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वैदिक ज्योतिष के अनुसार " राज योग " विश्लेषण

राजयोग का मतलब कोई राजा बनने से नहीं बल्कि यश, सफलता और समृद्धि के योग से है। अगर कुंडली में राजयोग मजबूत है तो उसे कम प्रयासों में ही अच्छा जीवन प्राप्त होता है लेकिन अगर राजयोग कमजोर है तो उसे जीवन में सभी सुख प्राप्त करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। अगर राजयोग निश्चित आयु में शुरू होता है तो उस व्यक्ति को सभी सुख मिलते है। राजयोग की आयु का निर्धारण ग्रहों द्वारा किया जाता है। यह राजयोग जीवनभर रहता है। राजयोग की वजह से व्यक्ति को खुशियां, समृद्धि और सफलता आसानी से मिलती है। अगर कुंडली में कोई योग मजबूत स्थिति में है तो उस व्यक्ति को राजयोग का लाभ नहीं मिलता है।

 

कुंडली में केंद्र  (1, 4, 7, 10) और त्रिकोण (5, 9) भावों के बीच संबंध से राज योग का निर्माण होता है। इन भावों के स्वामियों के बीच जितना मजबूत संबंध होता है, उतना ही शक्तिशाली राज योग बनता है। लग्न को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है यह केंद्र के साथ-साथ यह त्रिकोण भाव भी माना जाता है।  नीचे दी गई परिस्थितियों में जातक की कुंडली में राज योग का निर्माण होता है।

अगर कोई केन्‍द्र का स्‍वामी किसी त्रिकोण के स्‍वामी से सम्‍बन्‍ध बनाता है तो उसे राजयोग कहते हैं। केन्‍द्र मतलब 4, 7, 10 भाव और त्रिकोण मतलब 5 और 9 भाव। पहला भाव केन्‍द्र और त्रिकोण दोनों माना जाता है। जैसा पहले बताया दो ग्रहों के बीच संबध का मतलब -युति यानि एक दूसरे को देखना, दृष्टि यानि एक साथ बैठना, परिवर्तन यानि एक दूसरे की राशि में बैठना – जैसे मेष राशि वाले के लिए त्रिकोण यानि पांचवे और नवें भाव के स्‍वामी हैं सूर्य और गुरु। अगर इनका पहले भाव के स्‍वामी यानि मंगल, या चौ‍थे भाव का स्‍वामी यानि चंद्र, या सातवें भाव का स्‍वामी यानि शुक्र या दसवें भाव का स्‍वामी यानि शनि से युति, दृष्टि या परिवर्तन हो तो पाराशरी राजयोग बनेगा। जितने ज्‍यादा संबंध होंगे उतने ज्‍यादा राजयोग होंगे।

 

कुंडली में शुभ ग्रहों की स्थिति, युति या दृष्टि से  राज योग का निर्माण होता है। कुंडली में मौजूद राज योग से आपके जीवन की कई परेशानियां दूर हो जाती हैं। कुंडली में राज योग के होने से सकारात्मकता की भावना आपके अंदर आती है, राज योग के समय काल को जानकर आप इसका ज्यादा से ज्यादा फायदा उठा सकते हैं। जरूरी कदम उठाकर आप अपने स्वर्णिम काल के दौरान अपने जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति कर सकते हैं।

 

लग्न, पंचम और नवम के स्वामी एक दूसरे के घर में हों तो ऐसे जातक राजा होते हैं। जिस जातक के लग्न, पंचम और नवम में शुभ ग्रह स्थित हों, उसे भी राजयोग मिलता है। एकादश भाव में कई शुभ ग्रह एक साथ विराजमान होने पर भी राज योग बनता है। त्रिकोण के गृह स्वग्रही या उच्च के हों तो ऐसा जातक जीवन में बहुत धन अर्जित करता है और कई धार्मिक कार्य करता है। ऐसे जातक अक्‍सर विद्यालय खोलते हैं, मन्दिर और धर्मशाला बनवाते हैं। साथ ही वे बहुत ही धनी, दानी और लोकप्रिय होते हैं।

 

विभिन्न प्रकार के राजयोग :-

 

[1] विपरीत राजयोग :-

 

“रन्ध्रेशो व्ययषष्ठगो,रिपुपतौ रन्ध्रव्यये वा स्थिते।

रिःफेशोपि तथैव रन्ध्ररिपुभे यस्यास्ति तस्मिन वदेत,

अन्योन्यर्क्षगता निरीक्षणयुताश्चन्यैरयुक्तेक्षिता,

जातो सो न्रपतिः प्रशस्त विभवो राजाधिराजेश्वरः॥”

जब छठे,आठवें,बारहवें घरों के स्वामी छठे,आठवे,बारहवें भाव में हो अथवा इन भावों में अपनी राशि में स्थित हों और ये ग्रह केवल परस्पर ही युत व दृष्ट हो, किसी शुभ ग्रह व शुभ भावों के स्वामी से युत अथवा दृष्ट ना हों तो ‘विपरीत राजयोग’ का निर्माण होता है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य धनी,यशस्वी व उच्च पदाधिकारी होता है।

 

विपरीत राजयोग क्या है ? जिस प्रकार कुण्डली में राजयोग सुख, वैभव, उन्नति और सफलता देता है उसी प्रकार विपरीत राजयोग भी शुभ फलदायी होता है I ज्योतिषशास्त्र के नियमानुसार जब विपरीत राजयोग बनाने वाले ग्रह की दशा चलती है तब परिस्थितयां तेजी से बदलती है और व्यक्ति को हर तरफ से कामयाबी व सफलता मिलती है I इस समय व्यक्ति को भूमि, भवन, वाहन का सुख प्राप्त होता है I विपरीत राजयोग का फल व्यक्ति को किसी के पतन अथवा हानि से प्राप्त होता है I इस योग की एक विडम्बना यह भी है कि इस योग का फल जिस प्रकार तेजी से मिलता है उसी प्रकार इसका प्रभाव भी लम्बे समय तक नहीं रह पाता है I

 

विपरीत राजयोग कैसे बनता है ?

विपरीत राजयोग के प्रभाव के विषय में जानने के बाद मन में यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि यह योग बनता कैसे है I ज्योतिषशास्त्र में कहा गया है कि जब कुण्डली में त्रिक भाव यानी तृतीय, छठे, आठवें और बारहवें भाव का स्वामी युति सम्बन्ध बनाता है तो विपरीत राजयोग बनता है I त्रिक भाव के स्वामी के बीच युति सम्बन्ध बनने से दोनों एक दूसरे के विपरीत प्रभाव को समाप्त कर देते हैं I इसका परिणाम यह होता है कि जिस व्यक्ति की कुण्डली में यह योग बनता है उसे लाभ मिलता है I

 

विपरीत राजयोग फलित होने का सिद्धांत :- विपरीत राजयोग बनाने वाले ग्रह अगर त्रिक भाव में कमज़ोर होते हैं या कुण्डली में अथवा नवमांश कुण्डली में बलहीन हों तो अपनी शक्ति लग्नेश को दे देते हैं I इसी प्रकार अगर केन्द्र या त्रिकोण में विपरीत राजयोग बनाने वाले ग्रह मजबूत हों तो दृष्टि अथवा युति सम्बन्ध से लग्नेश को बलशाली बना देते हैं I अगर विपरीत राजयोग बनाने वाले ग्रह अपनी शक्ति लग्नेश को नहीं दे पाते हैं तो व्यक्ति अपनी ताकत और क्षमता से कामयाबी नहीं पाता है बल्कि किसी और की कामयाबी से उसे लाभ मिलता है I

 

[2] नीचभंग राजयोग :-

 

जन्म कुण्डली में जो ग्रह नीच राशि में स्थित है उस नीच राशि का स्वामी अथवा उस राशि का स्वामी जिसमें वह नीच ग्रह उच्च का होता है, यदि लग्न से अथवा चंद्र से केन्द्र में स्थित हो तो ‘नीचभंग राजयोग’ का निर्माण होता है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य राजाधिपति व धनवान होता है।

 

कुण्डली में जब कोई ग्रह नीच राशि का होता है और जिस भाव में वह होता है उस भाव का राशिश अगर उच्च राशि में हो अथवा लग्न से केन्द्र में उसकी स्थिति हो तब यह नीचभंग राजयोग कहा जाता है.  उदाहरण के तौर बृहस्पति मकर राशि में नीच का होता है लेकिन मकर का स्वामी शनि उच्च में है तो यह भंग हो जाता है जिससे नीचभंग राजयोग बनता है I

 

[3] केन्द्र त्रिकोण राजयोग :-

 

कुण्डली में जब लग्नेश का सम्बन्ध केन्द्र या त्रिकोण के स्वामियों से होता है तो यह केन्द्र त्रिकोण सम्बन्ध कहलाता है.  केन्द्र त्रिकोण में त्रिकोण लक्ष्मी का व केन्द्र विष्णु का स्वरूप होता है.  यह योग जिस व्यक्ति की कुण्डली में पाया जाता है वह बहुत ही भाग्यशाली होता है.  यह योग मान सम्मान, धन वैभव देने वाला होता है I

 

[3] अन्य राजयोग :-

 

(i) जब तीन या तीन से अधिक ग्रह अपनी उच्च राशि या स्वराशि में होते हुए केन्द्र में स्थित हों।

(ii) जब कोई ग्रह नीच राशि में स्थित होकर वक्री और शुभ स्थान में स्थित हो।

(iii) तीन या चार ग्रहों को दिग्बल प्राप्त हो।

(iv) चंद्र केन्द्र में स्थित हो और गुरु की उस पर दृष्टि हो।

(v) नवमेश व दशमेश का राशि परिवर्तन हो।

(vi) नवमेश नवम में व दशमेश दशम में हो।

(vii) नवमेश व दशमेश नवम में या दशम में हो।

 

[4] महाराज योग :-

 

जन्म कुंडली में लग्न (1st House) और पंचम भाव (5th House) मजबूत स्थिति में हो और भावो के अलावा इन किसी अन्य दुर्भाव के स्वामी ना हो और एक साथ किसी केंद्र या त्रिकोण स्थान में हो ये महाराज योग निर्मित होता है , यही परिस्थिति तब भी निर्मित होती है जब आत्मकारक ग्रह (कुंडली में सर्वाधिक अंशों वाला ग्रह) और पुत्रकारक ग्रह (कुंडली में  पांचवा सर्वाधिक अंशों वाला ग्रह)  मजबूत स्थिति में केंद्र या त्रिकोण स्थिति में हो।

इन ग्रहो का नवमांश में नीच की स्थिति में होने पर या छठे , आठवें या बारहवे के स्वामी होने की स्थिति में ये योग कमजोर होता है।

 

[5] धर्मकर्माधिपति योग :-

 

धर्मकर्माधिपति योग को ज्योतिषीय ग्रंथो में अत्यन्त महत्वपूर्ण योग कहा गया है , इस योग के साथ जन्मा व्यक्ति धर्म और समाजसेवा के क्षेत्र में कोई बड़ा और महत्वपूर्ण कार्य करते हुए किसी सामाजिक संस्था का मुखिया या किसी महत्वपूर्ण पद को प्राप्त करने के साथ विशेष ख्याति अर्जित करता है।

 

नवम भाव (9th House) जन्म कुंडली का धर्म का भाव होता है और दशम भाव (10th House) कर्म स्थान कहलाता है जब इन दोनों भावो के स्वामी ग्रह एक दूसरे के स्थान परिवर्तन कर रहे  हो , या किसी केंद्र और त्रिकोण स्थान में हो या मजबूत स्थिति में एक दूसरे पर दृष्टि डाल रहे हो तब उस परिस्थिति में धर्मकर्माधिपति योग निर्मित होता है।

 

[6] कलानिधि योग :-

 

इस योग के साथ जन्मे लोग उत्साह से भरपूर ऊर्जावान , बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व और स्वभाव के , शासन द्वारा सम्मानित, समृद्ध , बहुत से वाहनों के स्वामी और सभी प्रकार की  बीमारियों से दूर एक स्वस्थ शरीर के स्वामी होते है।

 

जन्म कुंडली में गुरु द्वितीय (2nd House) या पंचम (5th House)  स्थान में शुक्र या बुध से दृष्ट होतो कलानिधि योग निर्मित होता है।  एक अन्य परिस्थिति में अगर गुरु 2nd या 5th house में शुक्र या बुध की राशि में स्थित हो तो तब भी इस योग के फल प्राप्त होते है।

 

[7] मल्लिका योग :-

 

जैसा की मल्लिका योग के नाम से स्पष्ट होता है ७ ग्रहों का एक माल के रूप में एक साथ ७ विभिन्न भावो में स्थित होने को मल्लिका योग नाम दिया गया है , महत्वपूर्ण ये है की शास्त्रों में बारह तरह के मल्लिका योग का वर्णन किया गया है कुंडली के किस भाव से शुरू हो कर किस भाव तक ये योग निर्मित हो रहा है , वो विभिन्न प्रकार के मल्लिका योग होते है , उस सभी विभिन्न प्रकार के फल प्राप्त होते है , जैसे लग्न मल्लिका – उच्च पद और  प्रतिष्ठा , धन मल्लिका– धनी और बड़े व्यवसाय का मालिक , विक्रम मल्लिका– हिम्मत वाला, साहसी और सेना या पुलिस का बड़ा अधिकारी , सुख मल्लिका – बहुत से वाहन और भवन का स्वामी और विभिन्न प्रकार के सुख भोगने वाला , पुत्र मल्लिका –अत्यन्त धार्मिक और प्रसिद्ध , शत्रु मल्लिका -कमजोर , गरीब और दुखी, कालत्र मल्लिका – सुखी वैवाहिक जीवन वाला और प्रसिद्ध , रनधर मल्लिका – गरीब और बेसहारा , भाग्य मल्लिका – धनि , प्रसिद्ध और दानी , कर्म मल्लिका – प्रसिद्ध, कर्मवीर और समाजसेवी , लाभ मल्लिका -बड़े मित्र वर्ग वाला और किसी कला का महारथी , व्यय मल्लिका -सम्माननीय , प्रतिष्ठित और दानी।

[8] इंद्रा योग :-

 

ये एक बहुत ही सुन्दर और महत्वपूर्ण योग है इस योग में जन्म लेते वाले बहुत साहसी , अति प्रसिद्ध और उच्च पद को प्राप्त करने वाले होते है, ये जीवन में सभी प्रकार का सुखो का भोग करते है।

 

इस योग फल के लिए आवश्यक है की  लग्न भाव का स्वामी और नवम भाव का स्वामी मजबूत स्थिति में हो साथ ही 5th House और 11th house के स्वामी ग्रह एक दूसरे के साथ राशि परिवर्तन कर रहे हो और चन्द्रमा भी   5th House में हो।

 

[9] महाभाग्य योग :-

 

वैदिक ज्योतिष में महाभाग्य योग की प्रचलित परिभाषा के अनुसार यदि किसी पुरुष का जन्म दिन के समय का हो तथा उसकी जन्म कुंडली में लग्न अर्थात पहला घर, सूर्य तथा चन्द्रमा, तीनों ही विषम राशियों जैसे कि मेष, मिथुन, सिंह आदि में स्थित हों तो ऐसी कुंडली में महाभाग्य योग बनता है जो जातक को आर्थिक समृद्धि, सरकार में कोई शक्तिशाली पद, प्रभुत्व, प्रसिद्धि तथा लोकप्रियता आदि जैसे शुभ फल प्रदान कर सकता है। इसी प्रकार यदि किसी स्त्री का जन्म रात के समय का हो तथा उसकी जन्म कुंडली में लग्न, सूर्य तथा चन्द्रमा तीनों ही सम राशियों अर्थात वृष, कर्क, कन्या आदि में स्थित हों तो ऐसी स्त्री की कुंडली में महाभाग्य योग बनता है जो उसे उपर बताए गए शुभ फल प्रदान कर सकता है।

 

वैदिक ज्योतिष में वर्णित अधिकतर योगों का निर्माण पुरुष तथा स्त्री जातकों की कुंडलियों में एक समान नियमों से ही होता है जबकि महाभाग्य योग के लिए ये नियम पुरुष तथा स्त्री जातकों के लिए विपरीत हैं। इसका कारण यह है कि सूर्य दिन में प्रबल रहने वाला पुरुष ग्रह है तथा चन्द्रमा रात्रि में प्रबल रहने वाला एक स्त्री ग्रह है और किसी पुरुष की कुंडली में दिन के समय का जन्म होने से, लग्न, सूर्य तथा चन्द्रमा सबके विषम राशियों में अर्थात पुरुष राशियों में स्थित हो जाने से कुंडली में पुरुषत्व की प्रधानता बहुत बढ़ जाती है तथा ऐसी कुंडली में सूर्य भी बहुत प्रबल हो जाते हैं जिसके कारण पुरुष जातक को लाभ मिलता है। वहीं पर किसी स्त्री जातक का जन्म रात में होने से, कुंडली में लग्न, सूर्य तथा चन्द्रमा तीनों के विषम राशियों अर्थात स्त्री राशियों में होने से कुंडली में चन्द्रमा तथा स्त्री तत्व का प्रभाव बहुत बढ़ जाता है जिसके कारण ऐसे स्त्री जातकों को लाभ प्राप्त होता है।

 

कुछ सुन्दर और महत्वपूर्ण राज योग :-

 

[1] चन्द्र-मंगल : महालक्ष्मी राज योग :- इस योग में जन्मे लोग दबंग किस्म के और बात चीत में स्पष्ट होते है। ये एक सुन्दर धन योग भी है।

[2] विष्णु – लक्ष्मी योग : – केंद्र (1,4, 7, 10) और त्रिकोण स्थान (1 ,5 ,9) के स्वामी ग्रहों का  साथ किसी शुभ स्थान में एकत्रित होना इस योग को निर्मित करता है ये योग सुखी -प्रतिष्ठित पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन और प्रचुर मात्र में धन उपलभ्ध करता है।

[3] सिंहासन योग :- नवम या दशम भाव के स्वामी का द्वितीय या लग्न भाव में स्थित होना एक महत्वपूर्ण योग है और देश विदेश की यात्रा करने के साथ उच्च पद की प्राप्ति कराता है।

[4] धन योग : – 11th House  का 2nd house के साथ ग्रह सम्बन्ध प्रबल धन योग होता है , ऐसे लोग अत्यन्त धनि होते  है। 

[5] वाहन योग : – शुक्र और चन्द्र का एक साथ चतुर्थ भाव में होना या चतुर्थ भाव पर या उसके स्वामी ग्रह पर दृष्टि देना प्रबल वाहन योग निर्मित करता है , ऐसे  लोगो में वाहनो के प्रति विशेष आकर्षण रहता है और वे उनका उपभोग भी करते है।

 

 

Rajyog

निम्नलिखित स्थितियों में राजयोगों का सृजन होता है।

1) जब केंद्र और त्रिकोण भाव के स्वामी एक दूसरे के साथ एक ही घर में होते हैं तो राज योग का निर्माण होता है।

2) जब केंद्र और त्रिकोण भावों के स्वामी एक दूसरे पर दृष्टि डालते हैं तो कुंडली में राज योग बनता है।

3) जब केंद्र और त्रिकोण भावों के स्वामी ग्रह परस्पर परिवर्तन योग में हैं तो बहुत मजबूत राज योग का निर्माण होता है। उदाहरण के लिये, वृषभ लग्न का स्वामी शुक्र नवम भाव में विराजमान है, जोकि एक त्रिकोण भाव है और इस भाव का स्वामी शनि लग्न में विराजमान है तो, यह बहुत शक्तिशाली राज योग बनता है।

4) कुंडली में ग्रहों के परिवर्तन से ग्रहों के बीच शक्तिशाली संयोजन बनता है इसलिये यह राज योग बहुत शक्तिशाली होता है। ग्रहों की दृष्टि से सबसे मजबूत राज योग बनता है और उसके बाद ग्रहों की युति से।

5) जितने शुभ ग्रहों का संयोजन एक कुंडली में होगा उतना शक्तिशाली राज योग बनेगा। अगर शुभ ग्रहों पर क्रूर ग्रहों की दृष्टि पड़ रही है तो राज योग की शक्ति कम हो जाती है।

6) अगर किसी की कुंडली में एक से ज्यादा ऐसे संयोग बन रहे हैं जिनसे राज योग का निर्माण होता है तो यह बहुत शुभ माना जाता है।

7) यदि किसी की जन्म कुंडली में सूर्य और बुध दशम भाव में हैं और राहु और मंगल षष्ठम भाव में हैं तो राज योग बनता है। इस राज योग के चलते व्यक्ति को समाज में बहुत मान-सम्मान प्राप्त होता है।

8) जब चतुर्थ, पंचम, नवम और दशम भाव में कोई भी पाप ग्रह विराजमान नहीं होता तो,  कुंडली में एक मजबूत राज योग का निर्माण होता है। 

बृहस्पति की चंद्रमा या मंगल से यदि युति हो रही है तो राज योग का निर्माण होता है।   

9) जब चतुर्थ, पंचम और सप्तम भाव के स्वामी केंद्र या लग्न में युति करते हैं तो इसे एक शुभ राज योग माना जाता है।

10) यदि किसी जातक की कुंडली में लग्न, पंचम और नवम भाव के स्वामी ग्रह एक दूसरे के घरों में विराजमान हों तो ऐसे में राज योग का निर्माण होता है और ऐसा व्यक्ति राजा की जैसी जिंदगी जीता है।

11) यदि किसी व्यक्ति की कुंडली के एकादश भाव में बहुत सारे शुभ ग्रह विराजमान हों तो ऐसे में राज योग का निर्माण होता है। ऐसा व्यक्ति जीवन में सुख-सुविधाएं पाता है।

12) जिस जातक की कुंडली में त्रिकोण के ग्रह अपने घर में हों या उच्च के हों तो यह स्थिति भी राज योग कहलाती है। ऐसा व्यक्ति धार्मिक प्रकृति का होता है और जीवन में काफी धन कमाता है।

13) जिस जातक की कुंडली में त्रिकोण के ग्रह अपने घर में हों या उच्च के हों तो यह स्थिति भी राज योग कहलाती है। ऐसा व्यक्ति धार्मिक प्रकृति का होता है और जीवन में काफी धन कमाता है।

14) बृहस्पति ग्रह यदि लग्न में चंद्रमा के साथ युति बना रहा हौ और कुंडली में सूर्य की स्थिति मजबूत हो तो ऐसा व्यक्ति राजनीति के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त करता है।

 

 पाराशरी के मूलभूत राजयोग सिद्धांत :-

 

पाराशरी संहिता में यह स्पष्ट वर्णित है कि निम्नलिखित स्थितियों में राजयोगों का सृजन होता है :-

  1. i) ग्रह एक-दूसरे की राशि में हों
  2. ii) ग्रह एक-दूसरे से दृष्टि संबंध में हों

iii) ग्रहों की परस्पर युति हो

  1. iv) एक ग्रह दूसरे ग्रह को देखता हो

 

उपरोक्त चारो में से कोई योग यदि किसी कुण्डली में निर्मित हो रहे हों, तो उनकी दशा-अंतर्दशा में शुभ फलों की प्राप्ति होती है। किंतु इसके साथ ही महर्षि पाराशर शुभ फलों की प्राप्ति में कुछ बाधाओं का भी उल्लेख करते हैं:

  1. i) नैसर्गिक शुभ ग्रह केंद्राधिपत्य रूप से दोषी न हों
  2. ii) गुरु, मंगल, शनि तथा बुध ग्रहों की दूसरी राशि दुष्ट स्थानों में न हो

iii) पूर्व वर्णित चारो ही स्थितियों में ग्रहों की युति किसी अन्य पापी या क्रूर ग्रह से न हो

  1. iv) ग्रह शत्रु गृही, नीचस्तंगत या पाप कर्तरी स्थिति में न हो
  2. v) ग्रहों को पाप मध्यत्व न प्राप्त हो
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