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राम के तुलसी भाग – 3

बाबा ने मैया का हाथ अपने हाथ से उठाकर और प्रेम से दबाकर धीरे से कहा- ‘बोलो, बोलो “सीताराम।”

“सी- ता….रा….” एक हिचकी आई, मैया की आँखें खुली की खुली रह गईं और काया निरचेष्ट हो गई। मृत देह पर जीवन की एक छाप अब तक शेष थी। विरह से सूनी रतना मैया सुहागिन होकर परम शांति पा गई थी।

बाबा थोड़ी देर वैसे ही मैया का हाथ अपने हाथ में लिए बैठे रहे, फिर उठे और भीतरवाले द्वार की ओर जाने के बजाय सड़क पर पड़ते तीन द्वारों में से बीच वाले का वेड़ना सरका कर उसे खोल दिया। बाबा निर्विकार से बाहर चबूतरे पर आकर खड़े हो गए।

मैया की मौत से कुछ पलों पहले बाबा का अचानक आना गाँववालों के लिए एक चमत्कारिक अनुभव तो बना ही साथ ही बड़े गर्व का विषय भी बन गया था। गोसाईं महात्मा इस समय चांद-सूरज की तरह लोक उजागर थे। उनके गाँव से पैदा हुए थे। जब हुमायूँ और शेरशाह की लड़ाई के पुराने दिनों की भगदड़ में इधर-उधर छितराके भागने वाले मुगल लड़वैये डाकू बनकर लूटपाट और आतंक मचाने लगे, तब यह विक्रमपुर गाँव पूरी तरह से लुट-पिट कर खण्डहर बनकर सम्यता के मानचित्र से मिट गया था।बस, दो-चार गरीब-गुरबे छोटे काम करनेवाले हिन्दू और पन्द्रह-बीस मुसलमानों के घर ही बच रहे थे। उस समय बाबा ने यहा आकर तपस्या की और संकटमोचन हनुमान को स्थापित किया। उन्हीं के आशिर्वाद से राजापुर नाम पाकर यह गाँव  फिर से बसा था। उनके साथी-संगियो में दो लोग अभी मौजूद हैं। इसलिए लोगों में जोश था कि मैया की अर्थी बड़ी घूम-धाम से उठनी चाहिए, जरा सात गाँव के लोग देखें और कहें कि बाबा सबसे अधिक उन्ही के हैं। उनकी जन्मभूमि यही, घर यही, घरैतिन यही और आज इतने बड़े विरक्त महात्मा होकर भी वे अपने हाथों अपनी अर्द्धांगिनी का दाह संस्कार करेगें। विक्रमपुर उर्फ राजापुर के लिए यह क्या मामूली घटना होगी।

जवानों में ही इस बात का सबसे अधिक जोश था। गाँव के करीब-करीब सभी बड़े-बूढे स्त्री-पुरुष भी लड़कों के इस जोश का जोशीला समर्थन करने लगे। तय हुआ कि रजिया कक्‍का और वकरीदी कक्‍का से कहलाया जाय। इनमे भी राजा भगत बाबा के विशेष मुहँलगे थे।बाबा अपनी जवानी में जब सोरों से आए थे तो राजा के घर ही ठहरे थे। उन्होने ही गांव-गांव इनकी कथावाचन कला का माहात्म्य फैलाया था। जब दान-दक्षिणा अच्छी मिलने लगी और इनके ब्याह की बात चली तो राजा ही की सलाह मानकर बाबा ने वकरीदी से यह ज़मीन खरीदी। राजा ने ही बाबा का यह घर बनवाया था। ब्याह-बरात का सारा प्रबंध भी उन्होनें ही किया और अब तक अपनी रतना भौजी के साथ उनका वैसा ही निभाव रहा था।

सबके आग्रह से राजा और वकरीदी बाबा के पास गए। बाबा चवबूतरे पर कुश आसन बिछाकर बैठे थे, पालथी मारे, मेरुदण्ड सहज तना हुआ, आँखें कही दूर भ्रलक्ष्य में लगी हुई थी,सुमिरनी अपने क्रम से चल रही थी। सुकरखेत निवासी शिष्य सत वेनीमाधव और काशी से साथ आए हुए शिष्य रामू द्विवेदी अगल-बगल बैठे बाबा को पंखा झल रहे थे। वकरीदी को सहारा देकर उनके सामने से ही चबूतरें पर चढ़ाकर लाते हुए राजा पर बाबा की दृष्टि बरबस पडी़। चार दिन बडे़ होने के कारण बाबा बकरीदी दर्जी को भैया कहकर पुकारते है, इसलिए उनके सम्मान में वे खड़े हो गए। वकरीदी दोनों हाथ उठाकर अपनी कमजोर आवाज में साँस का अधिक जोर लगाकर बोले-“रहै देव, रहै देव, गमी-जनाजन में सील-सिट्टाचार का विचार नही होता।” कहते-कहते साँस फूल आई, खाँसी का दौरा पड़ा था। वे बैठा दिए गए।

“राम-राम (राजा से) इन्हे क्‍यों लाए ”

“अरे गाँव के सब पंचो ने मिलके हमें और इन्हें तुम्हारे पास भेजा है।”

“क्या बात है ?

एक हाथ से दमफूलते वकरीदी की पीठ सहलाते हुए होठो पर व्यंग की हलकी-सी हँसी लाकर राजा वोले- “अरे तुम इस गाँव के महात्मा हौ न, तौ तुम्हारी अवाई को सब पंच मिल के क्‍यों न भुनावें ?”

बाबा के चेहरे पर भी फीकी मुस्कान आ गई। तभी बकरीदी जोश में बोल उठे- “यह बात नही है। हमारी भयेहू क्या कम महात्मा रही। (खों-खों ) तुम तौ हम पंचन को छोड़ि के चले गए, ऊ तो जनम-भर हमारे ही साथ रही। सब लोग बाजे-गाजे से विमान-उमान बनाय के जनाजा ले जैहैं। देर-सबेर होय तौ बोलना मत। यह हमार अरदासौ है भर हुकुमी है।”

“तुम्हारा हुकुम हमारे लिए रामाज्ञा है, रामू “

“आज्ञा, प्रभु”

“समय का सदुपयोग करौ। राम-नाम सुनाओ, जिससे भीतर का मिथ्या क्रन्दन-कोलाहल’ बन्द हो”

बाबा की अवाई सुनकर भीतर गांव-भर की स्त्रिया जुट आईं थीं, हाय अ्जिया हाय मोर मैया’ कहकर मैया से सम्बंधित अपने-अपने संस्मरणों को सूत्रवत्‌ बट-बट कर लुगाइयाँ आपस मे रोने का दंगल चला रही थीं।

“अरे ननन्हुआ का जब जर चढ़ा रहा तब तुम्हीं बचाईं, अब को बचाई? हमार सोना और रूपा के वियाहन मां सब भभ्भड़ तुमहीं निवटाईं। अब हमार मोतिया का को पार लगाई? हाय मोर अजिया। हाय तुम हमका छाड़िकै कहाँ चली गईं।”

इस तरह गाँव-भर के दुख-सुख का इतिहास रतना मैया से जुड़कर कोलाहल की ऊँची मीनार बना रहा था। उत्सुक स्त्रियों को मैना कभी रो-रोकर और कभी आँसू सोख सिसकते स्वर में बतलाती थी कि कैसे बाबा के कमरे मे घुसते ही उजाला हुआ और बाबा ने दादी से सीताराम-सीताराम बुलवाया। श्यामो की बुआ को रह रह कर यही कचोट उठ रही थी कि अपनी भौजी की असल चेली तो जनम-भर हम रहीं और अंतिम चमत्कार देखने का सौभाग्य निगोड़ी मैना को मिला। इसी दुःख को दुहराकर वह रोती रही।

राम द्विवेदी ने बड़े ही सुरीले और मधुर ढंग से गाना आरंभ किया-

ऐसो को उदार जग माँही।

बिन सेवा जो द्रवे दीन पर

 राम सरिस कोउ नाही।

राम शब्द का “रा मात्र सुनते ही उनका मुखमण्डल खिल उठा। धीरे-धीरे ताली बजाते हुए उन्होने आखें मूंद ली। ध्यान-पट की श्यामता मन की तेजी से सिमटकर बीच में आने लगी।

क्रमशः

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