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राम के तुलसी भाग – 15

चौकी के सामनेवाली दीवाल पर चूने से सूर्य का गोला बनाकर बाबा ने कभी गेरू से सीताराम लिख दिया था। फीके पड़ने से बचाने के लिए बार-बार पोते जाने से लिखावट और गोला तनिक विरूप तो अवश्य हो गया था किन्तु मौजूद था। चौकी पर रेशमी चादर और गद्दा बिछा था। बावा संतुष्ट मुद्रा में चारों ओर देखकर चौकी की ओर बढ़े। चादर को एक कोने से उठाकर देखा। नीचे बिछी हुई अपनी पुरानी चटाई को देखकर प्रसन्न हुए।

“रामू, ये गद्दा इत्यादि ठाठ बाट हटाओ”

सेठ जी के चेहरे पर फीकापन भाँपकर राजा भगत बोले- “अब बिछा है तो बिछा रहने देव। तुम्हारी बूढी हड्डियो को सुख मिलेगा।”

बाबा ने बच्चों की तरह से मचलकर कहा- “नही, अंतकाल में अपनी आदत क्यों बिगाड़ू।”

रामजियावन के घरवालों ने तब तक गद्दा-चादर उठा डाला था। चौकी पर बैठकर बाबा अपनी पुरानी चटाई पर हाथ फेरते हुए बोले-“ब्रह्मदत्त दमड़ी -दमड़ी की दो लाए थे। बारीक बुनी है। एक हमको दी और एक घाट पर बिछाई। हमारी तो जस की तस धरी है।”

“हाँ , हमें याद है महाराज, घाट पर ऐसी ही चटइया रही, वह तो कई बरस भए टूट गई।”

“दास कबीर जतन तें ओढ़ी,

ज्यो की त्यो घरि दीनी चदरिया”- कहकर बाबा हँसने लगे। उन्हें हँसते देखकर सभी खिलखिला पड़े।बरसाती मक्खियों सी चिपकी भीड़ बड़े मनुहार के बाद गई। सेठानी जी चाहती थी कि उनके द्वारा रखी हुई पादुकाओं को गोसाईं जी यदि यहाँ रहते हुए निरंतर न पहने तो कम से कम एक बार उसमे पैर ही डाल दे जिससे कि वे सेठानी की पूजा की वस्तु हो सके। रानी साहब का मन रखने के लिए नई कलम और चाँदी की दवात भी रखनी ही पड़ी।इस प्रकार कुछ देर के बाद ही भोजन हो सका, बाबा तथा उनकी मण्डली के भोजन करते न करते ऐसी मूसला धार वर्षा आरम्भ हुई कि थोड़ी ही देर में पनारे बह चले। भोजन करके बाबा फिर अपनी कोठरी मे आ गए। वेनीमाधव जी तथा राजा भगत दूसरी कोठरी में टिकाए गए थे। रामू बाबा के साथ था।उससे पैर दबबाते हुए बाबा को कंपकंपी आ गई। थोड़ी देर बाद रामू का ध्यान बाबा के सिरहाने दीवार के कोने पर गया। दीवार के सहारे छत से पानी की लकीर बह रही थी।इससे रामू को विशेष चिन्ता व्यापी और वह अपने गले से तुलसी माला उतारकर कन्धे पर पड़े अँगोछे में हाथ छिपाकर जप करने लगा। थोड़ी देर में’खल-खल’ की आवाज कानों में पड़ी। आँखें खोलकर पहली दृष्टि सोते हुए गुरू जी पर और दूसरी बहती दीवार पर डाली। पानी अब अधिक तेजी से बह रहा था। धरती के कोने से मटमैला पानी मोटी धार में बह रहा था और उसी से ‘खल-खल’ की ध्वनि हो रही थी। रामू की आँखे अब उधर ही टिक गईं। सहसा धरती के सिरे से एक बड़ा मिट्टी-का लोदा पानी के साथ धप्प से फर्श पर गिरा। ऊपर से आनेवाले पानी की धार और मोटी हुई। द्वार से आँगन में झाँका, पानी बहुत ज़ोरों से बरस रहा था।आकाश मे बिजली ऐसे कड़क रही थी मानों इसी छत पर टूटकर गिरेगी। अब रामू से बैठा न रहा गया। बिना आहट किए चौकी से उठा और सोते हुए महापुरुष के चेहर पर एक दृष्टि डालकर फिर द्वार से बाहर निकलकर, छप्पर पड़े, जगह-जगह से चुआते हुए दालान से होकर आगे वाली कोठरी के द्वार पर पहुँचा । देखा कि राजा भगत सो रहे हैं और वेनीमाधव जी आँगन की और मुँह किए बैठे सुमिरनी के घोड़े दौड़ा रहे हैं।रामू ने संकेत से उन्हें बाहर बुलाया और कहा -“ब्रह्मचारी जी आप तनिक प्रभु के पास बैठ जायें। वे सो रहे हैं और कोठरी में पानी चूआते -चूआते अब पनाला बह चला है। मैं भीतर कहने जा रहा हूँ।” बेनीमाधव जी तुरन्त बाबा की कोठरी को ओर चल पड़े। जाकर देखा कि दीवार से बहकर आते हुए पानी से कोठरी के गोबराये हुऐ फर्श पर तलैया बन रही है। वे द्वार के पास ही खड़े हो गए। गुरू जी गहरी नींद मे थे। कुछ देर बाद वे अचानक बड़बड़ाए -“राम-राम , फिर बेचेनी से करवट बदली। ‘खल- खल खल-खल’ ध्वनि से आँखें खुल गईं। तकिये से सिर उचकाकर बहता कोना देखा, फिर छत देखी, फिर बेनोमाधव की ओर ध्यान गया, बैठ गए, कहा- “रामू इसी के उपचार की चिन्ता में गया होगा।”

“हाँ गुरू जी, मिट्टी की दीवार है, कहीं अधिक पोल हुई तो ये फिर रोक न पाएगी। पानी बड़ी जोरों से पड़ रहा है।”

“हाँ , जब स्वप्न में उत्पात हो रहा था तो जाग्रतावस्था में भी उसका कुछ न कुछ प्रमाण तो मिलना ही चाहिए। राम करे सो होय।”

“क्या कोई बुरा स्वप्न दखा था आपने?” “स्वप्न में हम काशी में थे। विश्वनाथ जी के दर्शन करके गली मे आए तो सहसा उनका नंदी हमें सींग मारने के लिए झपटा। हम राम-राम गोहराने लगे तभी नींद खुल गई। ऐसा लगता है कि अब हमारी आयु शेष हो चली है।”

सुनते ही बेनीमाघव जी सहसा भावुक हो गए। आँखें छलछला उठी, हाथ जोड़कर बोले- “अपने श्रीमुख से ऐसे अशुभ वचन न कहे गुरू जी। आपका जीवन हमारी छत्रछाया है।”

तब तक रामू, रामजियावन और उनके छोटे भाई रामदुलारे आ पहुँचे। बहती दीवार के कोने का निरीक्षण करके रामदुलारे बोला- “ई मूसन की करतूत है। ऊपर नाज सुखावा गवा रहे ना। अबहिं ठीक होत है दादा, महाराज जी का दूसरी कोठरी मा ले जाव।”

 

रामू और बेनीमाधव जी उन्हे सहारा देकर उठाने के लिए झुके, सरककर आगे आते हुए बाबा ने हँसकर कहा-“अरे बेटा, बालपने में तो हम ऐसी झोपड़ी में रहे हैं कि पानी गलावे और घूप तपावे। हमारी पार्वती अम्मा कहे कि जिससे राम जी तपस्या कराते हैं उसे ऐसा ही महल देते हैं।” हँसते हुए यह कहकर वे सहारे से उठे।

कोठरी मे भीड़-भाड़ होने से राजा भगत की आखँ खुल गईं। उन्हें इस कोठरी मे अचानक आने का कारण बतलाया गया। तब तक बेनीमाधव जी भी चौकी पर बैठ गए। बेनीमाघव जी ने छूटा हुआ प्रसँग फ़िर उठाया-“पार्वती माँ कौन थी गुरू जी ?”

“मेरी शरणदायिनी, जगदंबा रूपिणी बूढ़ी भिखारिन।”

क्रमशः

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