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सूर्योपासना के नियम और आदित्य हृदय स्तोत्र

भगवान् सूर्य परमात्मा के ही प्रत्यक्ष स्वरूप है। ये आरोग्य के अधिष्ठातृ देवता है। मत्स्यपुराण (67971) का वचन है कि ‘आरोग्यं भास्करादिच्छेत्’ अर्थात् आरोग्य की कामना भगवान सूर्य से करनी चाहिए, क्योंकि इनकी उपासना करने से मनुष्य नीरोग रहता है। वेद के कथनानुसार परमात्मा की आँखों से सूर्य की उत्पत्ति मानी जाती है-चक्षोः सूर्योऽजायत । श्रीमद्भगवतगीता के कथनानुसार ये भगवान् की आँखें है-शशिसूर्यनेत्रम्। (11/16)

 

श्रीरामचरित मानस में भी कहा है-

नयन दिवाकर कच घन माला (6/15/3)

 आँखों के सम्पूर्ण रोग सूर्य की उपासना से ठीक हो जाते हैं। भगवान सूर्य में जो प्रभा है, वह परमात्मा की ही प्रभा है वह परमात्मा की ही विभूति है

प्रभास्मि शशिसूर्ययोः

 

(गीता 718)

 

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् । यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ।।

 

(गीता 15/12)

 

भगवान् कहते हैं- ‘जो सूर्यगत तेज समस्त जगत् को प्रकाशित करता है तथा चन्द्रमा एवं अग्नि में है, उस तेज को तू मेरा ही तेज जान इससे सिद्ध होता है कि परमात्मा और सूर्य- ये दोनों अभिन्न हैं। सूर्य की उपासना करने वाला परमात्मा की ही उपासना करता है। अतः नियमपूर्वक सूर्योपासना करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। ऐसा करने से जीवन में अनेक लाभ होते हैं। आयु, विद्या, बुद्धि, बल, तेज और मुक्ति तक की प्राप्ति सुलभ हो जाती है। इसमें संदेह नहीं करना चाहिए। सूर्योपासना में निम्न नियमों का पालन करना परम आवश्यक है।

 

  1. प्रतिदिन सूर्योदय के पूर्व ही शय्या त्यागकर शौच स्नान करना चाहिये।

 

  1. स्नानोपरान्त श्री सूर्य भगवान् को अर्घ्य देकर प्रणाम करें।

 

  1. सन्ध्या-समय भी अर्घ्य देकर प्रणाम करना चाहिये।

 

  1. प्रतिदिन सूर्य के 21 नाम, 108 नाम या 12 नाम से युक्त स्तोत्र का पाठ करें। सूर्यसहस्र नाम का पाठ भी महान लाभकारक है।

 

  1. आदित्य हृदय का पाठ प्रतिदिन करें।

 

  1. नेत्र रोग से बचने एवं अंधापन से रक्षा के लिये नेत्रोपनिषद (चाक्षुषोपनिषद्) का पाठ करके प्रतिदिन भगवान सूर्य को प्रणाम करें।

 

  1. रविवार को तेल, नमक और अदरख का सेवन नहीं करें और न किसी को करायें।

 

रविवार को एक ही बार भोजन करें। हविष्यान्न खाकर रहे। ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करें। उपासक स्मरण रखें कि भगवान श्रीराम ने आदित्य हृदय का पाठ करके ही रावण पर विजय पायी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने सूर्य के एक सौ आठ नामों का जप करके ही अक्षयपात्र प्राप्त किया था। समर्थ श्रीरामदास जी भगवान सूर्य को प्रतिदिन एक सौ आठ बार साष्टांग प्रणाम करते थे। संत श्रीतुलसीदास जी ने सूर्य का स्तवन किया था। इसलिये सूर्योपासना सबके लिये लाभप्रद है।

 

 

आदित्य हृदय स्तोत्र  –

 

भगवान सूर्य देव की प्रार्थना है । जो राम और रावण के साथ महायुद्ध से पहले सुनाई गई थी। इस प्रार्थना को महर्षि ऋषि अगस्त्य द्वारा सुनाई गयी थी। यह पूजन तब है जब आपकी राशि (जन्म कुंडली) में सूर्य ग्रहण लगा हो। इस परस्थिति में आपको अच्छे परिणाम के लिए, नियमित रूप से कर्मकाण्ड (पाठ,व्रत हवन आदि) करने होंगे। आदित्य हृदय स्तोत्र मन की शांति, आत्मविश्वास और समृद्धि देता है। इस प्रार्थना के पाठ से जीवन में आने वाली सभी बाधाएं दूर होती हैं। आदित्य हृदय स्तोत्र पूजा विधि से अनगिनत लाभ होते हैं। जिसके लिए आदित्य हृदय स्तोत्र के जप, पूजा पाठ हवन और व्रत रखे जाते हैं।. 

 

आदित्य हृदय स्तोत्र – हिंदी अनुवाद सहित

 

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्। रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्॥

 

01 अर्थ :- उधर श्रीरामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिंता करते हुए रणभूमि में खड़े हुए थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया।

 

 

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्। उपागम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवान् ऋषिः॥

 

02 अर्थ :- यह देख भगवान् अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे, श्रीराम के पास जाकर बोले।

 

 

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्। येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि॥

 

03 अर्थ :- सबके ह्रदय में रमन करने वाले महाबाहो राम! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो! वत्स! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे ।

 

 

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्। जयावहं जपेन्नित्यम् अक्षय्यं परमं शिवम्॥

 

04 अर्थ :- इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है ‘आदित्यहृदय’ । यह परम पवित्र और संपूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय कि प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्षय और परम कल्याणमय स्तोत्र है।

 

 

सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम्। चिन्ताशोकप्रशमनम् आयुर्वर्धनमुत्तमम्॥

 

05 अर्थ :- सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है। यह चिंता और शोक को मिटाने तथा आयु का बढ़ाने वाला उत्तम साधन है।

 

 

रश्मिमंतं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्। पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्॥

 

06 अर्थ :- भगवान् सूर्य अपनी अनंत किरणों से सुशोभित हैं । ये नित्य उदय होने वाले, देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान नाम से प्रसिद्द, प्रभा का विस्तार करने वाले और संसार के स्वामी हैं । तुम इनका रश्मिमंते नमः, समुद्यन्ते नमः, देवासुरनमस्कृताये नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराये नमः इन मन्त्रों के द्वारा पूजन करो।

 

 

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः। एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः॥

 

07 अर्थ :- संपूर्ण देवता इन्ही के स्वरुप हैं । ये तेज़ की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं । ये अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित समस्त लोकों का पालन करने वाले हैं ।

 

 

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः। महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः॥

 

08 अर्थ :- भगवान सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, महेंद्र, कुबेर, काल, यम, सोम एवं वरुण आदि में भी प्रचलित हैं।

 

 

पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः। वायुर्वह्निः प्रजाप्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः॥

 

09 अर्थ :- ये ही ब्रह्मा, विष्णु शिव, स्कन्द, प्रजापति, इंद्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरुण, पितर , वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुदगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रकाश के पुंज हैं ।

 

 

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्। सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः॥

 

10 अर्थ :- इनके नाम हैं आदित्य(अदितिपुत्र), सविता(जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य(सर्वव्यापक), खग, पूषा(पोषण करने वाले), गभस्तिमान (प्रकाशमान), सुवर्णसदृश्य, भानु(प्रकाशक), हिरण्यरेता(ब्रह्मांड कि उत्पत्ति के बीज), दिवाकर(रात्रि का अन्धकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले),

 

 

हरिदश्वः सहस्रार्चि: सप्तसप्ति-मरीचिमान। तिमिरोन्मन्थन: शम्भुस्त्वष्टा मार्ताण्ड अंशुमान॥

 

11 अर्थ :- हरिदश्व, सहस्रार्चि (हज़ारों किरणों से सुशोभित), सप्तसप्ति(सात घोड़ों वाले), मरीचिमान(किरणों से सुशोभित), तिमिरोमंथन(अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भू, त्वष्टा, मार्तण्डक(ब्रह्माण्ड को जीवन प्रदान करने वाले),

 

 

अंशुमान, हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः। अग्निगर्भोsदिते: पुत्रः शंखः शिशिरनाशान:॥

 

12 अर्थ :- हिरण्यगर्भ(ब्रह्मा), शिशिर(स्वभाव से ही सुख प्रदान करने वाले), तपन(गर्मी पैदा करने वाले), अहस्कर, रवि, अग्निगर्भ(अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख, शिशिरनाशन(शीत का नाश करने वाले),

 

 

व्योम नाथस्तमोभेदी ऋग्य जुस्सामपारगः। धनवृष्टिरपाम मित्रो विंध्यवीथिप्लवंगम:॥

 

13 अर्थ :- व्योमनाथ(आकाश के स्वामी), तमभेदी, ऋग, यजु और सामवेद के पारगामी, धनवृष्टि, अपाम मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले), विंध्यवीथिप्लवंगम (आकाश में तीव्र वेग से चलने वाले), आतपी मंडली

 

 

मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः। कविर्विश्वो महातेजाः रक्तः सर्वभवोद्भव:॥

 

14 अर्थ :- आतपी, मंडली, मृत्यु, पिंगल(भूरे रंग वाले), सर्वतापन(सबको ताप देने वाले), कवि, विश्व, महातेजस्वी, रक्त, सर्वभवोद्भव (सबकी उत्पत्ति के कारण),

 

 

नक्षत्रग्रहताराणा-मधिपो विश्वभावनः। तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्नमोस्तुते॥

 

15 अर्थ :- नक्षत्र, ग्रह और तारों के स्वामी, विश्वभावन(जगत कि रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी और द्वादशात्मा हैं। इन सभी नामो से प्रसिद्द सूर्यदेव ! आपको नमस्कार है।

 

 

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रए नमः। ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः॥

 

16 अर्थ :- पूर्वगिरी उदयाचल तथा पश्चिमगिरी अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है । ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है।

 

 

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाए नमो नमः। नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः॥

 

17 अर्थ :- आप जयस्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता हैं। आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं। आपको बारबार नमस्कार है। सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान् सूर्य! आपको बारम्बार प्रणाम है। आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से भी प्रसिद्द हैं, आपको नमस्कार है।

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः। नमः पद्मप्रबोधाय मार्तण्डाय नमो नमः॥

18 अर्थ :- उग्र, वीर, और सारंग सूर्यदेव को नमस्कार है । कमलों को विकसित करने वाले प्रचंड तेजधारी मार्तण्ड को प्रणाम है।

ब्रह्मेशानाच्युतेषाय सूर्यायादित्यवर्चसे। भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः॥

19 अर्थ :- आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी है । सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्यमंडल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाली अग्नि आपका ही स्वरुप है, आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है।

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने। कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषाम् पतये नमः॥

20 अर्थ :- आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं । आपका स्वरुप अप्रमेय है । आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, संपूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देवस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है।

तप्तचामिकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे। नमस्तमोsभिनिघ्नाये रुचये लोकसाक्षिणे॥

21 अर्थ :- आपकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के समान है, आप हरी और विश्वकर्मा हैं, तम के नाशक, प्रकाशस्वरूप और जगत के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है।

नाशयत्येष वै भूतम तदेव सृजति प्रभुः। पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः॥

22 अर्थ :- रघुनन्दन! ये भगवान् सूर्य ही संपूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं । ये अपनी किरणों से गर्मी पहुंचाते और वर्षा करते हैं।

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः। एष एवाग्निहोत्रम् च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम॥

23 अर्थ :- ये सब भूतों में अन्तर्यामी रूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं । ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं।

वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनाम फलमेव च। यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः॥

24 अर्थ :- वेदों, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। संपूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं।

एन मापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च। कीर्तयन पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव॥

25 अर्थ :- राघव! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता।

पूज्यस्वैन-मेकाग्रे देवदेवम जगत्पतिम। एतत त्रिगुणितम् जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि॥

26 अर्थ :- इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर कि पूजा करो । इस आदित्यहृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे।

अस्मिन क्षणे महाबाहो रावणम् तवं वधिष्यसि। एवमुक्त्वा तदाsगस्त्यो जगाम च यथागतम्॥

27 अर्थ :- महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे। यह कहकर अगस्त्यजी जैसे आये थे वैसे ही चले गए।

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोsभवत्तदा। धारयामास सुप्रितो राघवः प्रयतात्मवान ॥

28 अर्थ :- उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्धचित्त से आदित्यहृदय को धारण किया।

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परम हर्षमवाप्तवान्। त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान॥

29 अर्थ :- और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान् सूर्य की और देखते हुए इसका तीन बार जप किया । इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ । फिर परम पराक्रमी रघुनाथ जी ने धनुष उठाकर

रावणम प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत। सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोsभवत्॥

30 अर्थ :- रावण की और देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढे। उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया।

अथ रवि-रवद-न्निरिक्ष्य रामम। मुदितमनाः परमम् प्रहृष्यमाण:। निशिचरपति-संक्षयम् विदित्वा सुरगण-मध्यगतो वचस्त्वरेति॥

31 अर्थ :- उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान् सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की और देखा और निशाचरराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा – ‘रघुनन्दन! अब जल्दी करो’ । इस प्रकार भगवान् सूर्य कि प्रशंसा में कहा गया और वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड में वर्णित यह आदित्य हृदयम मंत्र संपन्न होता है।.

 

भारत के अत्यन्त प्रसिद्ध तीन प्राचीन सूर्य-मन्दिर

 

भारत में सूर्यपूजा, मन्दिर निर्माण, प्रतिमाआराधना आदि वैदिक कर्म अत्यन्त प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध है। नारदादि ऋषि सूर्यवंशी सूर्याराधक थे। द्वापर में भगवान कृष्ण एवं साम्ब के विशेष चन्द्रवंशी क्षत्रिय भी सूर्याराधक थे। इनमें साम्ब का विस्तृत चरित्र साम्बविजय, साम्ब-उपपुराण तथा वराह, भविष्य, ब्रह्म एवं स्कन्दादि महापुराणों में प्राप्त होता है। उन्होंने कुष्ठ रोग से मुक्ति के लिये मूल स्थान मुल्तान में सूर्य मन्दिर का निर्माण कराया एवं सूर्य की आराधना द्वारा उनकी कृपा प्राप्त कर रोग मुक्त हुए। सूर्य देव ने उन्हें अपनी प्रतिमा-लाभ एवं स्थापना की भी बात बतलायी। शीघ्र ही उन्हें चन्द्रभागा नदी में एक बहती हुई विश्वकर्मानिर्मित प्रतिमा भी मिली, जिसे उन्होंने मित्रवन में स्थापित किया। भगवान सूर्य ने साम्ब को फिर प्रातःकाल में सुतीर (मुण्डीर). मध्यान्ह में कालप्रिय (कालपी) तथा सायंकाल में मूलस्थान में अपने दर्शन करने की बात बतलायी

 

सांनिध्यं मम पूर्वान्हे सुतीरे द्रक्ष्यते जनः । कालप्रिये च मध्यान्हे परान्हे चात्र नित्यशः ।।

 

तदनुसार साम्ब ने उदयाचल के पास सुतीर में यमुना तट पर कालपी में तथा मूल स्थान (मूल्तान) में सूर्यप्रतिमाएँ स्थापित की। सुतीर की जगह स्कन्दपुराण में मुण्डीर पाठ प्राप्त होता है तथा साम्ब पुराण में इसे रविक्षेत्र या सूर्यकानन कहा गया है। ब्रह्मपुराण में इसे कोणादित्य या उत्कलका कोणार्क कहा गया है, जो वस्तुतः पुरी से 30 मील दूरी पर स्थित आज का कोणार्क नगर ही हैं। इतिहास के अनुसार वर्तमान सूर्यमन्दिर को गांगनृसिंह देव ने प्रथम शती विक्रमी में निर्माण कराया था।

 

वराहपुराण के अनुसार साम्ब ने कुष्ठमुक्ति के लिये श्रीकृष्ण से आज्ञा प्राप्त कर भुक्ति मुक्ति फल देने वाली मथुरा में आकर देवर्षि नारद की बतायी विधि के अनुसार प्रातः मध्यान्ह और सायंकाल में उन षट्सूर्यो की पूजा एवं दिव्य स्तोत्र उपासना आरम्भ की। भगवान् सूर्य ने भी योगबल की सहायता से एक सुन्दर रूप धारण कर साम्ब के सामने आकर कहा- ‘साम्ब! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मुझसे कोई वर माँग लो और मेरे कल्याणकारी व्रत एवं उपासना पद्धति का प्रचार करो। मुनिवर नारद ने तुम्हे जो साम्बपंचशिका’ स्तुति बतलायी है, उसमें वैदिक अक्षरों एवं पदों से सम्बद्ध पचास श्लोक हैं। वीर! नारद जी द्वारा निर्दिष्ट इन श्लोकों द्वारा तुमने जो मेरी स्तुति की है, इससे मैं तुम पर पूर्ण संतुष्ट हो गया हूँ।” ऐसा कहकर भगवान सूर्य ने साम्ब के सम्पूर्ण शरीर का स्पर्श किया। उनके छूते ही साम्ब के सारे अंग सहसा रोग मुक्त होकर दीप्त हो उठे और दूसरे सूर्य के समान ही विद्योतित होने लगे। उसी समय याज्ञवल्क्यमुनि माध्यंदिन यज्ञ करना चाहते थे। भगवान् सूर्य साम्ब को लेकर उनके यज्ञ में पधारे और वहाँ उन्होंने साम्ब को माध्यंदिन-संहिता का अध्ययन कराया। तब से साम्ब का भी एक नाम ‘माध्यंदिन पड़ गया। वैकुण्ठक्षेत्र के पश्चिम भाग में यह स्वाध्याय सम्पन्न हुआ था। अतएव इस स्थान को माध्यंदिनीय तीर्थ कहते हैं। वहाँ स्नान एवं दर्शन करने से मानव समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। साम्ब के प्रश्न करने पर सूर्य ने जो प्रवचन किया, वही से प्रसंग भविष्यपुराण के नाम से प्रख्यात पुराण बन गया। यहाँ साम्ब ने कृष्णगंगा के दक्षिण तट पर मध्यान्ह के सूर्य की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की। जो मनुष्य प्रातः मध्यान्ह और अस्त होते समय इन सूर्यदेव का यहाँ

 

दर्शन करता है, वह परम पवित्र होकर ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त सूर्य की एक दूसरी उत्तम प्रातःकालीन विख्यात प्रतिमा भगवान् ‘कालप्रिय’ नाम से प्रतिष्ठित हुई। तदनन्तर पश्चिम भाग में मूलस्थान’ में अस्ताचल के पास मूलस्थान नाम प्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई। इस प्रकार साम्ब ने सूर्य की तीन प्रतिमाएँ स्थापित कर उनकी प्रातः, मध्यान्ह एवं संध्या- इन तीनो कालों में उपासना की भी व्यवस्था की साम्ब ने भविष्यपुराण में निर्दिष्ट विधि के अनुसार भी अपने नाम से प्रसिद्ध एक मूर्ति की यहाँ स्थापना करायी। मथुरा का वह श्रेष्ठ स्थान साम्बपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

 

कालपी के सूर्य का विवरण भवभूति के सभी नाटकों में तो है ही, राष्ट्रकूट राजा इन्द्र तृतीय के यात्राविवरण के साथ गोविन्ददेव तृतीय के कैम्बे प्लेट में भी इस प्रकार प्राप्त होता है।

 

येनेदं हि महोदयारिनगर निर्मूलमुन्मूलितं ।
यन्माद्यद् द्विपदन्तघातविषय कालप्रियप्रांगणं ।
तीर्णा यत्तुगैरगाधयमुना सिन्धुप्रतिस्पर्द्धिनी।।
नाम्नाद्यापि जनैः कुशस्थलमिति ख्यातिं परां नीयते।।
 

मोहेड़ा सूर्य-मन्दिर भी प्राचीन है, पर इतिहास के विद्वान उसे 10 वी शती विक्रमी में निर्मित मानते है।

 

 

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