उदात्त और तीव्र महत्वाकांक्षा वाली गरुड़ जैसी उड़ान के सामने आकाश भी छोटा पड़ गया – इतिहास ने यह देखा है। लगभग साढ़े तीन सौ साल पहले, इस मराठी भूमि पर नांगर (हल) खींचने के लिए गधे जोते गए। आदिलशाही की सेनाएं घोड़े दौड़ाते हुए चारों ओर से पुणे में घुसीं। घर जलने लगे। चीखें गूंज उठीं। इधर-उधर भागते लोगों की लाशें गिर पड़ीं। शाही फौजों ने पुणे का कसबा तबाह कर दिया। टूटे हुए चूड़ी-कंगन और फटे हुए जूते जैसे चिन्हों के साथ, रास्ते के बीचोंबीच एक बड़ी लोहे की कील गाड़ कर वे वापस विजापुर लौट गए। पीछे रह गया कुत्तों का रोना और गिद्धों का मंडराना। पुणे श्मशान बन गया। छह साल बीत गए। शहाजीराजे भोसले की पुणे की जागीर उजड़ गई और छह साल बाद उनकी रानी (जिजाबाई) और बेटा शिवबा कुछ मावली घुड़सवारों के साथ पुणे आए (सन् 1637, संभवतः गर्मी के मौसम में)। पुणे उजाड़ ही था। कुछ गिने-चुने घरों में ही जान बाकी थी।
पुणे की इस वीरानी को देखकर आऊसाहेब (जिजाबाई) का हृदय जल उठा। पुणे की रानी के पास खुद के लिए रहने को एक ओसरी भी नहीं बची थी। झांबरे पाटिल के वाड़े के किनारे उन्हें अपना छोटा-सा डेरा लगाना पड़ा। लेकिन उसी क्षण, जिजाऊसाहेब के व्याकुल दिल में एक मौन संकल्प अंकुरित हुआ – हम इस पुणे और उसके आस-पास के क्षेत्र को फिर से संवारेंगे!
चार दिन, चार रातें बीतीं और आऊसाहेब ने जैसे कोई उत्सव मनाया हो, पहली पूजा पुणे के टूटी-फूटी कसबा गणपति मंदिर में की। पहला जीर्णोद्धार इसी गणेश मंदिर से शुरू हुआ। पुणे के जल चुके और बिखरे आठ घरों और बारह दरवाजों में फिर से उम्मीद जगी। लोग घरों से निकलकर बाहर आए। कसबा गणपति को जब पहली बार फूलों से सजाया और पूजा गया, तो वहां की महिलाओं को लगा जैसे पुणे में साक्षात गौरी-गणपति मां-बेटे आ गए हों।
जिजाऊसाहेब के आदेश पर, सबने मिलकर खुशी से काम संभाल लिया। पुणे फिर से सजने लगा। आऊसाहेब की पैनी निगरानी में नये-नये सजावटी प्रयास मुठा नदी के किनारे दिखाई देने लगे। पुणे की लोहे की कील कब की उखाड़ दी गई थी और एक दिन, ढोल-ताशों की गूंज में नांगर (हल) में बैल जोड़े गए। लेकिन इस बार हल सोने का था – खरा सोना, बावनकशी। और पुणे की धरती पर सोने का हल पचास कदम तक चलाया गया। इसी ज़मीन पर छह साल पहले विजापुर के वज़ीर खवासखान के आदेश से गधों से हल चलवाया गया था। युवाओं की महत्वाकांक्षा जैसे ढोल-लेज़ीम के ताल पर शिवबा और आऊसाहेब के सोने के हल के चारों ओर घूम-घूम कर नाच रही थी। वह हर्षित मराठी धरती मानो कह रही थी – ‘बच्चों, मन में ठान लो, तुम जो चाहो वो कर सकते हो। इस मिट्टी से दिल मिला लिया तो मोती उपजेंगे।’
और सचमुच, पुणे और आसपास का इलाका बदलने लगा। लोग खुद-ब-खुद काम में जुट गए। बारह बलुतेदार और गाँव के कामगार जैसे अपने घर सजाते हैं, वैसे ही पसीना बहाकर मेहनत करने लगे। न्याय करने के लिए खुद आऊसाहेब सभा में बैठने लगीं। न्याय इतना संतुलित था कि तराजू के पलड़े पर मच्छर भी नहीं बैठ सकता था। उस समय दिए गए उनके निर्णयों के दस्तावेज आज भी उपलब्ध हैं।
पर्वती गाँव के पास का आंबिल नाला बहुत उग्र था। बारिश में इतना भर जाता कि आसपास की खेती और झोपड़ियां बहा ले जाता। यह पुणे की स्थायी समस्या बन गई थी। आऊसाहेब ने पर्वती के पास (जहां अब सावरकर की मूर्ति है) उस नाले पर बांध बनवाया – पत्थरों का, छह हाथ चौड़ा, सत्तर हाथ लंबा और पच्चीस हाथ ऊँचा। पहले यह नाला कात्रज की घाटियों से बहकर सीधा उत्तर की ओर पुणे शहर को छूते हुए नदी से मिलता था। अब उसे मोड़कर पश्चिम दिशा में मुठा नदी में छोड़ दिया गया।
पुणे के चारों ओर मावली पहाड़ियाँ और घने जंगल थे। पिछले छह सालों में बाघों, तेंदुओं, भेड़ियों और लोमड़ियों का आतंक शाही सैनिकों से भी ज्यादा था। इन जंगली जानवरों को मारकर किसानों को राहत देना जरूरी था। आऊसाहेब के लालमहाल ने यह काम करवाया और यह आतंक खत्म हुआ।
लेकिन गांव के प्रतिष्ठित गुंडों को रोकना थोड़ा मुश्किल था। आऊसाहेब के आदेश से कृष्णाजी नाइक, फुलजी नाइक, बाबाजी नाइक पाटिल जैसे दुष्टों को कड़ी सज़ा दी गई – किसी के हाथ-पैर तोड़ दिए गए। क्या किया जाए? हर किसी को कितना और कैसे समझाएं? वह भी मूर्खता ही कहलाती। लालमहाल के मां-बेटे के सपने और महत्वाकांक्षाएं आकाश को छूने लगी थीं!