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शिवचरित्रमाला भाग 16 यह चरित्र दधीचि का है, यह चरित्र मावलों का है

जब महाराष्ट्र के हिंदवी स्वराज्य पर प्राणांतक संकट मंडरा रहा था, तब भारत के कौन से राजा सहायता के लिए आगे आए? राजपूत? जाट? बुंदेले? गढ़वाल? डोगरा? सिख? कोई नहीं। जो कुछ भी करना था, वह सब राजाओं को अपने सीधे-सादे गरीब मावलों के बल पर ही करना था। सामान्य सहानुभूति तक नहीं मिल रही थी। परंतु राजाओं को अपने भाइयों और भवानी पर पूर्ण विश्वास था।

दरमजल खान सेना लेकर आगे बढ़ रहा था। उसने शिवाजी महाराज को धार्मिक भावना से उकसाकर सह्याद्री से बाहर खुले मैदान में लाने की जो चाल चली थी, वह पूरी तरह विफल हो गई। जैसे बछड़ा गाय से दूर नहीं जाता, वैसे ही महाराज का प्रेम सह्याद्री के किलों, घाटियों और जंगलों से था। वे उससे चिपके हुए थे।

इसी समय दिल्ली में औरंगज़ेब बादशाह बना हुआ था। उसके मन में क्या चल रहा था? उसे यह दक्खन का रणक्षेत्र दिखाई दे रहा था। वह शिवाजी राजे पर बहुत क्रोधित था और अफज़लखान से भी, यानी बीजापुर की आदिलशाही से भी उसका दुश्मनी का रिश्ता था। उसने एक सीधी बात सोची – ये दोनों (शिवाजी और अफज़लखान) ही उसके दुश्मन हैं। दोनों आपस में लड़ेंगे। जो बचेगा, उससे बाद में निपट लेंगे। संभवतः अफज़लखान ही बचेगा और शिवाजी समाप्त हो जाएंगे। परंतु ऐसा हरगिज़ नहीं हुआ!

गोवा के पुर्तगाली भी तटस्थ ही रहे। जंजीरा के सिद्दी की लालसा थी कि मराठी राज्य को कोंकण से कुचल दिया जाए। लेकिन उस समय वह महाराज के खिलाफ कोई बड़ा कदम उठाने की ताक़त नहीं रखता था। जो कुछ थोड़ा-बहुत उसने किया, वह महाराज के मराठी सरदारों ने कुचल कर रख दिया। सिद्दी शांत हो गया।

अब मामला सीधा था – अफज़लखान बनाम शिवाजी राजे।
शिवाजी पहाड़ों से बाहर नहीं निकलते – यह बात अफज़लखान ने देख ली थी, फिर भी वह प्रयास करता रहा। वाई पहुंचते ही (सन् 1659, मई), उसने स्वराज्य की पूर्वी सीमा पर स्थित चार किले – शिरवळ, सासवड, सुपे और पुणे – पर सात हजार सैनिकों को भेज कर कब्ज़ा कर लिया। ये किले सैनिक दृष्टि से बहुत छोटे थे।

इस हमले का मराठी जनता पर निश्चित ही डरानेवाला असर होगा, लोग डरेंगे और हमारे पास आकर जुड़ेंगे – ऐसा खान को लगा। इस डर के साथ यदि लोगों को धन-दौलत का लालच दिखाया जाए तो ये गांव वाले मावले लोग निश्चित ही हमारे पास आ जाएंगे – ऐसा उसे विश्वास था।
उसने मावल के देशमुख सरदारों को आदिलशाही की मुहर सहित फरमान भेजे। उन फरमानों में शाह ने सरदारों को आदेश दिया था –
शिवाजी का साथ छोड़ दो और नामजद सरदार अफज़लखान से मिल जाओ। अगर मिल गए तो तुम्हारी खूब तरक्की होगी। लेकिन अगर शिवाजी के साथ रहकर बादशाही के खिलाफ गए, तो तुम सबका सफाया कर देंगे। याद रखो! हम शिवाजी को जड़ से खत्म करनेवाले हैं!”

इस प्रकार के भयानक धमकी और लालच से भरे फरमान खान ने सभी मावली सरदारों को भेजे। सबसे पहला फरमान वाई से मात्र पाँच कोस दूर रहनेवाले कान्होजी नाईक जेधे को मिला।
कान्होजी नाईक वह फरमान लेकर सीधे राजगढ़ में शिवाजी महाराज के पास पहुंचे। अपने पाँचों युवा पुत्रों के साथ आए और महाराज से असीम विश्वास के साथ बोले –
आप तनिक भी चिंता मत कीजिए। मैं मावल के सभी सरदारों के साथ आपके चरणों में हूं। मैं अपना घर-बार तक छोड़ने को तैयार हूं।”

क्या अद्भुत विश्वास था यह!
कान्होजी ने मावल के सभी देशमुख सरदारों को संग लेकर महाराज की ओर प्रस्थान किया। केवल उतवलीकर खंडोजी देशमुख ही एकमात्र सरदार था जो पहले ही अफज़लखान से मिल गया था। बाक़ी सभी स्वराज्य के ध्वज के नीचे खड़े हो गए।

खान को उम्मीद थी कि ये मावले भिखारी जैसे डरकर उसकी छावनी में सेवा करने आएंगे – लेकिन उसे पूरी तरह निराशा हाथ लगी। फिर भी उसने एक और चाल चली – शिवशाही सरदारों के घरों में जो नई पीढ़ी के लड़के थे – किसी के बेटे, किसी के भतीजे, किसी के भाई – उनके नाम से लालच भरे नए फरमान भेजे। लेकिन एक भी युवक अफज़लखान से नहीं मिला। पूरा स्वराज्य महाराज के पीछे खड़ा हो गया।

यह शिवाजी महाराज की ही देन थी।
आज की भाषा में इसे कहते हैं – राष्ट्रीय चरित्र और राष्ट्रीय निष्ठा
यदि हमारे पास यह हो, तो हम दुश्मनों के टैंक और रॉकेट भी उलट सकते हैं।
कान्होजी जैसे परमवीर, अब्दुल हमीद जैसे सपूत हमारे भीतर से निकल सकते हैं।
हमारी आकांक्षाओं के झंडे आकाश में लहरा सकते हैं।

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