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राम के तुलसी भाग – 16

“आपके घर की मुनिया दासी की सास?”

“हाँ, ऐसी झोपड़ी में रहती थी जिसमे वह सीधी खड़ी भी नही हो सकती थी। पेड़ों की टूटी हुई टहनियों को जस तस बाँधकर सरपत घास और ढाक के पत्तों से बनाई गई और वह भी अनपढ़ हाथों की कला। आँधी या लू चले तो पत्तें उड़ उड़ जाएँ , कभी चरमरा कर गिर भी पड़े। आए दिन उसकी मरम्मत करनी पड़ती थी, फिर भी उसकी दीन-हीन दशा कभी सुधर न पाई। बरसात भर भीगी धरती पर वह हमें कलेजे से लगाकर और अपने आँचल से ढँककर बौछारों से बचाने का निरर्थक प्रयत्न करती थी।”

“तब तुम बहुत नान्हें से रहे होगे भैया?” राजा भगत ने पूछा।

“चार-पाँच बरिस की आयु से तो हमको याद है, फिर वे बिचारी मर गई। ऐसे ही एक बरसात के दिन हम भिक्षा माँगकर लौट रहे थे कि एकाएक बड़ी जोर से आँधी और पानी आ गया।”

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मन पटल पर बीते दृश्य सजीव हो उठे। चार-पाँच वर्ष का नन्हा-सा बालक

कंधे पर झोली लटकाए आँधी पानी में बढ़ा चला जा रहा है। भागने का प्रयत्न करे तो फिसलने का भय लगता है और धीरे चले तो आँधी पानी के तेज झोंके उसे डगमगा देतें हैं। सहसा देर से कड़कड़ा रही बिजली बच्चे से, दो-तीन सौ कदम दूर एक पेड़ पर गिरी। बच्चा भय के मारे दौड़ने लगता है और चार-पाँच कदम के बाद ही फिसल के गिर पड़ता है। झोली का अन्न बिखर जाता है। बच्चा उठता है। हवा पानी और कीचड़ उसे उठने नही दे रहे हैं। झोली की टोह लेता है, वह कुछ दूर पर छितरी पड़ी है। उसकी बड़ी मेहनत की कमाई, दिन भर की भूख का सहारा पानी में बहा जा रहा है। वह उठने की कोशिश से बार-बार फिसलता है। भीख में पाया हुआ आटा गीला और बहता हुआ देखकर वह रो पड़ता है। ‘हाय हाय हाय’ बिलखता हुआ फिर सरक-सरक कर तेजी से अपनी झोली के पास जाता है और उसे उठाकर झटपट कंधे पर टाँगता है। कीचड़ सनी थैली से आठे का पानी चू-चूकर उसकी पसली पर बह रहा है। आकाश फिर गरजता है। सहमा बच्चा उठकर चलने के लिए खड़ा होने का प्रयत्न सावधानी से करता हैं और अपने आपको घर की ओर बढ़ाने में सफल भी हो जाता है। घर बहुत दूर नही। पर घर है कहाँ? झोंपड़ियों के मानदण्ड से भी हीनतम आठ दस छोटी छोटी झोपड़ियों की बस्ती के लिए यह तूफान प्रलय बनकर आया था। अधिकाँशत झोंपड़ियाँ या तो उड़ गई थीं या फिर ढही पड़ी थीं। भिखारियों के टोले मे सभी अपने-अपने राज महलों की रक्षा करने के लिए जूझ रहे थे। उन्हीं में से एक कोने पर बना पार्वती अम्मा का घास-फूँस और ढाक के पत्तों का राजमहल भी ढहा पड़ा था। बहुत से ढाक के पत्ते और गली हुईं फूस टट्टर में से निकल चुकी थी। उसके बचे कुचे भाग के नीचे पड़ी पार्वती अम्मा कराह रही थी। उनकी गृहस्थी के मटके, कुल्हड़ टूटे पड़े थे।

बच्चा अम्मा कहकर झपटता है। ट्टटर के नीचे दबी पड़ी हुई बुढ़िया का आगे निकला हुआ हाथ पकड़ कर खीचनें का निष्फल प्रयत्न करता हुआ रो उठता है। बुढ़िया ने कराहकर आँखें खोली, बुझे स्वर में कहा- “किसो को बुलाय लाओ, तुमसे न उठेगी।

बच्चा बस्ती भर मे दौड़ता फिरा-“ए मंगलू काका, तनी हमारी अम्मा को निकाल देव। उनके ऊपर छप्पर गिर पड़ा है, ए भैसियाँ की बहू, ए सलौनी काकी, ए बचुआ की आजो, ए फेकवा भैया…… परन्तु न काका ने सुना, न भैया ने, न आजी ने । पूरी बस्ती इस प्रलय प्रकोप के कारण त्रस्त है। गोदी के बच्चे और अंधे लगड़े लूले असहायजन हर जगह रिरिया रहे हैं। बहुत से भिखारी इस समय आसपास के गाँवों मे अपनी कमाई करने गए हुए हैं। अत्यंत अशक्त जन ही पीछे छूट गए हैं। जैसे तैसे करके वे अपने ही ऊपर पड़ी से निबट रहे हैं, फिर कौन किसकी सुने।

मूसलाधार पानी में भीगता निराशा में डूबा हुआ रामबोला कुछ क्षणों तक स्तब्ध खड़ा रहा, फिर धीरे-धीरे अपनी गिरी हुई झोंपड़ी के पास आया। देखा, पार्वती अम्मा का हाथ वैसे ही बाहर निकला भीग रहा था। उनके मुँह और शरीर पर भीगते छप्पर का बोझ भी यथावत्‌ ही था। रामबोला की मनोपीड़ा कुछ कर गुजरने के लिए चंचल हो उठी। इधर-उधर सिर घुमाकर उपाय की खोज की। छप्पर का जो भाग फूस पत्ते विहीन होकर पड़ा था, उसके एक सिरे पर बाँस का एक छोटा टुकड़ा बड़े बाँस से जुडा हुआ बँधा था। बालक को लगा कि यही उपाय है।बाँस के इस टुकडें को खींच लिया जाए, फिर इससे अम्मा की देह पर पड़े हुए छप्पर को ऊँचा उठा दिया जाय जिससे कि अम्मा उसके नीचे सरक‌ कर पौढे़ ।उपाय सूझते ही काम चल पड़ा।बाँस का टुकड़ा खींचना शुरू किया तो छप्पर की पुरानी सुतली ही टूट गई। टूटने दो, अभी तो इस सिरे का छप्पर उठाना है।छप्पर के एक सिरे के नीचे बाँस का टुकड़ा अड़ाकर उसे उठाना आरम्भ किया। छप्पर का कोना तो तनिक सा ही उठ पाया पर जोर इतना लगा कि कीचड़ में पावँ फिसल गया। गिरा, फिर उठा, अबकी बार घुटने टेककर बैठा और फिर बाँस अड़ाया। छप्पर कुछ उठा सही पर नन्हें हाथ वो नहीं सँभाल पाए। बालक को अपनी पराजय तो खली ही पर अम्मा ऊपर का बोझ तनिक सा उठकर फिर मुँह पर गिरने से जब कराही, तब उसे अनचाहे अपराध की तरह और भी खल गया। ताव में आकर, जै हनुमान स्वामी, जोर लगाओ’ ललकार कर दूसरी बार छप्पर उठाने में रामबोला ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी।छप्पर लड़खड़ाया, पर उसे गिरने न दिया, और भी जोशीले हुंकारे भर भर कर वह अन्त में एक कोना उठाने मे सफल हो ही गया। फिर दूसरे कोने को उठाने की चिन्ता पड़ी। ‘इसे काहे से उठाएँ?” कोई मतलब की चीज दिखलाई न पड़ी। पड़ोसी के यहाँ कुछ खपाचिया पड़ी थीं, एक बार मन हुआ कि उठा लाए पर कुछ ही देर में गाली-मार के भय से वह उत्साह उड़नछू हो गया। टहनी काम के योग्य सिद्ध न हुई।

क्रमशः

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