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शिवचरित्रमाला (भाग 33) – जासूस यानी राजा की तीसरी आँख

महाराजों का गुप्तचर विभाग अत्यंत सावधान और कुशल था। उसमें कितने लोग कार्यरत थे, इसका स्पष्ट विवरण नहीं मिलता। बहिर्जी नाइक जाधव, वल्लभदास गुजराती, सुंदरजी परभुजी गुजराती, विश्वासराव दिघे – बस यही कुछ नाम मिलते हैं। परंतु अनुमान है कि गुप्त रूप से कई लोग कार्यरत रहे होंगे। विदेश दरबारों में राजनीतिक वार्ता के लिए जाने वाले स्वराज्य के वकील भी एक प्रकार से गुप्तचर ही थे। मुल्ला हैदर, सखोजी लोहोकरे, कर्माजी, रघुनाथ बल्लाळ कोरडे आदि महाराज की ओर से अन्य राज्यों में वकील बनकर जाते थे और साथ ही गुप्त सूचनाएँ भी लाते थे। शाहिस्तेखान प्रसंग में लाल महल के बगीचे का एक माली भी महाराज का गुप्तहेर रहा होगा, ऐसा प्रतीत होता है। लाल महल में होने वाली घटनाओं की सूचनाएँ महाराज को सटीक मिलती थीं। शाहिस्तेखान के सरदारों ने जब-जब कोकण पर आक्रमण किया, शिवाजीराजे ने हर बार त्वरित और तीव्र प्रत्युत्तर देकर उन्हें विफल किया। यह मराठी गुप्तचरी की ही सफलता थी। समुद्र पर जासूसी करना कठिन कार्य था, परंतु मराठों ने इसमें भी सफलता पाई।

अब महाराज स्वयं लाल महल पर आधी रात को छापा डालने वाले थे। सवा लाख सैनिकों से घिरे लाल महल में कड़े इंतज़ाम थे। खान ने भीतर कई बदलाव करवाए थे – कहीं दीवारें बनाई थीं, कहीं दरवाज़े बंद कराए थे, जनानखाना, रसोई, पुरुषों की कोठरियाँ, पहरेदारी की व्यवस्थाएँ – इन सबका विवरण बाहर वालों को मिलना आसान नहीं था। लेकिन महाराज का यह छापा निश्चित रूप से किसी मराठी गुप्तचर की मदद से ही संभव हुआ। यदि भविष्य में और ऐतिहासिक साक्ष्य मिलें तो मराठी गुप्तचर विभाग की कार्यकुशलता और भी उजागर होगी। आज जो सफलताएँ मराठों को मिलीं, उनका बड़ा श्रेय इन्हीं गुप्तचरों को है।

जासूस यानी राजा की तीसरी आँख। वह सदा जागृत और सावधान रहनी चाहिए। शिवकाल का गुप्तचर विभाग निःसंदेह अद्वितीय था। गुप्तचर पक्का स्वराज्यनिष्ठ होना अनिवार्य था। यदि वह परकियों से “देवाण-घेवाण” करने लगे तो नाश निश्चित था। गुप्तचर अत्यंत चतुर, बुद्धिमान और हरफनमौला होना चाहिए। कारवार की एक मोहिम में मराठी गुप्तचरों ने अद्भुत कार्य किया, परंतु एक गुप्तचर की भूल पर महाराज ने उसे दंड भी दिया।

अब महाराज लाल महल में घुसकर स्वयं शाहिस्तेखान को मारने की योजना बना रहे थे। यह विचार ही अद्भुत था। सवा लाख की छावनी, उसमें बंद लाल महल, और उसमें भी खान – वहाँ पहुँचकर छापा मारना कविताओं में ही संभव लगता है। परंतु ऐसा असंभव साहसिक अभियान महाराज ने रचा। आजकल युद्ध में “कमांडो” कहलाने वाली विशेष टुकड़ी की चर्चा होती है, तब महाराज के सभी सैनिक कमांडो जैसे थे, और उनमें से भी अधिक पटु योद्धा महाराज के पास थे। इसका प्रमाण “ऑपरेशन लाल महल” में दिखा। पूरी योजना गुप्तचरों की करामात पर आधारित थी। इसके लिए महाराज ने मध्यरात्रि का समय चुना – चैत्र शुक्ल अष्टमी की रात, जब अगले दिन रामनवमी थी।

उसी माह मुगलों का रोज़ा शुरू हुआ था। छापे की रात छठा रोज़ा था। रोज़े के बाद रात को भरपेट भोजन कर मुगल सैनिक और खानदान निश्चिंत होकर सो जाते थे, यही अनुमान सही साबित हुआ। गर्मी का समय था, मुठा नदी में पानी कम था, अतः छापा मारकर उसे पार कर शिवाजीनगर होते हुए सिंहगढ़ पहुँचना संभव था। महाराज ने यही योजना बनाई।

छापे में शामिल सैनिकों (कमांडोज) को हर कार्य का स्पष्ट निर्देश था। पूरी योजना इतनी सटीक थी कि लगता है महाराज ने इसका आठ-दस बार राजगढ़ पर “रिहर्सल” किया होगा। क्योंकि जो हुआ, वह इतना निर्दोष और बेमिसाल था कि वह संयोग नहीं हो सकता। इसका विवरण आगे आएगा।

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