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ऋषि चिंतन - "उपासना" के साथ कामना न जोड़ें

ईश्वर की “उपासना” का वास्तविक प्रतिफल अंतर में स्थायी सुख, शांति और संतोष की वृद्धि होना माना गया है। यदि ऐसा नहीं होता है तो मानना होगा कि “उपासना” के स्वरूप में कोई कमी चल रही है। यहां पर “उपासना” के स्वरूप से आशय उपासना की विधि, सामग्री अथवा उसके स्थान आदि से नहीं है । उसका तात्पर्य उस मनोभाव से है, जो “उपासना” के आगे – पीछे उपस्थित रहता है। “उपासना”  में महत्त्व क्रिया-विधि अथवा साधन सामग्री का नहीं है, महत्त्व है— भावना का। यदि उपासक की भावना ठीक उपासना के अनुरूप है, तो निश्चय ही फलवती होगी। फल भावना के अधीन है, उपक्रम अथवा उपकरण के अधीन नहीं। मन्दिर का एक पुजारी दोनों समय जीवन भर आरती पूजा करता रहता है; पर उसका उसे कोई प्रतिफल नहीं मिलता। उसके जीवन का स्तर वही बना रहता है। उसके मानसिक विकास में कोई प्रगति नहीं होती। उसकी अशांति, असंतोष और आत्मिक अभाव ज्यों का त्यों बना रहता है। वह ठीक वैसा ही आदमी एक लंबी अवधि के बाद भी बना रहता है, जैसा कि वह पूजन क्रिया में आने से पूर्व था ।  इसका एक ही कारण है, वह यह कि उसकी उस क्रिया में वास्तविक उपासना की भावना नहीं होती। उसकी भावना मन्दिर के अधिकारियों की नौकरी करने की होती है। अस्तु वह नौकर मात्र ही रह जाता है। उपासक नहीं हो पाता।

इस बात को एक श्रमिक और एक पहलवान् के उदाहरण से भी समझा जा सकता है। दोनों शारीरिक श्रम करते हैं। पसीना बहाते हैं, शारीरिक श्रम का प्रतिफल शारीरिक विकास ही होता है; पर मजदूर मेहनत करता-फिरता घिस जाता है। उसका शरीर क्षीण होता जाता है पर पहलवान् उसी शारीरिक श्रम से शारीरिक विकास की ओर बढ़ता है। इसका एक मात्र कारण भावना के अन्तर्गत निहित है। मजदूर जब मेहनत करता है, तब उसकी भावना आजीविका के लिए किसी की मजदूरी करने की रहती है और मल्ल जब व्यायाम के रूप में शारीरिक श्रम करता है तो उसकी भावना शारीरिक विकास की ओर प्रगति करने की रहती है। इसी भावना के कारण मजदूर का शरीर क्षीण होता है और पहलवान् का विकसित । 

 “उपासना” की जाए और आन्तरिक विकास न हो, आत्म- सुख, आत्म-शान्ति और आत्म-सन्तोष में वृद्धि न हो यह सम्भव नहीं। यदि ऐसा नहीं होता तो मानना होगा कि उसमें निहित भावना अनुरूपिनी नहीं, विरूपिनी है। अवश्य ही ऐसा असफल उपासक ईश्वर के सामीप्य अथवा उसके निहित फल की भावना नहीं रखता। उसके हृदय में कोई अन्यथा भावना ही चलती रहती है।

 अधिकांश लोग जो उपासना के फल से वंचित रहा करते हैं, अपने मन में धन-सम्पत्ति आदि भौतिक लाभों की ही कामना रखते हैं। जिन उपलब्धियों का आधार अन्य प्रकार के भौतिक पुरुषार्थ हैं, उनको आध्यात्मिक आधार पर पाने की आशा उसी प्रकार से उपहासास्पद है, जिस प्रकार कोई आम के बीज बोकर संतरे की कामना करता है अथवा बम्बई की दिशा में चलकर कलकत्ते पहुँचना चाहता है। *भौतिक साधना का फल भौतिक और आध्यात्मिक साधना का आध्यात्मिक होगा, यह तो एक बड़ा ही स्थूल और निर्विवाद सत्य है।

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