ध्यानमग्न बाबा की तनी हुई देह, परम शांत मुखमुद्रा को कुछ देर तक बड़े भाव से दखते रहने के बाद गणपति बोले- “यह आयु और उस पर भी जवानों की सी फुर्ती, नियम से व्यायाम करना और बिना थकावट इतनी भीड़ से निपटना इन्हीं का काम है। हम तो इनके बच्चे समान हैं पर इस उनहत्तर-सत्तर की आयु मे ही थक गए।”
राम सोत्साह वोला- “अरे काशी के अकाल और गिल्टी की महामारी के दिनों में इन्हें देखते आप। दसों दिशा डोल-डोल कर काशी का हाहाकार अपने भीतर के राम बल से रौंदते चलते थे।”
“सुना है, उन दिनों यह आप भी गिल्टी से पीड़ित रहे थे?”
“वह तो वात रोग हुआ था। इन्होंने बड़ा दु:ख झेला पर उसमें भी जब तक शरीर चले तब तक दूसरों का दुख भी झेलते ही रहते थे। इन्हीं के उत्साह से हम सैकड़ौ जवान थककर भी न थक पाए। दिन-रात रोगियों की सेवा करते, शव ढो-ढो कर फूँकते और आठों पहर सीताराम की गुहार लगाकर अपना मनोबल बढ़ाया करते थे और सचमुच हममें से दो लड़को को छोड़कर कोई न मरा।”
तब तक बेनीमाधव जी भी आ पहुचें। बातों का रस गहरा हो चला। बेनीमाधव जी की कथा जिज्ञासा अब बड़ी बेसबर हो चुकी थी। राम से चिरौरी करने लगे कि किसी जुगत से बाबा को अपनी जीवन कथा सुनाने के लिए प्रेरित कर दो। गणपति जी को सहसा एक सूझ आईं, बोले -“अच्छा, हम आपकी बात बनाय देंगे। हम जाते हैं और रजिया काका, वकरीदी काका को लेकर पहुँचते हैं। रजिया काका को साथ लेंगे तो बात का प्रँसग अपने-आप सध जायगा।”
बेनीमाधव उपकृत नयनों से उन्हें देखने लगे। गणपति जी तीव्र गति से दो डग चले फिर पलटकर रामू से कहा-“रामू जी, जाते समय गुरू जी के फला- हार के लिए हमारे घर पर एक आवाज़ लगाते जाइएगा। तैयार तो सब रहेगा ही।”
आधी-पौन घड़ी वाद ही बाबा का आधा आँगन गुलजार हो गया, आधा गिरे मलवे से भरा था। चटाइयों पर बकरीदी, राजा भगत, सत बेनीमाधव, गणपति उपाध्याय तथा गाँव के दो-एक सम्भ्रांत लोग बैठे थे।तुलसी के गमले के पास बाबा का आसन लगा था, पास ही बायीं ओर के दालान में रतना मैया का ठाकुरद्वारा था। चौकी पर मैया द्वारा पूजित बाबा की चरणपादुकाएँ रखी हुई दिखलाई दें रहीं थीं। उसी दालान के दूसरे छोर पर कोने में चूल्हा बना था और रसोई के कुछ बर्तन रखे थे। चूल्हे से कुछ हटकर कोठरी का बन्द द्वार भी दिखलाई दे रहा था। बारिश और धूप से बचाव के लिए जिस ओर चूल्हा बना था उसके सामने वाले दालान का द्वार फूस की छपरी से ढंका हुआ था। दाहिनी ओर का सारा भाग ध्वस्त पड़ा था।बाबा का मुख और दूसरों की पीठ बैठकवाले दालान की तरफ थी।
बात राजा भगत ने आरम्भ की, बोले-“हमारा तो यह मन होता है कि दुई दिन हमारी अमराई में बिताओ। हम तुम्हारी मालिश करेंगे। संग संग कसरत करेगें, डोलेगें, आम खाएगें, दूध पिएगें और मगन हुइके भजन-भाव करेगें। यह लड़के, चेला-चाटी कोई वहाँ न रहेगा।”
“वाह काका, तुमने तो अपने ही स्वारथ की बात सोची।” गणपति जी ने मीठी शिकायत की।
राजा वोले- “हमारा यह स्वारथ भी बड़ा है पण्डित।जब तक भौजी कीजिम्मेदारी रही तब तक तो हमारे मन मे कहीं चिन्ता नागिन जरूर रेंगती रही पर अब दसों दिसा से मन मुक्त है। दुइ दिन इनके चरन और सेइ लें तो हमारी सब साधें पुरी हो जायें।”
बाबा प्रसन्त मुद्रा में बोले- “ठीक है तो आज चलो।”
“आज तो भैया, हमारे घर में तुम जूठन गिराओगे, बाल बच्चों का यह सुख हम न छीनेगें।”
“आज यहाँ रहेगें तो कल तुमको हमारे संग चित्रकूट चलना पड़ेगा। वहाँ सत्संग होगा।”
राजा भगत प्रसन्न होकर बोले-“यह तो और अच्छी बात है। अरे अब हम घर से मुक्त हैं। लड़के बालक घर-गिरस्ती सभालते हैं। एक भौजी का बंधन रहा तो वह रामघर चली गईं।अब हम तुम्हारे संग-संग ही डोलेंगे भैया, पर इन बातों से पहले अब हम गाँव के मतलब की एक बात पूछ लें कि अब यह घर तुम किसे सौंप रहे हो?”
अपनी काया की ओर इंगित करके मुस्कराते हुए बाबा बोले- “हमार घर तो यह है, वह भी जब तक राम न छुड़ावे।”
बकरीदी बोले- “यह घर तो भैया अब गाँव भर की अमानत है। हमारी तो फकत यह राय है कि इसमें मन्दिर स्थापित कर दिया जाय और तुलसीदास महाराज की बैठक में लड़के पढे़ं।”
सभी ने एक स्वर मे समर्थन किया। राजा बोले- “तो फिर हम एक बात और कहेगें। गनपती महाराज को पुजारी बनाय के ई जगह सौंप देव। इनके घर भर ने लगन तें भौजी की सेव़ा की है, और भैया के भी पुराने चेले हैं।”
“हाँ, रत्ना के लिए भेजी गई यह रामचरित मानस की प्रति और उनके व्यवहार की वस्तुए इसी के पास रहते से मुझे भी संतोष होगा।तारापति न रहा, गणपति तो है।”
वेनीमाधव जी के चेहरे पर भी अपने शिष्यत्व का फल प्राप्त करने की उतावली झलक उठी। बड़ी चतुराई से बात उठाई, पूछा- “यह घर आपका पैतृक निवास है? ”
“नही, वह पुराने विक्रमपुर गाँव के खडंहर तो आधे से अधिक जमना जी में तभी समा गए थे जब हम पंच नान्हें-नान्हें रहे। महाराज की जन्मभूमि भी जमना जी में समा गई | पुराने लोग बताते रहे कि तुलसी भैया को लैके मुनिया कहारिन जब गाँव तें चली गई तो एक साधू आया और कहि कि आज ई गाँव का सर्वनास होयगा, जिसे बचना होय वह गाँव छोड़ के चला जाय। उसके दुइ घड़ी बाद मुग़लों की फौज आई। बड़े महाराजा, भैया के पिता, मारे गए। सब गाँव स्वाहा हुइ गवा। हम लोगों के पुराने बंधु हम सबको लेके तारीगावँ भागे रहै। बड़ी प्रलय मची रही, राम-राम” – राजा भगत ने बतलाया।
“बेनीमाधव, तुम्हारी इच्छा पूरी होने का अवसर आ गया है। मेरे राम जी का पावन जीवनचरित महादेव भोलानाथ ही उद्घाटित कर सकते थे किन्तु मुझ अकिंचन की जन्मकथा यह बकरीदी भैया और राजा भगत ही सुना सकते हैं।”
क्रमशः