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राम के तुलसी भाग – 2

६१-६२ वर्ष के बूढ़े रमजानी का दौड़ना आश्चर्यकारी था। दूर से ही बोला- “ककुआ ककुआ होसियार। बाबा आय रहे हैं।”

“अरे कौन बाबा”

“गुसाँई बाबा ! गुसाँई बाबा ! अरे अपनी रतना काकी के……”

दो शिष्यों , राजा अहिर, अपने जवान पोते की पीठ पर लदे बकरीदी दर्जी, शिवदीन दुबे, नन्हकू, मनकू आदि गाँव के कई लोगों के साथ गोस्वामी तुलसीदास जी धीरे-धीरे आ रहे थे। बाबा के शिष्यों में से एक राम द्विवेदी उनके साथ काशी से आया था। उसकी आयु तीस-बत्तीस के लगभग थी। दूसरे शिष्य वाराह क्षेत्र निवासी एक संत जी थे। आजानुबाहु, चमकते सोने-सी पीत देह, लम्बी सुतवां नाक, उभरी ठोड़ी, पतले होठ, सिर ओर चेहरे के बाल घुटे हुए, माथे, बाहों और छाती पर वैष्णव तिलक था।काया कृश होने पर भी व्यायाम से तनी हुईं भव्य लगती थी। लगता था मानों मनुष्यों के समाज में कोई देवजाति का पुरुष आ गया है। बायें हाथ मे कमण्डलु, दाहिनें हाथ मे लाठी, गले मे जनेऊ और तुलसी की मालायें पड़ी थीं। वे जवानों की तरह से तनकर चल रहे थे।

“भैया तुम बहुत झटक गए हो। कैसा राजा इन्नर-सा सरीर रहा तुम्हारा” – सत-गृहस्थ राजा जो बाबा से आयु में केवल एक दिन छोटे पर स्वस्थकाय थे, स्नेह से बाबा को देखकर बोले।

बाबा ने कहा- “पिछले आठ नौ बरसों से वात रोग ने हमको ग्रस लिया है। बाहँ मे पीड़ा हुई, फिर सारे शरीर मे होने लगी। बस हनुमान जी और व्यायाम ही जिला रहे है हमको। बाकी बकरीदी भैया से हम बहुत तगड़े है। चार ही दिन तो बड़े है हमसे और तुम्हारा जी चाहे तो तुम भी हमसे पंजा लड़ाय लेव राजा।”

एक हँसी की लहर दौड़ गई। उसी समय अपने घर से मुगटा पहने बाबा के पुराने शिष्य, अड़सठ-उनहत्तर वर्षीय पण्डित गणपत्ति उपाध्याय नंगे पैरों दौड़ते हुए आए, भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया।बाबा ने पहचानकर गले लगाया। गणपति ने रतना मैया की गम्भीर दशा बतलाकर बाबा के अचानक आगमन को चमत्कारी बखाना।

बाबा कहने लगे- “जेठ महीने में ही हम वाराह क्षेत्र में आ गए थे। चातुर्मास वहीं बिताने का विचार था परन्तु कुछ दिन पहले हमे स्वप्न से हनुमान जी से ऐसी प्रेरणा मिली कि राजापुर होते हुए हम चित्रकूट जाएँ और वही चातुर्मास पूरा करे।”

राजा प्रेम से उन्हें एक बाँह मे भरकर बोले-“अरे अब भगवान ने तुमको अंतरजामी बनाय दिया है। वहुत ऊंची तपस्या भी किए हो।”

 

श्यामों की बुआ देखते ही ‘अरे मोर भैया’ कहकर पुक्का फाड़कर रोती हुई दौड़ी और कहा-‘भौजी के परान बस तुमरे बदे अटके हैं” फिर उनके पैरों पर गिरकर और जोर-जोर से रोने लगी।

वृद्ध संत ने उनके सिर पर दो बार हाथ थपथपाया और राम-राम कहा। रतना मैया के मरने की बाट जोहते खड़े हुए बूढ़ों, अधेड़ों और लड़कों ने बाबा के चरण छूने मे होड़ लगा दी। अगल-बगल के घरों की औरतें चुटकी से घूघँट थामे एक आखँ से उन्हें देखने लगीं ! बच्चों की भीड़ भी बढ़ आई। श्यामो की बुआ गरजी-“चलौ, हटौ, रस्ता देव। पहले भौजी से मिले देव, जिनके परान इनके दरसन में अटके हैं।”

परम संत महाकवि गोस्वामी तुलसीदास उनसठ वर्षो के बाद अपने घर की देहरी पर चढ़ रहे थे। उनका सौम्य शातं तेजस्वी मुख इस समय अपने औसत से कुछ अधिक गम्भीर था। उनके पीछे भीड़ भी भीतर आने लगी। चेहरे पर भीनी मुस्कान के साथ उनका कमण्डलुवाला हाथ ऊपर उठा, अगूँठे और तर्जनी के घेरे में कमण्डलु अटका था और तीन उँगलियाँ ठहरने का आदेश देते हुए खड़ी थीं। बाहरवालों ने एक-दूसरे को पीछे ढकेला। बाबा अकेले अन्दर गए। वही दहलीज, वही दालान, आँगन के पारवाली कोठरियों और दालान का अधिकाशँ भाग अब ईंटों का ढेर बना था। जगह-जगह बरसाती घास और वनस्पति उग रही थी। पर बाबा का मन इस समय कहीं भी न गया। ध्यान: मग्न सिर झुकाए हुए उन्होनें दालान मे प्रवेश किया। मैना हाथ जोड़कर झुकी और उनके चरणों के आगे भूमि पर सिर नवाया, फिर कहना चाहा कि इसी कमरे में है, किन्तु मुँह से बोल न फूट सके, केवल हाथ के संकेत से कमरा दिखला दिया।इसी बैठक वाले कमरे में कथा वाचस्पति पण्डित तुलसीदास शास्त्री ने अपने ग्राहस्थिक जीवन में अध्ययन और शास्त्रार्थ से भरे पूरे नौ वर्ष बिताए थे। कमरे के भीतर जाकर ताजी लिपी भूमि पर निश्चेष्ट पड़ी हुई पत्नी को देखा, फिर बाबा ने किवाड़ों को थोड़ा उढ़काकर मानों मैना को भीतर न आने के लिए कहा। दाहिनी ओर चौकी पर रामचरितमानस का बस्ता रखा था। उस पर बासी फूल रखे हुये थे।आले में मोटे बत्तेवाला दिया जल रहा था। पहले

बाबा एक क्षण तक खड़े रहे, फिर पत्नी के सिरहाने बैठ गए।छाती के बीच में प्राणों की धुकधुकी खरगोश की कुलाचों सी रुक- रूक कर चल रही थी।चेहरा शांत किन्तु कुछ-कुछ पीड़ित भी था। बाबा ने अपने कमण्डलु से जल लेकर मैया के मुख पर छींटा दिया। उनके सिर पर हाथ फेरकर, उनके कान के पास अपना मुख ले जाकर उन्होंने पुकारा-“रतन” चेहरे पर हल्का-सा कम्पन आया पर आंखें न खुली। फिर पुकारा-“रतन”

लगा कि मानों कमल खिलने के लिए अपने भीतर से संघर्ष कर रहा हो। बाबा ने राम-राम बुदबुदाते हुए उनकी दोनों आखों पर अँगूठा फेरा। मैया की आँखें खुलने लगीं। पुतलियाँ दृष्टि के लिए भटकी, फिर स्थिर हुई फिर क्रमश, चमकने लगीं। मुरझाया मुख-कमल अपनी शक्ति भर खिल उठा। होठों पर मुस्कान की रेखा खिच आई। शरीर उठना चाहता है किन्तु अशक्त है। होंठ कुछ कहने के लिए फड़कने का निर्बल प्रयत्न कर रहे हैं किन्तु बोल नहीं फूट पाते। केवल चार आँखे एक-दूसरे में टकटकी बाँधें बड़ी सजीव हो उठीं हैं । पति की आँखों में अपार शांति और प्रेम तथा पत्नी की आँखों में आनन्द और पूर्ण कामत्व का अपार संतोष भरा है।

“राम-राम कहो रतना ! सीताराम-सीताराम”

होठों ने फिर फड़कना आरम्भ किया। कलेजे की प्राण कुलाचें कण्ठ तक आ गईं।

“सीताराम ! सीताराम ! ” बाबा के साथ-साथ मैया के कण्ठ से भी क्षीण अस्फुट ध्वनि निकली।बोलने के लिए जीव का संघर्ष और बढ़ा।

क्रमशः

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