चार महीने बीत चुके थे, बल्कि 10 दिन ऊपर हो गए थे, किंतु बड़े भइया की ओर से अभी तक कोई ख़बर नहीं आई थी कि वह पापा को लेने कब आएंगे।
यह कोई पहली बार नहीं था कि बड़े भइया ने ऐसा किया हो। हर बार उनका ऐसा ही रवैया रहता है।
जब भी पापा को रखने की उनकी बारी आती है, वह समस्याओं से गुज़रने लगते हैं। कभी भाभी की तबीयत ख़राब हो जाती है, कभी ऑफिस का काम बढ़ जाता है और उनकी छुट्टी कैंसिल हो जाती है।
विवश होकर मुझे ही पापा को छोड़ने मुंबई जाना पड़ता है। हमेशा की तरह इस बार भी पापा की जाने की इच्छा नहीं थी, किंतु मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और उनका व अपना मुंबई का रिज़र्वेशन करवा लिया।
दिल्ली-मुंबई राजधानी एक्सप्रेस अपने टाइम पर थी। सेकंड एसी की निचली बर्थ पर पापा को बैठाकर सामने की बर्थ पर मैं भी बैठ गया।
साथवाली सीट पर एक सज्जन पहले से विराजमान थे। बाकी बर्थ खाली थीं।
कुछ ही देर में ट्रेन चल पड़ी।
अपनी जेब से मोबाइल निकाल मैं देख रहा था, तभी कानों से पापा का स्वर टकराया, “मुन्ना, कुछ दिन तो तू भी रहेगा न मुंबई में। मेरा दिल लगा रहेगा और प्रतीक को भी अच्छा लगेगा।”
पापा के स्वर की आर्द्रता पर तो मेरा ध्यान गया नहीं, मन-ही-मन मैं खीझ उठा। कितनी बार समझाया है पापा को कि मुझे ‘मुन्ना’ न कहा करें।
‘रजत’ पुकारा करें। अब मैं इतनी ऊंची पोस्ट पर आसीन एक प्रशासनिक अधिकारी हूं। समाज में मेरा एक अलग रुतबा है। ऊंचा क़द है, मान-सम्मान है। बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति मुन्ना शब्द सुनकर मुझे एक सामान्य-सा व्यक्ति समझ रहा होगा। मैं तनिक ज़ोर से बोला, “पापा, परसों मेरी गर्वनर के साथ मीटिंग है। मैं मुंबई में कैसे रुक सकता हूं?” पापा के चेहरे पर निराशा की बदलियां छा गईं। मैं उनसे कुछ कहता, तभी मेरा मोबाइल बज उठा। रितु का फोन था। भर्राए स्वर में वह कह रही थी, “पापा ठीक से बैठ गए न।”
“हां हां बैठ गए हैं। गाड़ी भी चल पड़ी है.” “देखो, पापा का ख़्याल रखना। रात में मेडिसिन दे देना। भाभी को भी सब अच्छी तरह समझाकर आना। पापा को वहां कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए।”
“नहीं होगी।” मैंने फोन काट दिया। “रितु का फोन था न। मेरी चिंता कर रही होगी।”
पापा के चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया था। रात में खाना खाकर पापा सो गए। थोड़ी देर में गाड़ी कोटा स्टेशन पर रुकी और यात्रियों के शोरगुल से हड़कंप-सा मच गया। तभी कंपार्टमेंट का दरवाज़ा खोलकर जो व्यक्ति अंदर आया, उसे देख मुझे बेहद आश्चर्य हुआ। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि रमाशंकर से इस तरह ट्रेन में मुलाक़ात होगी।
एक समय रमाशंकर मेरा पड़ोसी और सहपाठी था। हम दोनों के बीच मित्रता कम और नंबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा अधिक रहती थी। हम दोनों ही मेहनती और बुद्धिमान थे, किंतु न जाने क्या बात थी कि मैं चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न कर लूं, बाज़ी सदैव रमाशंकर के हाथ लगती थी।
शायद मेरी ही एकाग्रता में कमी थी। कुछ समय पश्चात् पापा ने शहर के पॉश एरिया में मकान बनवा लिया। मैंने कॉलेज चेंज कर लिया और इस तरह रमाशंकर और मेरा साथ छूट गया।
दो माह पूर्व एक सुबह मैं अपने ऑफिस पहुंचा। कॉरिडोर में मुझसे मिलने के लिए काफ़ी लोग बैठे हुए थे।
बिना उनकी ओर नज़र उठाए मैं अपने केबिन की ओर बढ़ रहा था। यकायक एक व्यक्ति मेरे सम्मुख आया और प्रसन्नता के अतिरेक में मेरे गले लग गया, “रजत यार, तू कितना बड़ा आदमी बन गया। पहचाना मुझे? मैं रमाशंकर.” मैं सकपका गया।
फीकी-सी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर आकर विलुप्त हो गई। इतने लोगों के सम्मुख़ उसका अनौपचारिक व्यवहार मुझे ख़ल रहा था। वह भी शायद मेरे मनोभावों को ताड़ गया था, तभी तो एक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत जब वह मेरे केबिन में दाख़िल हुआ, तो समझ चुका था कि वह अपने सहपाठी से नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक अधिकारी से मिल रहा था। उसका मुझे ‘सर’ कहना मेरे अहं को संतुष्ट कर गया। यह जानकर कि वह बिजली विभाग में महज़ एक क्लर्क है, जो मेरे समक्ष अपना तबादला रुकवाने की गुज़ारिश लेकर आया है, मेरा सीना अभिमान से चौड़ा हो गया। कॉलेज के प्रिंसिपल और टीचर्स तो क्या, मेरे सभी कलीग्स भी यही कहते थे कि एक दिन रमाशंकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा।
हुंह, आज मैं कहां से कहां पहुंच गया और वह…
पिछली स्मृतियों को पीछे धकेल मैं वर्तमान में पहुंचा तो देखा, रमाशंकर ने अपनी वृद्ध मां को साइड की सीट पर लिटा दिया और स्वयं उनके क़रीब बैठ गया।
एक उड़ती सी नज़र उस पर डाल मैंने अख़बार पर आंखें गड़ा दीं। तभी रमाशंकर बोला, “नमस्ते सर, मैंने तो देखा ही नहीं कि आप बैठे हैं।”
मैंने नम्र स्वर में पूछा, “कैसे हो रमाशंकर?”
“ठीक हूं सर।”
“कोटा कैसे आना हुआ?”
“छोटी बुआ की बेटी की शादी में आया था। अब मुंबई जा रहा हूं। शायद आपको याद हो, मेरा एक छोटा भाई था।”
“छोटा भाई, हां याद आया, क्या नाम था उसका?” मैंने स्मृति पर ज़ोर डालने का उपक्रम किया जबकि मुझे अच्छी तरह याद था कि उसका नाम देवेश था।
“सर, आप इतने ऊंचे पद पर हैं। आए दिन हज़ारों लोगों से मिलते हैं। आपको कहां याद होगा? देवेश नाम है उसका सर !”
पता नहीं उसने मुझ पर व्यंग्य किया था या साधारण रूप से कहा था, फिर भी मेरी गर्दन कुछ तन-सी गई।
उस पर एहसान-सा लादते हुए मैं बोला,“देखो रमाशंकर, यह मेरा ऑफिस नहीं है, इसलिए सर कहना बंद करो और मुझे मेरे नाम से पुकारो।
हां तो तुम क्या बता रहे थे, देवेश मुंबई में है?”
“हां रजत, उसने वहां मकान ख़रीदा है। दो दिन पश्चात् उसका गृह प्रवेश है।
चार-पांच दिन वहां रहकर मैं और अम्मा दिल्ली लौट आएंगे।”
“इस उम्र में इन्हें इतना घुमा रहे हो ?” “अम्मा की आने की बहुत इच्छा थी। इंसान की उम्र भले ही बढ़ जाए, इच्छाएं तो नहीं मरतीं न।”
“हां, यह तो है, पिताजी कैसे हैं?”
“पिताजी का दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया था। अम्मा यह दुख झेल नहीं पाईं और उन्हें हार्टअटैक आ गया था, बस तभी से वह बीमार रहती हैं. अब तो अल्ज़ाइमर भी बढ़ गया है।”
“तब तो उन्हें संभालना मुश्किल होता होगा। क्या करते हो? छह-छह महीने दोनों भाई रखते होंगे।” ऐसा पूछकर मैं शायद अपने मन को तसल्ली दे रहा था।
आशा के विपरीत रमाशंकर बोला,
“नहीं-नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। अम्मा शुरू से दिल्ली में रही हैं। उनका कहीं और मन लगना मुश्किल है। मैं नहीं चाहता, इस उम्र में उनकी स्थिति पेंडुलम जैसी हो जाए।
कभी इधर, तो कभी उधर। कितनी पीड़ा होगी उन्हें यह देखकर कि पिताजी के जाते ही उनका कोई घर ही नहीं रहा। वह हम पर बोझ हैं।”
मैं मुस्कुराया, “रमाशंकर, इंसान को थोड़ा व्यावहारिक भी होना चाहिए।
जीवन में स़िर्फ भावुकता से काम नहीं चलता है। अक्सर इंसान दायित्व उठाते-उठाते थक जाता है और तब ये विचार मन को उद्वेलित करने लगते हैं कि अकेले हम ही क्यों मां-बाप की सेवा करें, दूसरा क्यों न करे।”
“पता नहीं रजत, मैं ज़रा पुराने विचारों का इंसान हूं। मेरा तो यह मानना है कि हर इंसान की करनी उसके साथ है। कोई भी काम मुश्क़िल तभी लगता है, जब उसे बोझ समझकर किया जाए।
मां-बाप क्या कभी अपने बच्चों को बोझ समझते हैं? आधे-अधूरे कर्त्तव्यों में कभी आस्था नहीं होती रजत, मात्र औपचारिकता होती है और सबसे बड़ी बात जाने-अनजाने हमारे कर्म ही तो संस्कार बनकर हमारे बच्चों के द्वारा हमारे सम्मुख आते हैं।
समय रहते यह छोटी-सी बात इंसान की समझ में आ जाए, तो उसका बुढ़ापा भी संवर जाए।”
मुझे ऐसा लगा, मानो रमाशंकर ने मेरे मुख पर तमाचा जड़ दिया हो। मैं नि:शब्द, मौन सोने का उपक्रम करने लगा, किंतु नींद मेरी आंखों से अब कोसों दूर हो चुकी थी। रमाशंकर की बातें मेरे दिलोदिमाग़ में हथौड़े बरसा रही थीं। इतने वर्षों से संचित किया हुआ अभिमान पलभर में चूर-चूर हो गया था। प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी के लिए इतनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहा, किंतु पापा के मन की संवेदनाओं को, उनके हृदय की पीड़ा को नहीं पढ़ सका। क्या इतना बड़ा मुक़ाम मैंने स़िर्फ अपनी मेहनत के बल पर पाया है। नहीं, इसके पीछे पापा-मम्मी की वर्षों की तपस्या निहित है।
आख़िर उन्होंने ही तो मेरी आंखों को सपने देखने सिखाए। जीवन में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी। रात्रि में जब मैं देर तक पढ़ता था, तो पापा भी मेरे साथ जागते थे कि कहीं मुझे नींद न आ जाए। मेरे इस लक्ष्य को हासिल करने में पापा हर क़दम पर मेरे साथ रहे और आज जब पापा को मेरे साथ की ज़रूरत है, तो मैं व्यावहारिकता का सहारा ले रहा हूं। दो वर्ष पूर्व की स्मृति मन पर दस्तक दे रही थी। सीवियर हार्टअटैक आने के बाद मम्मी बीमार रहने लगी थीं।
एक शाम ऑफिस से लौटकर मैं पापा-मम्मी के बेडरूम में जा रहा था, तभी अंदर से आती आवाज़ से मेरे पांव ठिठक गए। मम्मी पापा से कह रही थीं, “इस दुनिया में जो आया है, वह जाएगा भी। कोई पहले, तो कोई बाद में। इतने इंटैलेक्चुअल होते हुए भी आप इस सच्चाई से मुंह मोड़ना चाह रहे हैं।”
“मैं क्या करूं पूजा? तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी मेरे लिए कठिन है। कभी सोचा है तुमने कि तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा?” पापा का कंठ अवरुद्ध हो गया था, किंतु मम्मी तनिक भी विचलित नहीं हुईं और शांत स्वर में बोलीं थीं, “आपकी तरफ़ से तो मैं पूरी तरह से निश्चिंत हूं। रजत और रितु आपका बहुत ख़्याल रखेंगे, यह एक मां के अंतर्मन की आवाज़ है, उसका विश्वास है जो कभी ग़लत नहीं हो सकता.”
इस घटना के पांच दिन बाद ही मम्मी चली गईं थीं। कितने टूट गए थे पापा। बिल्कुल अकेले पड़ गए थे। उनके अकेलेपन की पीड़ा को मुझसे अधिक मेरी पत्नी रितु ने समझा। यूं भी वह पापा के दोस्त की बेटी थी और बचपन से पापा से दिल से जुड़ी हुई थी। उसने कभी नहीं चाहा, पापा को अपने से दूर करना, किंतु मेरा मानना था कि कोरी भावुकता में लिए गए फैसले अक्सर ग़लत साबित होते हैं। इंसान को प्रैक्टिकल अप्रोच से काम लेना चाहिए।
अकेले मैं ही क्यों पापा का दायित्व उठाऊं? दोनों बड़े भाई क्यों न उठाएं?
जबकि पापा ने तीनों को बराबर का स्नेह दिया, पढ़ाया, लिखाया, तो दायित्व भी तीनों का बराबर है। छह माह बाद मम्मी की बरसी पर यह जानते हुए भी कि दोनों बड़े भाई पापा को अपने साथ रखना नहीं चाहते, मैंने यह फैसला किया था कि हम तीनों बेटे चार-चार माह पापा को रखेंगे. पापा को जब इस बात का पता चला, तो कितनी बेबसी उभर आई थी उनके चेहरे पर। चेहरे की झुर्रियां और गहरा गई थीं। उम्र मानो 10 वर्ष आगे सरक गई थी। सारी उम्र पापा की दिल्ली में गुज़री थी। सभी दोस्त और रिश्तेदार यहीं पर थे, जिनके सहारे उनका व़क्त कुछ अच्छा बीत सकता था, किंतु… सोचते-सोचते मैंने एक गहरी सांस ली।
आंखों से बह रहे पश्चाताप के आंसू पूरी रात मेरा तकिया भिगोते रहे।
उफ्… यह क्या कर दिया मैंने। पापा को तो असहनीय पीड़ा पहुंचाई ही, मम्मी के विश्वास को भी खंडित कर दिया। आज वह जहां कहीं भी होंगी, पापा की स्थिति पर उनकी आत्मा कलप रही होगी। क्या वह कभी मुझे क्षमा कर पाएंगी? रात में कई बार अम्मा का रमाशंकर को आवाज़ देना और हर बार उसका चेहरे पर बिना शिकन लाए उठना, मुझे आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य कर रहा था। उसे देख मुझे एहसास हो रहा था कि इंसानियत और बड़प्पन हैसियत की मोहताज नहीं होती। वह तो दिल में होती है। अचानक मुझे एहसास हुआ, मेरे और रमाशंकर के बीच आज भी प्रतिस्पर्धा जारी है। इंसानियत की प्रतिस्पर्धा, जिसमें आज भी वह मुझसे बाज़ी मार ले गया था। पद भले ही मेरा बड़ा था, किंतु रमाशंकर का क़द मुझसे बहुत ऊंचा था।
गाड़ी मुंबई सेंट्रल पर रुकी, तो मैं रमाशंकर के क़रीब पहुंचा। उसके दोनों हाथ थाम मैं भावुक स्वर में बोला, “रमाशंकर मेरे दोस्त, चलता हूं। यह सफ़र सारी ज़िंदगी मुझे याद रहेगा।” कहने के साथ ही मैंने उसे गले लगा लिया।
आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी से वह मुझे देख रहा था। मैं बोला, “वादा करो, अपनी फैमिली को लेकर मेरे घर अवश्य आओगे।”
“आऊंगा क्यों नहीं, आखिऱ इतने वर्षों बाद मुझे मेरा दोस्त मिला है।” ख़ुशी से उसकी आवाज़ कांप रही थी। अटैची उठाए पापा के साथ मैं नीचे उतर गया। स्टेशन के बाहर मैंने टैक्सी पकड़ी और ड्राइवर से एयरपोर्ट चलने को कहा। पापा हैरत से बोले, “एयरपोर्ट क्यों?” भावुक होकर मैं पापा के गले लग गया और रुंधे कंठ से बोला, “पापा, मुझे माफ़ कर दीजिए। हम वापिस दिल्ली जा रहे हैं। अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे।”
पापा की आंखें नम हो उठीं और चेहरा खुशी से खिल उठा।
“जुग जुग जिओ मेरे बच्चे।” वह बुदबुदाए। कुछ पल के लिए उन्होंन अपनी आंखें बंद कर लीं, फिर चेहरा उठाकर आकाश की ओर देखा। मुझे ऐसा लगा मानो वह मम्मी से कह रहे हों, देर से ही सही, तुम्हारा विश्वास सही निकला।