महल के पूर्वी हिस्से में पहुँचे। यहाँ महल के चारों ओर किले जैसी दीवार नहीं थी, केवल ऊँची दीवार थी। उस दीवार में एक दरवाज़ा था, पर शाहिस्तेखाँ ने उसे ईंट-पत्थर से बंद करवा दिया था।
मराठा टुकड़ी ने सावधानी से उस दरवाज़े की दीवार में सेंध लगाना शुरू किया। इतनी बड़ी सेंध कि आदमी भीतर जा सके। यह काम उन्होंने अत्यंत सतर्कता से किया। सेंध पूरी होने तक मावले वहीं रुके रहे। चारों ओर सन्नाटा था।
जैसे सैनिक आए थे, वैसे ही महाराज भी अपनी टोली के साथ पहुँचे। महाराज को लाल महल का पूरा परिचय था और शाहिस्तेखाँ द्वारा किए गए निर्माण में बदलाव भी उन्हें ज्ञात थे। सेंध से सबसे पहले महाराज अंदर गए।
लेकिन यहाँ एक अनुमान चूक गया। सेंध के अंदर लाल महल का आँगन था। वहाँ पानी के बने हौज थे। लाल महल का यह पूर्वी भाग था। इस हिस्से से आँगन में आने के दो दरवाज़े थे—एक दरवाज़ा ईंट-पत्थर से बंद था और दूसरे दरवाज़े के पास खान के परिवार का खास रसोईघर बनाया गया था। यहाँ के रसोइए और पानकी समेत तेरह-चौदह नौकर रात में यहीं सोते थे। रोज़े का महीना होने के कारण वे भोर में जल्दी उठकर काम करने लगते थे। महाराज को अनुमान था कि वे अभी सो रहे होंगे, पर वे उस दिन जल्दी उठ गए थे और काम में लग गए थे। महाराज ने दूर से ही यह देख लिया। उन्हें समझ आ गया कि अगर इन लोगों को भनक लग गई तो सारा अभियान विफल हो जाएगा। अब केवल एक ही उपाय था—गुपचुप अंदर घुसकर सभी नौकरों को मार डालना। निरुपाय होकर महाराज ने मावलों को संकेत किया और उन्होंने सबको तुरंत मार डाला।
इसके बाद दूसरे दरवाज़े की दीवार भी तोड़ दी गई और महाराज अंदर प्रवेश कर गए। धुंधली दीपक की रोशनी में बहुत कम दिखाई दे रहा था। रसोई के दरवाज़े पर खड़ा पहरेदार सबसे पहले मारा गया। उसकी चीख से मंज़िल पर सोया शाहिस्तेखाँ चौंककर उठ गया। वह धनुष-बाण लेकर नीचे आँगन में भागा और अचानक महाराज के सामने आ गया। उसे कुछ समझने का अवसर ही नहीं मिला। उसी समय उसका पुत्र अबुल फतहखान भी पास के कक्ष से बाहर आया। उसने देखा कि कोई उसके पिता पर प्रहार करने जा रहा है। वह पिता को बचाने के लिए सामने आया, लेकिन महाराज की तलवार के वार से वहीं ढेर हो गया। शाहिस्तेखाँ घबराकर भागता हुआ फिर ऊपर की ओर मंज़िल में चढ़ गया।