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षडबल - ग्रहों का बलाबल और उनकी अवस्थाएं

ग्रहों के बल का मापक षड्बल  :-

 

षडबल ज्योतिष का वह भाग है, जो किसी ग्रह की 6 प्रकार की शक्तियों को व्यक्त करता है। एक ग्रह अपनी स्थिति, दूसरे ग्रहों कि दृष्टि, दिशा, समय, गति आदि के द्वारा बल प्राप्त करता है। षडबल कि गणना में राहू- केतु के अतिरिक्त अन्य सात ग्रहों की शक्तियों का आकलन किया जाता है। षडबल में अधिक अंक प्राप्त करने वाला ग्रह बली होकर अपनी दशा- अन्तर्दशा में अपने पूरे फल देता है। इसके विपरीत षडबल में कमजोर ग्रह अपने पूरे फल देने में असमर्थ होता है।

 

षडबल में ग्रहों के छ: प्रकार के बल निकाले जाते हैं।

[1] स्थान बल – स्थानीय बल /शक्ति देता है।

यह वह बल है जो किसी ग्रह को जन्म कुंडली मे एक विशेष स्तिथि प्राप्त होने पर मिलता है। ग्रह को स्थान बल तब प्राप्त होता जब वह अपनी उच्च राशि, मूलत्रिकोण, स्वराशि, या मित्र राशि मे स्तिथ हो या ग्रह षडवर्ग में अपनी ही राशि मे हो।

 

[2] दिगबल – दिशा बल / शक्ति बताता है।

गुरु और बुध को दिग्बल प्राप्त होता है जब वे लग्न में स्तिथ हो।

सूर्य और मंगल को दिग्बल प्राप्त होता है जब वो दसवे भाव मे हो।

शनि को दिग्बल प्राप्त होता है जब वो सप्तम भाव मे हो।

चंद्र और शुक्र को दिग्बल प्राप्त होता है जब वो सुख भाव मे हो।

 

[3] काल बल – समय की शक्ति का निर्धारण करता है।

चंद्र मंगल और शनि रात्रि बलि है अर्थात जब जन्म रात्रि का हो।

सूर्य, शुक्र और गुरु दिन बलि है।

बुध दिन औऱ रात दोनों प्रहरों में बलि है।

पापी ग्रह कृष्ण पक्ष में बलवान होते है और शुभ ग्रह शुक्ल पक्ष में बलवान होते है।

 

[4] चेष्टा बल – गतिशील बल है।

सूर्य और चंद्रमा को चेष्टा बल प्राप्त होता है जब सूर्य मकर, कुम्भ, मीन, मेष, वृषभ, या मिथुन में हो अर्थात उत्तरायण में हो।

मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि को चेष्टाबल तब प्राप्त होता है जब वे वक्री होते होते है ।

 

[5] नैसर्गिक बल – प्राकृ्तिक बल प्रदान करता है।

सूर्य, चंद्र, शुक्र, गुरु, बुध, मंगल और शनि अपने क्रम अनुसार बलि है।

सूर्य सबसे अधिक बलि है, और शनि सबसे कम बलि है।

 

[6] दृष्टि बल – दृष्टि बल की व्याख्या करता है।

पाप ग्रह की दृष्टि में ग्रह का दृग बल कम हो जाता है शुभ ग्रह की दृष्टि से ये बल बढ़ता है।

 

षडबल निकालने के लाभ :-

 

  1. षडबल के आधार पर घटनाओं का फलित करने से भविष्यवाणियों में सटिकता और दृढता आती है। तथा इससे त्रुटि होने कि संभावनाओं में भी कमी होती है।
  1. ग्रहों के बल का आकंलन करने के बाद यह सरलता से निश्चित किया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति की कुण्डली का विश्लेषण करने के लिते लग्न, चन्द्र, सूर्य तीनों में से किसे आधार बनाया जायें. फलित में इन तीनों में से जो बली हो, उसे ही फलित के लिये प्रयोग करने के विषय में मान्यता है।
  1. पिण्डायु या अंशायु विधि से आयु की गणना करना सरल हो जाता है। क्योंकि इन विधियों में आयु गणना करने के लिये जो आंकडे चाहिये होते हैं। वे उपलब्ध हो जाते हैं।
  1. महादशा और अन्तर्दशा के आधार पर फलित करना सरल हो जाता है। क्योंकि जो ग्रह षडबल में बली हों, वह दशा – अन्तर्दशा में अवश्य फल देता है। ये फल शुभ या अशुभ हो सकते हैं।
II ग्रहों की अवस्था और अंश II

 

जिस प्रकार इस जगत में मनुष्यों की बाल, कुमार, युवा एवं वृद्ध अवस्थाएं होती हैं, ठीक उसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों की भी बाल, कुमार, युवा एवं वृद्ध अवस्थाएं होती हैं। ग्रहों की ये अवस्थाएं जातक के जन्मांग फलित ठीक उसी प्रकार प्रभावित करती हैं, जैसे मानव की अवस्थाएं उसके जीवन को।

 

मनुष्य अपनी कुमार व युवावस्था में बलवान व सशक्त होता है। ग्रह भी अपनी अपनी कुमार व युवावस्था में बलवान व सशक्त होता है। अब यदि जन्मांग चक्र में शुभ ग्रह बलवान हुआ तो वह जातक अत्यंत शुभ फल प्रदान करेगा और यदि शुभ ग्रह अशक्त व निर्बल हुआ तो वह जातक शुभ फल प्रदान करने में असमर्थ रहेगा। अत: जातक की कुंडली में शुभ ग्रहों का ग्रहावस्था अनुसार बलवान व सशक्त होना अतिआवश्यक होता है।

 

मनुष्यों की विविध अवस्थाएं उसकी आयु के अनुसार तय होती हैं जबकि ग्रहों की उनके अंशों के अनुसार। ज्योतिष शास्त्र में प्रत्येक ग्रह 30 अंश का माना गया है। आइए जानते हैं कि ग्रह कितने अंश तक किस अवस्था में होता है :-

 

(1) यदि ग्रह विषम राशि में स्थित होता है तब यह –

 

* 0 – 6 अंश तक बाल अवस्था I

* 6 – 12 अंश तक कुमार अवस्था I

*12 -18 अंश तक युवा अवस्था I

*18 – 24 अंश तक वृद्ध अवस्था I

*24 – 30 अंश तक मृतावस्था का माना जाता है।

(2) यदि ग्रह सम राशि में स्थित होता है तब यह –

* 0 – 6 अंश तक मृतावस्था I

* 6 – 12 अंश तक वृद्ध अवस्था I

*12 -18 अंश तक युवा अवस्था I

*18 – 24 अंश तक कुमार अवस्था वृद्ध अवस्था I

*24 – 30 अंश तक बाल अवस्था का माना जाता है।

 

 

कुछ मत-मतांतर से ग्रह को 18-24 तक प्रौढ़ एवं 24-30 अंश तक वृद्ध मानते हैं और केवल शून्य (0) अंशों का होने पर ही मृत मानते हैं। जैसा कि उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि शुभ ग्रहों का उनकी अवस्था के अनुसार बलवान व सशक्त होना जातक को शुभ फल प्रदान करने हेतु अतिआवश्यक होता है।

ग्रहो की अवस्थाएं – यानि “स्थिति”

अवस्था यानि हैसियत या स्थिति है। मानव जीवन की शारीरिक अवस्था अनुसार ग्रहो की विभिन्न राशियो के अलग अलग अंशो पर भिन्न – भिन्न पांच अवस्थाऐ बाल्य, कुमार, युवा, वृद्ध और मृत मानी गई है। बाल्यावस्था मे ग्रह की शक्ति ¼ होती है, कुमारावस्था मे ग्रह की शक्ति ½ होती है, युवावस्था मे पूर्ण शक्ति, वृद्धावस्था मे न्यूनतम शक्ति होती है। मृतावस्था मे कोई परिणाम नही मिलता है।

 बहुत विद्जन राशि के द्रेष्काण अनुसार ग्रहो की शारीरिक अवस्था मानते है।  तीन द्रेष्काण अनुसार तीन बाल्य, मध्य, वृद्धावस्था मानते है। सम राशियो में विपरीत क्रम से गणना करते है यानि प्रथम द्रेष्काण वृद्धावस्था, द्वितीय द्रेष्काण मध्यावस्था और तृतीय द्रेष्काण बाल्यावस्था होती है। सूर्य और मंगल बाल्यावस्था मे श्रेष्ठ परिणाम देते है। गुरु शुक्र मध्यावस्था में श्रेष्ठ परिणाम देते है। चन्द्र और शनि वृद्धावस्था मे श्रेष्ठ परिणाम देते है। बुध तीनो अवस्थाओ में श्रेष्ट परिणाम देता है।

 मानसिक स्वभाव या प्रकृति अनुसार ग्रहो की दीप्तादि दस अवस्था बताई गई है और इनका कारण भी बताया गया है। कई विद्जन इन दस अवस्थाओ मे से नौ को ही व्यवहार मे लाते है, तो अन्य ने परिभाषा को और सरल कर लिया है।

 

(प्रश्न तन्त्र मे नीलकंठ ने कहा है कि दीप्तादि दस अवस्था द्वारा भविष्यवाणी करनी चाहिए ऐसी भविष्यवाणी कभी भी गलत नही होगी)

 

01  दीप्त – अपनी उच्च राशि या मूल त्रिकोण मे स्थित ग्रह दीप्त कहलाता है।

02  मुदित – मित्र की राशि मे स्थित ग्रह मुदित कहलाता है।

03  स्वस्थ – अपनी राशि (स्वग्रह) मे स्थित ग्रह स्वस्थ कहलाता है।

04  शांत – शुभ ग्रह की राशि मे स्थित ग्रह शान्त कहलाता है।

05  शक्त – स्फुट रश्मि के जालो से अत्यंत शुद्ध ग्रह शक्त कहलाता है।

06  प्रपीड़ित – ग्रहो से पराजित होने पर ग्रह प्रपीड़ित कहलाता है।

07  दीन – शत्रु की राशि या शत्रु नवांश मे होने पर ग्रह दीन कहलाता है।

08  खल – पाप ग्रहो की राशि के मध्य या युत होने पर ग्रह खल कहलाता है।

09  भीत – नीच ग्रहो के साथ पड़ा ग्रह भीत कहलाता है।

10  विकल – जो ग्रह अस्त होकर स्थित हो वह विकल कहलाता है।

 

सुप्त, जाग्रत आदि अवस्थानुसार ग्रह विषम राशि के प्रथम भाग (10 अंश तक) पूर्ण जाग्रत, मध्य भाग (10 से 20 अंश तक) तन्द्रा (जाग्रत और सुप्त के मध्य की अवस्था) और राशि के अंतिम भाग (20 से 30 अंश) सुप्त अवस्था मे होते है। इससे विपरीत सम राशियो मे प्रथम भाग सुप्त, द्वितीय भाग तन्द्रा, तृतीय भाग मे जाग्रत अवस्था मे होता है।

 

 अन्यमत से उच्चांश और तथा स्वनवांश मे ग्रह जाग्रत अवस्था, मित्र के नवांश मे स्वप्नावस्था, शत्रु के नवांश मे  सुप्तावस्था मे कहलाते है।

अन्य प्रकार की अवस्था मे मनुष्य मानसिक अवस्था अनुसार लज्जित, गर्वित, क्षुदित, तृषित, मुदित और क्षोभित ये छह है।

1 लज्जित – पंचम (पुत्र) भाव मे ग्रह  राहु-केतु या सूर्य, शनि या मंगल से जुड़ा है तो वह लज्जित कहलाता है।

2 गर्वित – यदि ग्रह उच्चस्थ या मूलत्रिकोणस्थ हो तो वह गर्वित अवस्था मे होता है।

3 क्षुदित – यदि ग्रह शत्रु राशि मे है या शत्रु से दृष्ट या युत है या ग्रह शनि से युत है तो वह क्षुदित कहलाता है।

4 तृषित – यदि ग्रह जल तत्व की राशि मे है और अशुभ ग्रहो से दृष्ट है शुभ ग्रहो की दृष्टि नही है तो वह तृषित है।

5 मुदित – यदि ग्रह मित्र राशि मे शुभ ग्रह से युत या दृष्ट है तो वह मुदित कहलाता है।

6 क्षोभित – यदि ग्रह सूर्य के साथ है और अशुभ ग्रह से युत या दृष्ट है तो वह क्षोभित कहलाता है।

 

फलित :- विद्जन बलवान (मजबूत) और निर्बल (कमजोर) ग्रह का पता लगाकर उपरोक्त तरीको से एक ग्रह के कारण प्रभावो का अनुमान लगावे क्योकि कमजोर ग्रह अच्छे प्रभावो मे कमी का कारण बनते है और मजबूत ग्रह अच्छे प्रभावो में वृद्धि करते है।

 

क्षुदित या क्षोभित ग्रह जिस भाव मे हो उस भाव का नाश करता है।  यदि दशम (कर्म) भाव मे ग्रह लज्जित, क्षुदित या क्षोभित अवस्था मे हो तो जातक हमेशा दुःखो का शिकार होगा। यदि पंचम (पुत्र) भाव मे ग्रह लज्जित अवस्था मे है तो संतान का विनाश होगा या केवल एक बच्चा जीवित रहेगा। यदि क्षोभित या तृषित अवस्था मे ग्रह सप्तम (युवती) भाव मे है तो जातक की पत्नी निश्चित मर जायगी।

गर्वित ग्रह नवीन मकान, उद्यान, राजकीय सम्बन्ध, कला निपुणता, हमेशा वित्तीय लाभ और व्यापार मे तरक्की से ख़ुशी का कारण होता है। मुदित ग्रह अनेक रहवास, वत्राभूषण, भूमि व पत्नी से सुख, रिश्तेदारो से सुख, शाही स्थानो मे रहने का आनन्द, शत्रुओ का नाश, ज्ञान और विद्या की प्राप्ति देता है। लज्जित ग्रह ईश्वर से विमुखता, बुद्धिमत्ता की हानि, संतान हानि, बुरे भाषणो मे रूचि और अच्छी बातो से उदासीनता देता है। क्षोभित ग्रह तीव्र क्रोध, दुष्ट स्वभाव, दुःख, आर्थिक दुर्बलता, पैरो मे पीड़ा, शाही क्रोध का कारण, आय मे बाधा का कारण होता है।

क्षुदित ग्रह के कारण पतन, दुःख, आवेश, रिश्तेदारो के कारण दुःख, शत्रुओ से परेशानी, वित्तीय संकट, शारीरिक शक्ति की हानि और दुःख के कारण मानसिक ग्रहण होता है। तृषित अवस्था मे ग्रह हो तो महिलाओ से दुष्ट कर्मो के सम्बन्ध के कारण रोग,  धन नुकसान, शारीरिक कमजोरी, ख़राब लोगो द्वारा दुःख सम्मान की क्षति होती है।

ग्रहो की विशिष्टावस्था : महर्षि पराशर व अन्य ऋषियो ने नक्षत्र मे स्थति अनुसार ग्रहो की अवस्था निश्चित करके फलादेश की विधि बताई है। इन अवस्थाओ का अन्य प्रकार की अवस्थाओ से सर्वोच्च महत्व है। मानव जीवन की दैनिक चर्या पर गणितागत बारह अवस्थाऐ मानी गई है। इनका फलित में बहुत महत्व है तथा फलकथन भी सरल व सटीक हो जाता है। इन्हे मनोदशा अवस्था भी कहते है। 

 

ये अवस्थाऍ है :-

 

(1) ग्रह अवस्था ज्ञान – जो गृह जिस नक्षत्र पर हो उसकी संख्या ज्ञात करे, ग्रह की संख्या मे नक्षत्र की संख्या का गुना करे। गुणनफल को ग्रह के अंशो (गृह जितने अंश पर हो) से गुना करे।  गुणनफल मे जन्म इष्ट घटी, जन्म नक्षत्र की संख्या और जन्म लग्न की संख्या जोड़ दे।  योगांक (योगफल) को 12 से भाग देने पर जो शेष बचे उसी अंक के उपरोक्त अनुसार अवस्था होगी। ग्रहो की संख्या इस प्रकार है :-  सूर्य = 1, चंद्र = 2, मंगल = 3, बुध = 4, गुरु = 5, शुक्र = 6, शनि = 7, राहु = 8, केतु = 9.

नक्षत्रो की संख्या इस प्रकार है :-  1 अशवनी, 2 भरणी, 3 कृतिका, 4 रोहिणी, 5 मृगशीर्ष* 6 आर्द्रा, 7 पुनर्वसु, 8 पुष्य, 9 आश्लेषा 10 मघा, 11 पूर्वा फाल्गुनी, 12 उत्तरा फाल्गुनी, 13 हस्त, 14 चित्रा, 15 स्वाति, 16 विशाखा, 17 अनुराधा, 18 ज्येष्ठा, 19 मूल, 20  पूर्वाषाढ़ा, 21 उत्तराषाढ़ा, 22 श्रवण, 23 घनिष्ठा* 24 शतभिषा* 25 पूर्वा भाद्रपद, 26 उत्तरा भाद्रपद, 27 रेवती।

उदहारण :-सूर्य उत्तराषाढ़ा नक्षत्र की संख्या 21, ग्रह सूर्य की संख्या 1 से गुना किया तो गुणनफल 21 हुआ। अब गुणनफल मे ग्रह अंश 26 का गुणा किया तो गुणनफल 546 हुआ। गुणनफल में जन्म इष्ट घटी 26 तथा जन्म नक्षत्र अनुराधा की संख्या 17 और जन्म लग्न की संख्या 3 जोड़ा तो योग 592 हुआ।  इस योगफल को 12 से भाग करने पर शेष 4 बचे यानि सूर्य प्रकाश अवस्था में हुआ। इसी प्रकार अन्य ग्रहो की अवस्था ज्ञात करे।

 

(2) ग्रह अवस्था का ज्ञान – ग्रह जिस नक्षत्र मे हो उसकी संख्या से ग्रह की संख्या का गुणा करे। गुणनफल को ग्रह जिस नवांश मे हो उस नवांश क्रम की संख्या से गुना करे। गुणनफल मे इष्ट घटी, जन्म नक्षत्र की संख्या, और जन्म लग्न की संख्या जोड़े। योगांक को 12 से भाग दे, जो शेष बचे उसी अंक के अनुसार अवस्था होगी।

उदहारण – सूर्य उत्तराषाढ़ा नक्षत्र की संख्या 21 मे ग्रह की संख्या 1 का गुना किया तो गुणनफल 21 हुआ। इसमे ग्रह के नवांश क्रम आठ का गुना किया तो गुणनफल 168 हुआ।  गुणनफल में जन्म इष्ट घटी 26 तथा जन्म नक्षत्र अनुराधा की संख्या 17 व जन्म लग्न की संख्या 3 को जोड़ा तो योग 214 हुआ। योगफल को 12 से भाग देने पर शेष 10 बचे, यानि सूर्य नृत्यलिप्सा अवस्था में हुआ।

 

 टिप्पणी :- महर्षि पराशर ने बृहत्पाराशर होराशास्त्र  के 45 वे अध्याय मे ग्रहो की विभिन्न प्रकार की अवस्थाओ का वर्णन करते विशिष्टावस्था के स्पष्ट करने की इसी दूसरी विधि का उल्लेख किया है। और इसीमे इन अवस्थाओ की उपअवस्था को स्पष्ट करने की विधि बताई है।

 टिप्पणी :- ग्रह की विशिष्ट अवस्था स्पष्ट करने की विधि मे नवांश क्रम की संख्या लेने के बजाय ग्रह के अंश लेने के पक्ष मे है किन्तु यह धारणा गलत है। बलभद्र होराशात्र के अध्याय 3 मे स्वयं आचार्य बलभद्र ने उदहारण देते हुए सूर्य को सिंह के सप्तम नवांश का उल्लेख किया है। अतः नवांश क्रम संख्या ही लेवे।

 टिप्पणी :- उपरोक्त विधियो से सूर्य की अवस्था में अंतर है।  किस विधि को ग्राह्य किया जाय ?  यह ज्योतिर्विद के स्वविवेक पर निर्भर है। उदहारण मे सूर्य का फल दोनो अवस्था मे आंशिक ठीक है।

 उपविशिष्टावस्था – विशिष्ट अवस्थाओ की प्रत्येक की तीन उप अवस्थाए भी आचार्यो ने बताई है। ये चेष्टा, दृष्टि और विचेष्टा है। चेष्टा उप अवस्था मे गृह का प्रभाव पूर्ण, दृष्टि अवस्था मे मध्यम और विचेष्टा अवस्था मे नगण्य होता है।

ग्रह उप अवस्था ज्ञान – ग्रह की विशिष्ट अवस्था अंक से उसी अंक का परस्पर गुना करे। गुणनफल को जातक के नाम के पहले शब्द के अंक  मान को जोड़े।  योगफल को 12 से भाग दे। शेष को ग्रह योजक (सूर्य = 05, चंद्र = 02, मंगल = 02, बुध = 03, गुरु = 05, शुक्र = 03, शनि = 03, राहु (केतु) = 04) से योग करे।  योगांक को 3 से भाग दे यदि शेष 1 बचे तो दृष्टि अवस्था, 2 बचे तो चेष्टा अवस्था और 0 बचे तो विचेष्टा अवस्था होगी।

अंक मान – 

 

1 = ध्वनि अ, क, च, ए, ध, भ और व।

2 = इ, ख, ज, न, म और श।

3 = उ, ग, झ, त, प, य, और ष।        

4 = ऐ, घ, ट, थ, फ, र और स।

5 = ओ, के, द, ब, ल और ह।

विशिष्ट अवस्था फलादेश  :-

सूर्यावस्था फल :-

(1) शयनावस्था मे हो तो अपच, पित्तशूल, मोटे पैर,  अनेक रोग, गुदा मे व्रण, हृदयाघात  होता है।

(2) उपवेशनावस्था मे हो तो श्रमिक, गरीब, मुकदमो मे लिप्त, कठोर व दुष्ट, दायित्वहीन होता है।

(3) नेत्रपाणि मे सूर्य  5, 7, 9, 10 भावो मे हो तो सुखी, धनी, विद्वान् होता है। यदि अन्य भावो मे हो तो क्रूर स्वभाव, नेत्ररोगी, क्रोधी, द्वेषशील व पानी के रोगो से पीड़ित होता है।

(4) प्रकाशनावस्था मे हो तो धार्मिक, दानी, सुखी, राजसी ठाट वाला  होता है।

(5) गमनावस्था मे हो तो  बाहर रहने वाला, पैरो में कष्ट, निद्रा  भय युक्त होता है।

(6) आगमनावस्था मे हो तो क्रूर, दुर्बुद्धि, परस्त्रीरत, कंजूश होता है। यदि सूर्य 7, 12 स्थान मे हो तो पत्नी या पुत्र नष्ट होते है अर्थात मृत्यु होती है।

(7) सभावास मे हो तो जातक हुनरमंद विद्वान्, सदाचारी वक्ता होता है।

(8)  आगमावस्था मे हो तो मनुष्य दुखी, कुरूप किन्तु धनाढ्य होता है।

(9) भोजनावस्थामे हो तो स्त्री पुत्र धन से हीन, जोड़ो मे दर्द से पीड़ित, सिर में पीड़ा, असदाचारी होता है।

(10) नृत्यलिप्सा में हो तो सुन्दर, चतुर लेकिन सिर, पेट, हृदय पीड़ा से पीड़ित, धनी होता है।

(11) कौतुक अवस्था – प्रसिद्ध पुत्र वाला, सुखी, पत्नी सुखी, अधिक बोलने वाला होता है लेकिन त्वचा रोगी व क्रोधी होता है।  यह  सूर्य  5 7 भाव में हो तो स्त्री व पहली संतान की हानि होती है, सभा मे संकोच करता है।  षष्ट भाव मे हो  तो शत्रुओ का नाश होता है।

(12) निद्रावस्था मे हो तो प्रवासी, गुदा व लिंग रोगी, दरिद्र, विकलांग, सुख से वंचित होता है।

चन्द्रावस्था फल

 

 

1 शयनावथा मे जातक स्वाभिमानी, सर्दी से पीड़ित, कामुक व धन नाशक होता है। यदि चंद्र लग्न मे हो तो गुप्त रोगी होता है। कृष्ण पक्ष का चन्द्रमा हो तो मनुष्य बहुत दिखावा करने वाला बहुभक्षी अर्थात भुक्कड़, लोभी व पर निंदक होता है।

2 उपवेशनावस्था मे जातक रोगी, निर्धन, चालक, मंदबुद्धि, बेकार के कामो मे लगा रहता है।

3 नेत्रपाणि अवस्था में जातक दीर्घ रोग वाला, दुष्ट, अधिक बोलने वाला कुकर्मी होता है।

4 प्रकाशनावस्था मे शुक्ल पक्ष में अष्टमी के बाद का जन्म हो तो धनी, मजबूत शरीर वाला, तीर्थ यात्री होता है। कृष्णपक्ष में जन्म हो तो अपेक्षाकृत कम फल होता है।

5 गमनावस्था मे कृष्णपक्ष का जन्म हो तो प्रवासी, निर्धन, क्रूर कार्य करने वाला, नेत्ररोगी होता है। शुक्लपक्ष मे विपरीत फल होता है लेकिन भयभीत रहता है।

6 आगमनावस्था जातक स्वाभिमानी, पैरो मे कष्ट वाला, गुप्त पापी, अपने मे मग्न रहने वाला, मायावी होता है।

7 सभावास अवस्था मे चंद्र हो तो जातक दानी, धार्मिक, प्रतिष्ठित होता है।

8 आगमावस्था मे जातक वाचाल, धार्मिक होता है। कृष्णपक्ष का चन्द्रमा हो तो दो पत्नियों वाला व अधिक पुत्रियो वाला होता है।

9 भोजनावस्था मे पुष्ट चंद्र हो तो धनी, सुखी, स्त्री सुख, वाहन युक्त होता है और क्षीण चंद्र हो तो जल व सर्प से भय होता है।

10 नृत्यलिप्सा मे दीर्घ (पूनम की ओर) चंद्र हो तो शक्तिशाली, दानी, भोगी व सम्मानित, गीत-संगीत मे रुचिवान  होता है। क्षीण चंद्र हो तो रोगी, निर्बल, प्रवाशी होता है।

11 कौतुकावस्था मे धनी, दानी, पुत्रवान, राजा या राजातुल्य, अनेक विषयो का ज्ञाता होता है।

12 निद्रावस्था मे पापी, रोगी, पुत्र शोक से दुःखी, मारा-मारा फिरता है। दशम में चन्द्रमा हो तो उक्त फल विशेषतया मिलता है  अन्यथा कम होता है और वह प्रवाशी और शूल रोगी होता है। 5 7 वे भाव में इस अवस्था में चंद्र सदा शुभ होता है। राहु युक्त हो तो जातक में बहुत दोष होते है।

 

मंगल अवस्था का फल :-

 

१ शयनावस्था मे हो तो जातक चोट खाने वाला होता है।  लग्न में हो तो त्वचा रोगी होता है पंचम में हो तो पहली संतान की हानि और सप्तम मे हो तो पत्नी की हानि होती है। 5 7 भाव मे शत्रु दृष्ट या शनि राहु युक्त हो तो हाथ कान या सिर काटने के योग होते है।

२ उपवेशन मे हो तो मनुष्य निकृष्ट, धनी, पापी होता है। लग्न मे हो तो यह फल विशेषतया होता है। 9 या 10 वे भाव हो तो स्त्री-पुत्र का नाश होता है।

३ नेत्रपाणि अवस्था मे मंगल लग्न मे हो तो कुल द्वारा त्यक्त पीड़ित, दरिद्री होता है। 2, 7 भाव  मे हो तो पत्नी की मृत्यु होती है। अन्य भावो मे सब सुख होता है।

४ प्रकाशनावस्था मे धनी, तुनुक मिजाज, बुद्धिमान, बायीं आंख मे चोट खाने वाला, भयंकर ढंग से गिरता है। यदि मंगल पापयुक्त हो तो दारुण पाप करने वाला और मंगल 5 7 भाव में हो तो स्त्री पुत्र नष्ट होते है।

५ गमनावस्था मे स्त्री से कलह, निर्धनता, गुदा रोग, शरीर पर चोट खाने वाला होता है।

६ आगमनावस्था मे लग्न मे हो तो दुःखी, प्रवासी, साधारण नौकरी करने वाला, अधिक बोलने वाला, जनाने वस्त्र पहिनने वाला, त्वचा व नेत्र रोगी, दांत व सिर पीड़ा से ग्रसित होता है। अन्य स्थानो पर शुभ फल होता है लेकिन स्वास्थ्य ख़राब रहता है।

७ सभावास मे सम्पत्तिवान, धार्मिक, धैर्यशाली, मनोबल से युक्त, धर्म कार्यो में अग्रणी होता है। यदि मंगल उच्च का हो तो ये फल विशेषतया होते है। यही मंगल 9 या 5 वे भाव  मे हो तो क्रमशः भाग्य हीन व विद्या हीन होता है। अन्य स्थनो मे मंगल निर्बल हो तो सभा में सम्मान पाने वाला, वृद्धावस्था मे पुत्र से दूर रहने  वाला होता है।  यदि मंगल बलि हो तो सब मंगल होता है।

८ आगमावस्था मे जातक कार्यकुशल, धनी, ढीला स्वास्थ्य , दानी, भोगी, यशस्वी होता है।

९ भोजनावस्था मे बलवान मंगल हो तो मिष्ठान प्रिय, अपमानित व तिरष्कृत सा जीवन व्यतीत करने वाला, महाक्रोधी, धनी होता है। पंचम या अष्टम भाव मे यही मंगल हो तो जानवर से मृत्यु होती है।

१०  नृत्यलिप्सा मे हो तो राजपक्ष से लाभ, दानी, भोगी व सुखी होता है। मंगल 12 वे भाव में हो तो पुत्र नष्ट हो जाते है।  8 या 9 वे भाव मे हो तो अनेक दुःख वाला, अपमृत्यु के भय से युक्त होता है।  1, 2, 7, 10 भावो मे यही मंगल सब सुख देता है।

११  कौतुकावस्था मे जातक मित्रो, पुत्रो, स्त्रियो से युक्त, सम्पत्तिशाली, कन्या संतति की अधिकता वाला, दो पत्नियो वाला होता है।

१२  निद्रा अवस्था मे जातक धनहीन, मूर्ख, गुस्सैल, भ्रष्ट होता है। यदि 5, 7 स्थान मे हो तो बहुत संतान व बहुत दुःख होता है। राहु व मंगल की युति प्रथम संतान को नष्ट करती है।

 

बुध अवस्था फल :-

 

 शयन अवस्था मे बुध मिथुन या कन्या मे हो तो अधिक भूख वाला यानि भुक्कड़, विकलांग, बटन जैसी छोटी आँख वाला, होता है।  अन्य राशियो मे धूर्त और लम्पट होता है।

 उपवेशन अवस्था मे मनुष्य बोलने मे चतुर, गुणी, कविता शक्ति युक्त, गोरा, सदाचारी होता है। यही बुध पाप युक्त या शत्रु दृष्ट हो तो महा पापी होता है। यही बुध मित्र युक्त या स्वग्रही हो तो सब सुख देता है।

  नेत्रपाणि अवस्था मे बुध हो तो जातक के पैरो मे रोग, विद्या विनय से हीन, याचकवत जीवन व्यतीत होता है। उसका पुत्र भी नष्ट होता है। यदि यही बुध पंचम मे हो तो स्त्री-पुत्र सुख से रहित, बहु कन्याओ वाला होता है।

 प्रकाशनावस्था मे बुध हो तो जातक दानी, विद्वान्, वेदार्थ का ज्ञाता होता है।

 गमनावस्था में कार्य कुशल, लालची, स्त्री के वशीभूत, दुष्ट पत्नी वाला, या योग साधक होता है। ऐसा जातक दांतो की खराबी वाला, कामुक, बहुभाषी व दुःखी होता है।

 आगमनावस्था मे जल विकारी, व्यापारी, स्त्री व बंधुओ रहित, सर्प भय युक्त, बेहाल होता है।

 सभावास अवस्था मे जातक धनी, धार्मिक, पुण्यशील, जनसमर्थन प्राप्त करने वाला होता है। 5. 12 भाव में हो तो कन्या संतान अधिक होती है। सप्तम मे हो तो सब कुछ पाने वाला, दबंग, कुछ सांवला या  त्वचा मे झुलसने जैसे निशान वाला होता है।

 आगमावस्था मे पापी, नीच संगति से धन कमाने वाला, दो पुत्रो वाला, मूत्र रोगी होता है।

 भोजनावस्था मे बुध हो तो जातक वाद-विवाद के कारण धन हानि उठाने वाला, राजमद, सिर के रोग, द्वेषयुक्त, चंचल बुद्धि वाला होता है।

 नृत्यलिप्सा अवस्था मे धनी, विद्वान, कवि, सम्मानित, वाहनो वाला, प्रसन्नचित्त व सुखी होता है। यदि पाप क्षेत्र मे हो तो वेश्या प्रेमी होता है।

 कौतुकावस्था मे बुध हो तो जातक सर्वप्रिय, संगीतज्ञ, त्वचा विकारी होता है। ऐसा बुध 8 या 10 भाव मे हो तो पुत्रहीन और अनेक कन्याओ वाला होता है। 7 या 9 भाव में हो तो वैश्या प्रेमी होता है। 9 या 10 भाव में हो तो ऐसा बुध बहुत शुभ होता है।

 निद्रा अवस्था मे दीर्घ अवधि का रोग होता है। जातक अल्पायु, धनहानि उठाने वाला, दुखी होता है। 1 या 10 भाव मे हो तो उक्त फल अशुभ होते है। अन्य स्थानो पर शुभ फल होता है।

 

गुरु अवस्था फल :-

 

 शयनावस्था मे कमजोर आवाज वाला, दुःखी, अत्यधिक गोरा, लम्बी ठुड्डी वाला, शत्रुओ से भयभीत रहता है। 1, 5, 9, 10 भाव हो तो जातक धनी, विद्वान् व सदाचारी होता है।

 उपवेशन अवस्था  मे दु:खी, वाचाल, राजा के शत्रु से भयभीत, मुख, हस्त, पद मे व्रण होता है। 2, 3, 11, 12 भाव मे गुरु  जातक गुणवान, अनेक विषयो मे रुचिवान होता है।

 नेत्रपाणि अवस्था मे सिर रोग, धनी, नीच वर्ग से प्रेम करने वाला, पग-पग पर काम मे रूकावट झेलने वाला होता है। संगीत व नृत्य प्रेमी, श्रेष्ठ लक्ष्मी विहीन होता है।  ऐसा गुरु 6, 8, 9 स्थानो मे हो तो शत्रुओ को नाश होता है और तीर्थ स्थान मे मृत्यु होती है। प्रकाशनावस्था मे गुणी धनी होता है। 1, 10  भाव मे ऐसा गुरु जातक को जगत गुरु या सम्राट बनता है।  अन्य स्थानो मे उच्चादि हो बहुत शुभ  होता है।  यदि नीचादिगत हो तो गुप्त यानि यौन रोग होता है।

 गमनावस्था मे हो तो जातक लोभी, पापी, नौकरी करने वाला, प्रवासी, धनाढ्य होता है।  उक्त फल यदि 1, 3, 4, 6, 8, 9, 11, 12 भाव में हो तो विपरीत फल होता है।

 आगमनावस्था मे हो तो जातक अच्छी पत्नी वाला, धनी गुणी एवम लोकप्रिय  होता है।

 सभावास अवस्था मे गुरु हो तो जातक राजा का सेवक या सहयोगी, या शासकीय कर्मचारी, विद्वान्, कुशल वक्ता, अच्छी आमदानी वाला होता है। यदि ऐसा गुरु केंद्र मे बलवान हो तो उक्त फल अवश्य होता है। यदि ऐसा गुरु 12 भाव मे हो जातक दु:खी व सर्वश्व हानि वाला होता है।

 आगमावस्था मे हो तो जातक अच्छी पत्नी वाला, धनी, गुणी, एवं लोकप्रिय होता है।

 भोजनावस्था मे मांस भक्षण में रूचि रखने वाला, बहुत महत्वाकांक्षी, धनी, कामुक होता है। 5, 9 वे भाव में हो तो उक्त फल के साथ संतान सुख भी होता है।  अन्य भाव में हो तो अनेक रोग होते है।

 नृत्यलिप्सा अवस्था मे हो तो राजमान्य, धनवान, धर्मतत्व को जानने वाला, विद्वान्, कुशल वक्ता, पुत्रवान होता है। ऐसा गुरु 1, 5, 9, 10  वे भाव मे हो तो उक्त फल अवश्य होते है। अन्यथा साधारण फल होते है।

 कौतुकावस्था  मे गुरु हो तो जातक धनी, अपने कुल मे अग्रगण्य, ऐश्वर्यशाली, कुशल वक्ता, पुत्रवान होता है। लेकिन गुरु 6, 9, 12  भाव मे हो तो उक्त फल नही होते है।

   निद्रा अवस्था मे गुरु हो तो जातक निर्धन, मूर्ख, बढ़ोतरी रहित होता है। लेकिन गुरु 1, 2, 8 वे भाव मे हो तो जातक धनवान होता है।

 

शुक्र  अवस्था फल :-

 

[1] शयनावस्था मे शुक्र हो तो क्रोधी, दन्त विकारो से पीड़ित, निर्धन, दुष्टाचारी होता है। 7 या 11 भाव मे ऐसा शुक्र सब सुख प्रदाता होता है। अन्य स्थानो मे राजमान्य, धनी, सुखी, लेकिन पुत्र शोक वाला होता है।

[2] उपवेशनावस्था मे बलवान, धार्मिक, धनाढ्य, दाये भाग मे चोट, जोड़ो में दर्द वाला होता है। यह शुक्र उच्चवत या मित्रगत या स्वगृही हो तो सदा अच्छे फल मिलते है।

[3] नेत्रपाणी अवस्था मे 1, 7, 10 वे भाव मे हो तो जातक दृष्टि हीन हो जाता है। ऐसा शुक्र दशम में हो तो नेत्र के साथ सर्वनाश  होता है। अन्य स्थान मे जातक साहसी, स्वाभिमानी, राजकर्मचारी, बड़े भवन का स्वामी होता है।

[4] प्रकाशनावस्था  में काव्यशास्त्री, संगीत का पारखी, धनी, धार्मिक, वाहन युक्त होता है।  1, 2, 7, 9 वे भाव मे हो उच्च का हो तो राजसत्ता का कारक होता है।

[5] गमनावस्था में शुक्र हो तो जातक की माता जीवित नही रहती है। उसे मानसिक पीड़ा, बचपन मे रोग व वियोग होता है।

[6] आगमनावस्था मे शुक्र हो तो जातक के पैरो मे रोग लेकिन धनी व प्रसिद्ध होता है।

[7] सभावास अवस्था में जातक राजा का विश्वासपात्र, धनी, सब कामो मे कुशल, दर्द से पीड़ित होता है।  यदि शत्रु युक्त या शत्रु क्षेत्री  हो  तो अनेक मुसीबते आती है।

[8] आगमावस्था मे बड़ी धन हानि, भयभीत, पुत्र शोक, स्त्री सुख मे कमी होती है। यदि 2, 4, 8, 10 भाव मे हो तो शुभ फल होते है।

[9] भोजनावस्था मे शुक्र हो तो कमजोर पाचन, पराई नौकरी, बहुत धन कमाने वाला होता है।

[10] नृत्यलिप्सा अवस्था मे जातक कुशल वक्ता, विद्वान्, कवि, धनी, कामुक, अनेक स्त्रियो प्यारा होता है। लेकिन ऐसा शुक्र नीचगत हो तो महामूर्ख होता है।

[11] कौतुकावस्था में जातक अनेक सुखो युक्त, सदा प्रसन्न रहने वाला, कुशल वक्ता, कई पुत्रो वाला, स्त्री सुखी, लोक से हटकर कार्य करने वाला. मनोबल युक्त होता है।

[12] निद्रा अवस्था मे शुक्र हो तो जातक पराया नौकर, परनिंदक, वाचाल, बैचेन रहने वाला होता है। ऐसा शुक्र 5, 7 वे भाव मे हो तो जातक अपना नाश स्वयं कर लेता है।

 

शनि अवस्था फल :-

 

 शयनावस्था मे जातक भूख प्यास से पीड़ित, जवानी तक रोगी बाद मे सुखी होता है।

 उपवेशनावस्था मे जातक मोटे और सूजन पैरो वाला, त्वचा विकारी और राजपीड़ित होता है।

 नेत्रपाणि अवस्था मे शनि हो तो जातक मूर्ख होते हुए भी विद्वान् समझा जाने वाला, सम्पत्तिशाली, पित्तरोगी, अग्नि व जल के भय से युक्त, सिर, गुदा, जोड़ो के दर्द से पीड़ित होता है। 1, 10 भाव में ऐसा शनि हो तो  कम धन अर्थ अल्प अर्थ होता है।

प्रकाशनावस्था मे जातक राजा का विश्वास पात्र, धार्मिक, सदाचारी होता है। लेकिन ऐसा शनि 1, 7 भाव मे हो तो सारे परिवार का नाश हो जाता है।

 गमनावस्था, मे शनि हो तो जातक महा धनी, पुत्रवान, गुणी, दानी, श्रेष्ठ होता है।

 आगमनावस्था मे शनि हो तो जातक पाद रोगी, क्रोधी, कंजूस, दांत पीसने वाला होता है।

सभावस्था मे जातक पुत्र व धन से युक्त, सदा सीखने को तत्पर, रत्नो से युक्त होता है। ऐसा शनि षष्ठ मे शत्रु दृष्ट हो तो सर्वनाश होता है।

आगमावस्था मे जातक क्रोधी और रोगी होता है। यदि ऐसा शनि लग्न मे हो तो जातक  भाई की मृत्यु होती है और स्वयं सांप आदि विषय से भयभीत होता है।  2, 3, 5, 7 भावो में ऐसा शनि हो तो इन भावो की वृद्धि करता है अर्थात द्वितीय मे धन, तृतीय में भाई,  पंचम में पुत्र, सप्तम मे स्त्री सुख देता है। लेकिन नवम भाव मे ऐसा शनि बाधाऐ खड़ी करता है।

भोजनावस्था मे शनि हो तो पाचन की कमजोरी नेत्र रोग, बबासीर, हृदयशूल देता है।  लेकिन उच्चगत हो तो सब सुख देता है।

 नृत्यलिप्सा अवस्था मे हो तो जातक धनी, धार्मिक, सम्पत्तिशाली, सुखी होता है। लेकिन पंचम मे हो तो सब संतान या पुत्रो को नष्ट कर देता है।

 कौतुकावस्था मे शनि हो तो जातक सत्ताधारी के निकट, धनी, भोगी, विद्वान् व चतुर होता है।  लेकिन 5, 7, 9, 10 भाव मे हो तो सब जगह असफलता  है।

 निद्रा अवस्था में हो तो जातक धनी विद्वान्, सदाचारी, नेत्ररोगी, पित्तशूल वाला, कई पुत्रो और दो स्त्रियो वाला होता है। दशम में हो तो सब व्यापार चौपट हो जाता है। त्रिकोण मे उच्चगत या केंद्र में स्वगृही हो तो सब प्रकार से शुभ फल होता है।

 

राहु अवस्था का फल :-

 

 शयनावस्था मे राहु मिथुन, वृषभ, सिंह राशियो को छोड़कर स्थित हो तो क्लेश व दुःख देता है। यदि इन राशियो मे हो तो सब सुख देता है।

 उपवेशनावस्था मे हो तो त्वचा रोग, धनहानि, घमंड, पैरो मे कष्ट देता है।

 नेत्रपाणि अवस्था मे हो तो जातक नेत्र रोगी होता है। इसे हमेशा धन हानि होती रहती है। व्यापार मे विघ्न, स्त्रियोचित वेशभूषा, बहुत भाषण देने वाला होता है।

 प्रकाशनावस्था मे राहु हो तो जातक देशाटन करने वाला, विदेशो मे घूमने वाला, उत्साही व राजकर्मचारी होता है। यदि कर्क या सिंह राशि मे हो तो भयानक चोट लग सकती है।

 गमनावस्था में जातक बहुत संतान वाला, विद्वान्, धनी, राजमान्य लेकिन रोग पीड़ित होता है।

 आगमनावस्था मे जातक क्रोधी, धनहानि उठाने वाला, बुद्धिहीन, कंजूस, चालाक होता है।

  सभावास अवस्था मे विद्वान्, कंजूस, गुणवान, धार्मिक होता है। लेकिन 1, 5, 10 भाव मे ऐसा राहु हो तो स्त्री पुत्र और धन का नाश करता है।

  आगमावस्था मे राहु हो तो जातक दुःखी व कलह पीड़ित होता है।

 भोजनावस्था मे हो तो भोजन से परेशानी होती है। जातक विकलांग, मंदबुद्धि, स्त्री पुत्र सुख से वंचित होता है। 1, या 2 भाव में हो तो अच्छा कुलीन जातक भी पतित होता है। 7, 10 भाव मे हो तो स्त्रीहन्ता होता है।

नृत्यलिप्सा अवस्था मे लग्नगत राहु हो तो बड़ी बीमारी, धन व धर्म की हानि, नेत्रों मे बाधा होती है। अन्य भाव मे धन. स्त्री और पुत्र सुख प्राप्त होता है।

कौतुकावस्था में राहु 5, 7, 10 वे भाव में हो तो जातक गुणवान, धनी, पित्तरोगी होता है। अन्य भावो मे हो तो दुःख भोगता है।

 निद्रा अवस्था मे शोकाकुल, धनी, स्त्री-पुत्र युक्त होता है।

 

केतु अवस्था फल :-

 

¡  शयनावस्था मे मेष, वृषभ, मिथुन, कन्या राशि मे धन वर्धक. अन्य राशि मे रोग वर्धक होता है।

¡  उपवेशनावस्था में केतु हो तो जातक त्वचा रोगी शत्रु व राजा से पीड़ित होता है।

¡  नेत्रपाणि अवस्था मे केतु हो तो जातक रोगी, दुःखी, राजा से पीड़ित होता है।

¡  प्रकाशनावस्था मे केतु हो तो जातक धार्मिक धनाढ़्य, प्रवासी होता है।

¡  गमनावस्था मे केतु हो तो जातक पुत्रवान, गुणवान, धनवान होता है।

¡  आगमनावस्था मे जातक रोगी, धनहानि उठाने वाला, दांतो मे पीड़ा वाला होता है।

¡  सभावास अवस्था मे वचाल, घमंडी, धूर्त, निर्दयी , लालची होता है।

¡  आगम अवस्था में जातक पापकर्म करने वाला, बंधुओ से विवादी, शत्रु व रोग पीड़ित होता है।

¡  भोजनावस्था मे जातक भूख से पीड़ित, दरिद्री, रोगी, यत्र-तत्र भटकने वाला, होता है।

¡  नृत्यलिप्सा अवस्था मे रोग से विकलांग, चिपचिपी आँखों वाला, धूर्त स्वाभाव होता है।

¡  कौतुकावस्था मे अभिनेत्री या नर्तकी का प्रेमी, स्तरहीन, दुराचारी होता है।

¡  निद्रा अवस्था मे केतु हो तो धन-धान्य से पूर्ण, कलाविद होता है।

 

शुभ व पाप (हानिकर) ग्रह सामान्य फल :-

 

 शुभ ग्रह शयनावस्था मे जहा बैठे हो उस भाव की वृद्धि करते है।

पाप ग्रह भोजनावस्था मे जहा स्थित हो उस भाव का नाश करते है।

 निद्रा अवस्था मे पापग्रह सप्तम मे शुभ है लेकिन अन्यत्र शुभ युत या दृष्ट या पाप युत या दृष्ट हो तो भी पत्नी नाशक होते है।

 पंचम भाव में निद्रा या शयन अवस्था मे पाप ग्रह शुभ है। लेकिन वह पाप ग्रह स्वोच्च या स्वक्षेत्री हो तो संतान नाशक होता है। शुभ दृष्ट होने पर भी एक संतान का नाशक होता है।

 अष्टम मे पापग्रह निद्रा या शयन अवस्था मे अकाल मृत्यु देते है।

 दशम मे पापग्रह, शयन या भोजन अवस्था मे हो तो जातक परम् दरिद्री, भाग्यहीन होता है।

 दशम मे शुभग्रह निद्रा या गमन अवस्था में हो तो भी दुःख दायक होता है।

 दशम मे चन्द्रमा कौतुक या प्रकाश अवस्था मे राजयोग कारक होता है।

 

ग्रहों कि विशेष दृष्टि एवम् फल:-

 

जन्मकुंडली में कोई भी ग्रह कहीं भी बैठा हो वह दूसरे ग्रह आदि पर दृष्टि डालता है तो उस दृष्टि का प्रभाव शुभ या अशुभ होता है। आप अपनी कुंडली के ग्रहों की स्थिति जानकर उनकी दृष्टि किस भाव या ग्रह पर कैसी पड़ी रही है यह जानकार आप भी उनके अशुभ प्रभाव को जान सकते हैं। जब तक आपको यह पता नहीं है कि कौन-सा ग्रह आपकी कुंडली में अशुभ दृष्टि या प्रभाव डाल रहा है तब तक आप कैसे उसके उपाय कर पाएंगे? अत: जानिए कि किसी ग्रह की कौन सी दृष्टि घातक होती है।

 

दृष्टि क्या होती है?

दृष्टि का अर्थ यहां प्रभाव से लें तो ज्यादा उचित होगा। जैसे सूर्य की किरणें एकदम धरती पर सीधी आती है तो कभी तिरछी। ऐसा तब होता है जब सूर्य भूमध्य रेखा या कर्क, मकर आदि रेखा पर होता है। इसी तरह प्रत्येक ग्रह का अलग-अलग प्रभाव या दृष्टि होती है।

 

किस ग्रह की कौन-सी दृष्टि?

*प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से सप्तम स्थान पर सीधा देखता है। सीधा का मतलब यह कि उसकी पूर्ण दृष्टि होती है। पूर्ण का अर्थ यह कि वह अपने सातवें घर, भाव या खाने में 180 डिग्री से देख रहा है। पूर्ण दृष्टि का अर्थ पूर्ण प्रभाव।

 

*सातवें स्थान के अलावा शनि तीसरे और दसवें स्थान को भी पूर्ण दृष्टि से देखता है। गुरु भी पांचवें और नौवें स्थान पर पूर्ण दृष्टि रखता है। मंगल भी चौथे और आठवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है।

 

*इसके अतिरिक्त प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से तीसरे और दसवें स्थान को आंशिक रूप से भी देखते हैं।

 

*कुछ आचार्यों ने राहु और केतु की दृष्टि को भी मान्यता दी है। राहु अपने स्थान सातवें, पांचवें और नवम स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है तो केतु भी इसी तरह देखता है।

 

*सूर्य और मंगल की उर्ध्व दृष्टि है, बुध और शुक्र की तिरछी, चंद्रमा और गुरु की बराबर की तथा राहु और शनि की नीच दृ‍ष्टि होती है।

 

वक्री ग्रह :

 

सूर्य और चंद्र को छोड़कर सभी ग्रह वक्री होते हैं। वक्री अर्थात उल्टी दिशा में गति करने लगते हैं। जब यह वक्री होते हैं तब इनकी दृष्टि का प्रभाव अलग होता है। वक्री ग्रह अपनी उच्च राशिगत होने के समतुल्य फल प्रदान करता है। कोई ग्रह जो वक्री ग्रह से संयुक्त हो उसके प्रभाव मे मध्यम स्तर की वृद्धि होती है। उच्च राशिगत कोई ग्रह वक्री हो तो, नीच राशिगत होने का फल प्रदान करता है।

 

इसी प्रकार से जब कोई नीच राशिगत ग्रह वक्री होता जाय तो अपनी उच्च राशि में स्थित होने का फल प्रदान करता है। इसी प्रकार यदि कोई उच्च राशिगत ग्रह नवांश में नीच राशिगत होने तो तो नीच राशि का फल प्रदान करेगा। कोई शुभ अथवा पाप ग्रह यदि नीच राशिगत हो परन्तु नवांश मे अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो वह उच्च राशि का ही फल प्रदान करता है।

 

फलादेश के सामान्य नियम:- लग्न की स्थिति के अनुसार ग्रहों की शुभता-अशुभता व बलाबल भी बदलता है। जैसे सिंह लग्न के लिए शनि अशुभ मगर तुला लग्न के लिए अतिशुभ माना गया है।

 

  1. कुंडली में त्रिकोण के (5-9) के स्वामी सदा शुभ फल देते हैं।
  2. केंद्र के स्वामी (1-4-7-10) यदि शुभ ग्रह हों तो शुभ फल नहीं देते, अशुभ ग्रह शुभ हो जाते हैं।
  3. 3-6-11 भावों के स्वामी पाप ग्रह हों तो वृद्धि करेगा, शुभ ग्रह हो तो नुकसान करेगा।
  4. 6-8-12 भावों के स्वामी जहां भी होंगे, उन स्थानों की हानि करेंगे।
  5. छठे स्थान का गुरु, आठवां शनि व दसवां मंगल बहुत शुभ होता है।
  6. केंद्र में शनि (विशेषकर सप्तम में) अशुभ होता है। अन्य भावों में शुभ फल देता है।
  7. दूसरे, पांचवें व सातवें स्थान में अकेला गुरु हानि करता है।
  8. ग्यारहवें स्थान में सभी ग्रह शुभ होते हैं। केतु विशेष फलदायक होता है।
  9. जिस ग्रह पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होती है, वह शुभ फल देने लगता है।
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