सन 1649 के इस कालखंड में मोहम्मद आदिलशाह की तबीयत ठीक नहीं थी। वह लकवे जैसे रोग से ग्रसित हो गया था और कमजोर होता जा रहा था। इसी दौरान उसकी विशाल इमारत गोलघुमट का निर्माण ऊँचाई की ओर बढ़ता जा रहा था, जो जल्द ही पूरा होने वाला था।
क्या आप जानते हैं? यह गोलघुमट इमारत खुद मोहम्मद आदिलशाह की कब्र है। जब वह तख्त पर बैठा, तभी उसने अपने लिए खुद यह मकबरा बनवाना शुरू कर दिया था। माहिर वास्तुकारों ने इसे बनाया। इसमें बोली या गूंजती कोई भी आवाज़ कई बार प्रतिध्वनित होती थी। लेकिन बीमार बादशाह के मन में एक ही आवाज़ और उसकी कई गूंजें थीं—मराठों के विद्रोह की।
बादशाह बेचैन था। ऐसे में उसने एक कदम उठाया—चार सालों की नज़रबंदी के बाद शहाजीराजे को रिहा कर दिया गया। वे दक्षिण कर्नाटक में अपनी जागीर पर चले गए। इसका मतलब था कि शिवाजीराजे पर से सारी चिंता और दबाव हट गया।
अब शिवाजीराजे नाम का तूफान स्वच्छंद हो गया। पिछले चार वर्षों में उन्होंने आदिलशाही के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठाया था। अब वे एकदम से पाँच हजार घुड़सवारों की सेना के साथ कर्नाटक की ओर बढ़े।
कर्नाटक के उत्तर में मासूर नामक एक मजबूत सैन्य किला था, जहां शिवप्पा नायक देसाई शाही ठाणेदार था। अचानक शिवाजीराजे का भयंकर तूफानी हमला मासूर पर हुआ। शिवप्पा नायक को सपने में भी यह आशंका नहीं थी कि मराठों का यह कहर उस पर टूट पड़ेगा।
मासूर से लेकर शिरवळ तक का पूरा क्षेत्र आदिलशाही के अधीन था। शिवाजीराजे ने रास्ते के किसी भी ठिकाने पर हमला नहीं किया और सीधे मासूर जा पहुँचे। शिवप्पा की सेना तितर-बितर हो गई, और वह भाग गया। महाराज ने यह हमला करके तुरंत पुणे की ओर वापसी कर ली।
उन्होंने मासूर पर कब्जा नहीं किया, लूटा नहीं, न ही बीच के किसी किले पर धावा बोला। क्यों?
क्योंकि वे आदिलशाही को यह दिखाना चाहते थे कि शिवाजी भोसले न तो भुलक्कड़ हैं, न ही लापरवाह या मूर्ख।
उन्होंने यह संदेश देना चाहा कि—”मेरे पिता की कैद के दौरान मैंने क्या सामर्थ्य और रणनीति विकसित की है, यह मैं दिखा चुका हूँ। उनके अपमान को मैं भूला नहीं हूँ।”
मासूर पर हुए इस हमले ने आदिलशाही दरबार को स्तब्ध कर दिया। अब उन्हें चिंता सताने लगी कि आगे क्या होगा।
समय बीतता गया। महाराज के गुप्तचर मुगलों की खबरें भी लाते रहे।
दिल्ली के शाहजहाँ आगरा किले में बीमारी से ग्रस्त थे।
उनका बड़ा बेटा दारा दिल्ली में था।
दूसरा बेटा मुराद गुजरात का सूबेदार था।
तीसरा बेटा औरंगज़ेब दक्षिण के बीदर में था।
चौथा बेटा सुजा बंगाल की ओर था।
शाहजहाँ को किसी बाहरी शत्रु से ज्यादा डर अपने बेटों से था।
दारा सुशील था, लेकिन बाकी सभी अत्यंत क्रूर थे और सभी दिल्ली के तख्त के लिए तैयार बैठे थे।
अधिकतर राजपूत सरदार औरंगज़ेब के पक्ष में जाने की संभावना रखते थे। किसी को शाहजहाँ की मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं थी—हर कोई विद्रोह के लिए तैयार था।
असल में स्थिति ऐसी थी कि जैसे बारूद का ढेर बस एक चिंगारी की प्रतीक्षा कर रहा हो।
क्रांति संभव थी।
लेकिन इन राजपूतों को क्रांति से ज़्यादा अपनी बादशाह से नातेदारी प्रिय थी।
उनके हृदय में स्वराज्य या क्रांति का विचार जन्म ही नहीं ले रहा था।
राजस्थान में एक भी जिजाबाई जन्मी नहीं थी जो उनमें यह भावना जागृत करती।
क्रांति कहीं से लाई नहीं जाती।
क्रांति आयात या निर्यात नहीं होती,
वह अपने मस्तिष्क में जन्म लेती है,
फिर उतरती है हृदय में,
फिर जाती है बांहों तक,
और अंततः प्रकट होती है तलवार की धार से।
शिवाजीराजे इस क्रांति की गहराई को भली-भाँति समझ चुके थे।