अफजलखान से क्या घटना घटेगी, यह किसी को मालूम नहीं था। लेकिन जो भी “घटना” घटे, चाहे विजय हो, पराजय हो या मृत्यु, फिर भी किसी को स्वराज्य का कार्य नहीं रोकना चाहिए – यह महाराज का अपने प्रियजनों को दृढ़ आदेश था। उसी अनुसार “घटना” के बाद की सारी योजनाएं महाराज ने पहले से ही तय कर रखी थीं। महाराज के शब्द थे, “अगर मुझे धोखा हो भी गया, तो भी नेताजी पालकर के नेतृत्व में तुम लोग लड़ते रहना।”
गीता में श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन से ऐसा ही कहा है – ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’।
10 नवम्बर 1659, गुरुवार – यही वह दिन था जब वह “घटना” घटने वाली थी। कैसा घटेगी, यह केवल विधाता जानता था। लेकिन स्वराज्य का राजा और हर सैनिक अपनी-अपनी जिम्मेदारी में तल्लीन था। उस दिन भोर तक सभी सरदार और मावले अपने तय मोर्चों पर सजग होकर बैठे थे।
महाराज ने विधिपूर्वक देवी की पूजा की। कुलोपाध्याय प्रभाकर भट्ट ने पूजा मंत्र बोले। महाराज ने पूजा की? हां, लेकिन पूरी योजना सतर्कता से तय कर लेने के बाद वे पूजा में बैठे थे। जैसे कोई छात्र पूरी पढ़ाई करने के बाद बड़ों का आशीर्वाद लेता है। महाराज तपस्वी थे, नवस (मन्नत) करने वाले नहीं। मन्नत मांगने वाले लोग भगवान से “सौदेबाज़ी” करते हैं – “मेरा यह कार्य हो जाए तो मैं यह चढ़ाऊँगा।”
आज तक शिवाजी महाराज के संबंध में किसी भी ऐतिहासिक प्रमाण में यह नहीं मिला कि उन्होंने किसी कार्य हेतु किसी देवी-देवता से मन्नत मांगी हो। वे नवसबाज (मन्नत करने वाले) नहीं थे।
दोपहर हो गई। महाराज खान से मिलने निकले। उनके साथ थे – जिवा महाला, सकपाळ, संभाजी कोंढाळकर, संभाजी करवर, सिद्दी इब्राहीम, येसाजी कंक आदि दस विश्वसनीय साथी। यही पहले से तय थे और यही जाने वाले थे। लेकिन जब महाराज किले से नीचे उतर रहे थे, तब नीचे तैनात मावलों ने उन्हें देख लिया। गोरखोजी काकडे इनका किल्लेदार था। सभी मावले महाराज को देखकर भावुक हो गए और उन्हें घेरकर बोले – “महाराज, वहाँ खतरा है, हमें साथ ले चलिए।”
महाराज का स्पष्ट नियम था कि जो तय हुआ है, वही होगा। भावनाओं में बहकर योजना बिगाड़ना उचित नहीं था। उन्होंने प्रेमपूर्वक कहा – “भाइयों, जो तय हुए हैं वही चलेंगे।”
महाराज नियत समय पर शामियाने के पास पहुंचे। वे हर बात में सावधान और सतर्क रहते थे।
शामियाने के द्वार पर पहुँचकर खान ने बाहर न आकर भीतर से ही कहा –
“तू अपनी बहादुरी का घमंड करता है! मेरा मातहत बन जा! सब घमंड छोड़कर इस अफजलखान को गले लगा!”
और खान ने महाराज को गले लगा लिया। उसी क्षण उसने महाराज का सिर अपनी बगल में दबाया और कटार से वार किया। लेकिन वह वार बेअसर गया क्योंकि महाराज ने लोहे का कवच पहना था। वह दूसरा वार करने ही वाला था कि महाराज ने अपनी बाईं आस्तीन से बिचवा (कटार) निकालकर खान के पेट में घोंप दिया। खान चीख पड़ा और वहीं ढेर हो गया।
यदि महाराज हर क्षण सतर्क न रहते, तो वे मारे जाते। यह संपूर्ण प्रसंग अब जगत को विस्तार से ज्ञात है। प्रतापगढ़ की यह मुलाकात इस प्रसंग का केंद्र बिंदु है, जैसे सूर्य का प्रकाश दूर तक फैलता है, वैसे ही इस घटना में महाराज का अद्वितीय नेतृत्व दूर तक प्रकाशित होता है। युवा वर्ग को इसका अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
किले से निकलते समय महाराज ने कुलोपाध्याय प्रभाकर भट्ट को आदर से प्रणाम किया था और उनसे आशीर्वाद लिया। लेकिन मुलाकात के तुरंत बाद अफजलखान के वकील कृष्णाजी भास्कर कुलकर्णी ने खान की तलवार उठाकर महाराज पर हमला किया। महाराज पूरी तरह सजग थे। उन्होंने पहले उसे समझाया, लेकिन जब उसने तीन बार वार किया, तो महाराज ने भवानी तलवार से उसका अंत कर दिया।
देखा आपने? जब महाराज निकले थे, तो उन्होंने कुलोपाध्याय को प्रणाम किया था, और वही आशीर्वाद उनके साथ था। मगर जो स्वराज्य पर हमला कर रहा था, उसे वे समाप्त कर रहे थे।
खान के साथ आए सरदारों में महाराज के एक चाचा – भोसले भी थे। वे युद्ध में मारे गए। महाराज ने आदेश दिया था – जो लड़े, उसे मारो, लेकिन जो शरण आए, उसे क्षमा करो। भोसले चाचा मारे गए। और दूसरी ओर, महाराज अपने प्रिय वकील पंताजी गोपीनाथ बोकील को “काका” कहकर स्नेहपूर्वक मानते थे। प्रतापगढ़ की इस घटना के बाद उन्होंने उनका सम्मानपूर्वक सत्कार किया।
महाराज ने एक ओर अपने रक्त संबंधी चाचा को मार डाला, वहीं आदरपूर्वक माने गए काका को सम्मान दिया। उन्होंने खान के वकील को मार डाला, लेकिन कुलोपाध्याय को प्रणाम किया। यही था उनका स्वराज्यधर्म। यही है महाराष्ट्रधर्म।
“विंचू देवघर में आ गया, उसे देवपूजा पसंद नहीं, वहां पैजारी को अधम बनना पड़ता है।”
यही था महाराज का धर्म।