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राम के तुलसी भाग – 13

बाबा प्रगाढ़ श्रद्धा के नशे में अपने अंदर ही अंदर झूमने लगे। पर्वत की ओर देखते हुए वे हाथ बढा़कर अपनी ही कविता की पंक्तियाँ सुनाने लगे-

 

चित्रकूट अचल अहेरी बैठयो घात मानों, पातक के बात घोर कारज सम्हारिवे।

 

ऐसा लगता है कि मानों कलिणग आज तक यहाँ प्रवेश करने का साहस भी नही कर पाया है। यहाँ अब भी जगदम्वा सहित रामभद्र निवास करतें हैं और लखनलाल सदा वीरासन पर बैठकर पहरा दिया करतें हैं।

रामू ने पूछा- “क्या अयोध्या में भी आपको ऐसा ही अनुभव होता है?

बाबा क्षण भर के लिए मौन हो गए फिर गंभीर स्वर में कहा- “सीताराम तो हिये में समाए है, जहाँ जाता हूँ वही वे ही वे दिखलाई पड़तें हैं। फिर भी अयोध्या सदा मुझें अगम कूप के समान लगी, जिसमे डूबकर बैठ रहने को जी चाहता है। अयोध्या का अनुभव मूक, पर चित्रकूट सदा मुखर है। (भाव-विभोर होकर गाने लगे)

 

राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चितचारु। तुलसी सुभग सनेह वस सिय रघुवीर विहारु॥

 

रामघाट पर पहुँचते ही राजा भगत को तो बहुत-से लोग पहचान गए परन्तु बाबा को अपना कोई पूर्व परिचित न दिखाई दिया।

“अरे भगत है, आओ- आओ, जय सियाराम ” एक अधेड़ वय के घाटवाले नें राजा भगत से रामजुहार करते हुए गोसाईं बाबा और उनके दोनों शिष्यों की ओर देखा, चन्दन घिसते हुए उनसे भी जै सियाराम की, फिर बाबा को देखा, फिर देखा, दृष्टि हटती भी नहीं और मिलती भी नहीं। कौन महात्मा है?

“जै सियाराम, जै सियाराम। राम जियावन महाराज, तुमरे वप्पा कहाँ हैं?” – राजा भगत ने अपने कंधे पर पड़ी हुई चादर उतारकर तखत झाड़ना आरम्भ कर दिया।

“बप्पा तो राम जी के घर गए।यह तीसरा महीना चल रहा है।”

“अरे” – रामजियावन घाटवाले से कह कर राजा भगत बाबा से बोले – “भैया विराजो”

“यह तो ब्रह्मदत्त का तखत है।” बाबा ने पहचानते हुए कहा, फिर घाटवाले को ध्यान से देखकर बोले- “रामजियावन”

“अरे बाबा आपकी जटा-दाढ़ी न रहै से पहिचान न पाए।” कहते हुए गदगद भाव से झपटकर रामजियावन उनके पैरों पर गिर पड़ा। आशीर्वाद पाकर फिर रोते हुए बोला- “इत्ती वेला वप्पा होते तो”-  गला भर आया, कुछ कह न सका। आँसू पोंछने लगा।

“क्या कुछ माँदे हुए थे?” राजा भगत ने पूछा।

“नहीं , अरे भले-चंगे, दरसन के काजे आए, हियाँ बैठे, सबसे बोलते-बतियाते रहे। फिर बोले कि जी होता है कासी जी जाएँ, विस्वनाथ बाबा के दरसन करे, और बाबा का नाम लिया कि इनके आसरम में अपना अंत समय बितावें।बोलते बोलते उनका दम घुटे लागा। हम पूछा, बप्पा का भयो। तब तक उतै लुढ़कि पड़े।”

“राम-राम”

“बड़े भले रहे बरमदत्त महाराज। तुमरे बड़े भगत रहे भैया।”

“ब्रह्मदत्त मेरे परममित्र और उपकारी थे।जब यहाँ आया तब उन्हीं के घर पर रहा।” बाबा ने कहा । |

गद्गद स्वर में राम जियावन बोला- “आपकी कुठरिया तो महराज हमारे घर में अब दरशन का अस्थान बन गई है। रामनौमी को भीड़ की भीड़ आती है। आपकी चौकी, पूजा का आसन, पंचपात्र, सब जहाँ का तहाँ धरा है।”

“ठीक है, वहीं रहूँगा।”

“अरे बाबा, हम सब जनों का भाग जागा जो आप पधारें।”

घाटवाले के घर के बाहरी भाग मे एक बड़ा-सा कच्चा आँगन था। उसी में कुछ कोठरियाँ भी बनी थीं, जो सम्भवत. यात्रियों के ठहरने के लिए ही बनवाई होगीं। बाबा की कोठरी कोने मे थी।भीतर कच्चे अहाते की ओर भी उसका एक द्वार खुलता था इसलिए हवादार थी। बाबा की चौकी, पूजा का स्थान आदि सब वैसा का वैसा ही था, स्वच्छ और सुव्यवस्थित। वहाँ प्रतिदिन प्रात.काल राम जियावन की बेटी गौरी और भतीजी सियादुलारी सस्वर रामायण पाठ करती हैं। दो तोर्थवासिनी विधवा रानिया तथा चित्रकूट के सेठ परिवार की स्त्रियाँ, सब मिलाकर आाठ-दस सम्भ्रांत महिलाओं का जमाव होता है। राम जियावन के परिवार को उससे अच्छी वाषिक आय भी हो जाती है। लड़कियाँ आठ नौ साल की हैं, कण्ठ बड़ा ही मधुर है। स्व० ब्रह्मदत्त ने अपनी पोतियों को बचपन से ही रामायण रटाना आरम्भ करा दिया था। किसी राम-भक्त धनी यजमान से दक्षिणा लेकर उन्होने राजा भगत की मार्फत ही रत्नावली जी की प्रति से मानस की एक प्रतिलिपि तैयार कराई थी। मानस-पाठ की कृपा से उन्होंने बहुत कमाया। वे राम से अधिक तुलसी भक्त थे। सोरों से विक्रमपुर आकर बसने पर बाबा जब पहली बार राजा के साथ चित्रकूट आए थे तभी से उनका नेह- नाता बंध गया था। रामघाट पर ही उन्होंने वाल्मीकीय रामायण बाँची थी। संसारी होने के बाद एक बार फिर कथा बाँचने के लिए यहाँ बुलाए गए थे।

तब पत्नी के साथ आए थे और ब्रह्म दत्त के यहाँ ही टिके थे।संसार त्याग करने के बाद बाबा जब यहाँ आए तब पहले तो गुप्तवास किया परन्तु ब्रह्मदत्त ने एक दिन उन्हें देख लिया और घेरकर अपने घर ले आए। तदुपंरान्त मठ का गोस्वामी पद ग्रहण करने से पहले एक बार फिर आए। ब्रह्मदत्त के घर पर ही टिके और रामघाट पर रामचरित मानस सुनाया था। अपनी इस यात्रा मे बाबा चित्रकूट के जन-मानस में ऐसे बस गए थे, कि उनके यहाँ से जाने के बाद भी उनकी स्मृति रूपी पतंग को किंवदंतियों की लम्बी डोरी बाँधकर लोग-बाग आज भी उड़ाया करते हैं।

 

रामजियावन ने बाबा के शुभागमन का समाचार जब अपने घर भेजा तब गौरी और सियादुलारी रामायण बाँच रहीं थीं और नियमित रूप से आनेवाली स्त्रियाँ सुन रहीं थीं। स्त्रियों में बात पहुचीं तो बिजली बनकर घर-घर पहुँच गई। घाट पर कानोंकान उडी़ तो दम-भर में जनरव बन गई। हाठ-बाट, गली- गली, जहाँ देखो वहीं यह चर्चा थी कि गोसाईं जी पधारे हैं। पिछली पीढ़ी वालों का पुराना नेह और नई पीढ़ी का कौतूहल उमड़ा । बहुत से लोग तो अपना काम धाम छोड़कर रामघाट की ओर लपके। जिस समय बाबा स्नान करने के लिए नदी में पैठे उस समय घाट पर पचास तो जन जुट आए थे। इधर- उधर से भीड़ बरावर आती ही जा रही थी।

“वो रहे महाराज–वो ! इन्हें राम जी साच्छात दरसन देतें हैं। यहाँ बहुत दिनों तक रह चुके हैं। बरसों बाद आए हैं। आहा.. कैसा तेज है।” 

क्रमशः

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