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राम के तुलसी भाग – 11

पंडित आत्माराम ने उदास स्वर में कहा-“हमारा बेटा बुरी साइत में आया है।”

“हैं, महाराज? ”

“भुक्तमूल नक्षत्र।महतारी बाप के लिए तो काल बन के आया हैं, काल।”

द्वार पर खड़ी दासी का चेहरा भय से जड़ हो गया। वह भीतर भागी। कोने की कोठरी के आगे पडांइन दीवार से टिकी बैठी हुई जोर-जोर से पंखिया झल रही थी। उन्हें देखकर दासी वहीं आकर धम्म से यों बैठ गई मानों उसका दम निकल गया हो। 

“क्या भया, मुनियाँ?”

 “का कही, महाराज कहत है कि महतारी-बाप के लिये काल आया है।”

उसी समय सुकरू अहिर की अम्माँ झपाटे के साथ घर में घुसी और दरवाजे से ही चिल्लाकर कहा- “राजकुँवरी को पकड़ लइ गए भौजी।”

“हैं”

“और रानी जू कूएँ में फांदि मरीं। महल की औरतों का बड़ा बुरा हाल हुई रहा है।”

जंगल में लगी आग की पृष्ठभूमि में बंधी हुई राजमणियों के साथ छकडों और खच्चरों पर लदा हुआ लूट का माल लेकर मुगल सिपाही जीत और लूट की मस्ती में गाते, बीच-बीच में एकाद बन्दी अथवा बंदिनी पर चाबुक बरसाते अपने पड़ाव के सामनेवाले बड़े तंबू की तरफ बढ़ रहें हैं। तम्बू में सरदार मसनद पर बैठा बेडिनों का नाच देख रहा है।सिपाही तम्बू में लूट की मूल्यवान वस्तुएँ लाकर सामने रखतें हैं, फिर औरतें लाई जातीं हैं और अंत मे एक अति सुन्दरी नवयौवना। उसे देखते ही नाचना भूलकर बेडिन के मुँह से बेसाख्ता निकल गया-“कुँवरीजू”

सरदार ने राजकुमारी के सौन्दर्य को उपेक्षा भरी दृष्टि से देखा, पूछा- “तू कौन है?”

“राजकुँवरी , सरकार” – वेडिन ने राजकुमारी का परिचय दिया। “खामोश, इसे बोलने दे। नाम बतला” राजकुमारी तमतमाया मुख झुकाए मौन खड़ी रही। सरदार ने नाचने वाली से कहा -“झोटा खींचकर इसका सिर उठा।”

बेडिन झिझकी, फिर कुँवरी की ओर बढ़ी ही थी कि उसने हाथ बढ़ाकर बेडिन के गाल पर जोर से एक थप्पड़ मारा। बेडिन चकराकर गिर गई।

सरदार ने दूसरी बेडिन से कहा-“देखती क्या है, शाहजादी साहबा की लातों से खातिर कर, ये बातें से नही मानेगी।”

दोनों वेडिने राजकुमारी पर टूट पड़ीं।सरदार सोने के गगरे से जवाहरात निकालकर देखने लगा।

राजकुमारी के अपमान की खबरें गाँव में पहुचीं। बरगद तले इस समय अधिक लड़ाकौं की भीड़ थी। आस-पास के दो तीन गाँवों के लोग जुट आए थे।

“सुना है मुगल लोग धौकलसिंह को राजगद्दी देंगे।”

“ये धौकल और अब्यू खाँ पठान तो बडे़ दगावाज निकले।बिचारे राजासाहेव को लड़वाय दिया और आप आयके बवैरियो में मिल गए।”

“कोऊ इन गद्दारन की गरदन काट लावे तो हम वहिके चरन घोय-धोय के पियव। सारे हमार कुँवरीजू का वेडनिन तें पिटवाइन”

“पिटवाया ही नहीं , उन्हें वेडनियो के हाथों सौंप भी दिया है। इस अपमान का बदला जरूर लिया जाएगा। हम लोगों में तो कौल-करार हुइ चुका है। आज रात मुगलों की छावनी पे हमारा धावा होगा। जिसमें अपनी मर्दानगी का मान होय वो हमारे साथ आव और हम जौ आज धौकलवा सारे का मूड़ अपने हाथ से न काटा तो असल छत्री के बेटा नहीं।”

“और राजकुँवरी कहाँ है?”

“घौकल सिंह के कब्जे में है। सुना है बेडनियो को दुइ सौ मोहर दै के उनको खरीद……”

“क्या ? ये धौकलवा अब इतना गिर गवा है ? हम तुमरे साथ हैं चंदनसिंह। आज बिक्रमपुर के सूर-बीरों की तलवार का पानी देखना।”

बहुत दूर नही, गाँव की सीमा के भीतर ही कहीं काक डोलक मजीरों और बधावे के गीतों की आवाज झंझाने लगी।

“हैं, मरघट में दीवाली ! ये बधावे कौन “बजवाय रहा है?”

“अरे, अब कलजुग है चन्दनसिह। परमेसरी पंडित अब्यू खां पठान के ज्योतिषि भये हैं। आत्माराम महाराज के घर बेटा हुआ है तन, इसीलिए पंडिताइन ने भाई के घर बधावा भेजा है |”

“अरे, तो आज का मनहूस दिन ही मिला रहा इन्हे ?”

“परमेसुरीदीन के लिए मनहूस थोड़े है। अब्बू खाँ पठानी से गद्दारी करके मुगलों से मिल गए और परमेसुरी अपने साले आतमा महाराज को धोखा देके, अब्बू खां के ज्योतिषी बन गए, लम्बी भेंट पाय गए”

आत्माराम जी के बैठके में पंडाइन भौजी आँसू पोंछती सिर झुकाए खड़ी थी।उकड़ू, बैठे हुए आत्माराम जी का मुखमण्डल क्रोध और क्षोभ से बिफर रहा है। उनके बहनोई ने उससे ही अब्यू खाँ जमीदार के भविष्य की खैर-खबर पूछी और उन्हे कोरा सवा टका देकर बाकी दक्षिणा आप हड़प गए ।अब अपनी सम्पन्नता और उनकी विपन्नता का ढोल पीटने के लिए इतनी धूमधाम से बधावा भेज रहें हैं।आत्माराम की आंखें क्रोध के मारे छलक पडी़, कहा-“सत्यानाश जाय इस दुष्ट का। हमारे दुर्भाग्य पर हँसने के लिए यही अवसर मिला था उसे? वह सन्निपात में पडी़ है, गाँव शोक-मग्न है और यह गद्दारों का हिमायती बाजे बजवा रहा है।“

“अरे परमेसुरी को तो सात गाँव के लोग जानते हैं। भूलो उस नासपीटे को, भीतर आओ। हुलसिया हमार अब जाय रही है। ऐसा हत्यारा जनमा है कि बिचारी को न बैद मिला न दवा-दारू हुई सकी । हाय राम ज़ी, यह क्या गजब कर डाला है ईसुरनाथ।” पंडाइन फिर रो पड़ी और पल्‍ले से आँखें ढँक लीं।

“जाय के क्या करूँगा भौजी? (आकाश की ओर दृष्टि-संकेत करके ) अव तो वहीं भेंट होगी।” कहते हुए आँखे फिर छलछला उठीं। बाजे और पास सुनाई पड़ने लगे थे।

“जाओ, तुम्हें हमारी सौंह। चमेली जिजिया, तुम इनको भीतर लिवा ले जाओ।हम इनको भगाय के आतीं है।”पडांइन भौजी क्रोधावेश में बैठक से बाहर निकल आईं। घर के उढ़के हुए द्वार खोलकर माई के चबूतरे पर चढ़कर

खेत के पार बरगद के नीचे जुटे हुए पुरुष समाज को गुहारा- “ए भैरोंसिंह, सुकरू, बचवा के बप्पा।अरे दुइ तीन जने हियाँ आवौ हाली-हाली।ए बचवा के वप्पा …..”

उधर से भी गुहार का जवाब सुनकर पंडाइन चबूतरे से उतरी और सीढ़ियों पर मत्था टेककर कहा- “हे मैया, अब अपना कोप बाँधि लेव महतारी। गाँव की ये विपदा हरो जगदबा।अब तो करेजा काँप उठा है हमार। का होई है

महरानी?”

बाजे बहुत पास आ चुके थे और उसकी प्रतिक्रियावश पंडाइन का भय- कम्पित अश्रु-विगलित स्वर क्रोधावेश में सहसा प्रचण्ड हो गया। वे कोसने कोसती हुई बाजेवालों की तरफ लपकी- “अरे सत्यानास जाय, गाज गिरे तुमरे ऊपर और तुमको भेजनेवाले के ऊपर।चुपाओ सबके सब।हुआँ त्राह-त्राह मची है और तुम ……..”

क्रमशः

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