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"रद्दीवाला..."

रघु।
रद्दीवाले गणूकाका का बेटा। उसी के पास जा रहा हूँ। मुझसे करीब दो साल छोटा होगा। लकड़ी पुल के पास गणूकाका की एक छोटी सी झोपड़ी थी। गणूकाका कभी पूरी तरह दिखे ही नहीं। हमेशा अखबारों की ढेरियों के पीछे उनका चेहरा झलकता था। विरल बाल, मोटा चश्मा, आगे निकले दांत और एक सहज मुस्कान। गणूकाका का चेहरा आज भी यादों में वैसा ही बसा हुआ है।

गणूकाका हमारे पिताजी के स्कूल के दोस्त थे। हालत तंग थी। शनिवार पेठ में एक कमरे का घर। गणूकाका का आधा जीवन लकड़ी पुल पर ही बीता होगा। बचपन में एक बार मैंने गणूकाका को “रद्दीवाला” कह दिया था। पिताजी ने डांट लगाई। कहा, “रद्दीवाला नहीं, गणूकाका कहो।” उनकी बात हमेशा याद रही।

एक बार पिताजी के साथ गणूकाका के पास गया।
“अच्छा हुआ तुम आए। ये लो जिम कॉर्बेट की किताब। किसी ने तोहफे में दी थी। उसने इसे छुआ तक नहीं। सीधा रद्दी में डाल दिया।”

मैं खुश हो गया। वहीं पर किताब पर से पुराना नाम मिटाकर अपना नाम लिखा। बहुत अच्छा लगा। तब सेकंड हैंड जैसी कोई बात महसूस ही नहीं होती थी। धीरे-धीरे ये आदत बन गई। रविवार को गणूकाका की दुकान मेरा ठिकाना बन गई। दुकान के बाहर एक कुर्सी मेरी स्थायी जगह थी। मैं वहाँ कुछ भी पढ़ता था – चांदोबा, किशोर, चंपक, चाचा चौधरी से लेकर पु. ल., वपु., देसाई, जी.ए., मिरासदार तक।

रद्दी की दुकान से जो साहित्य निकलता है, वही असली साहित्य है। वहाँ किताबों को असली श्रद्धा मिलती है। मुझे आज भी यही लगता है।

गणूकाका के दुकान में मेरे लिए एक खास जगह थी। हफ्ते भर की पसंद की रद्दी गणूकाका वहाँ रखते थे। मैं उसे बड़े चाव से पढ़ता। जो पसंद आता, घर ले आता। बाकी रद्दी में चला जाता।

एक बार दुकान में बैठा था। गणूकाका बोले, “कौत्या, पिछले साल की तुम्हारी क्लास की कॉपियाँ रघु को दे देना। किताबें और गाइड मैं यहाँ से दे दूँगा। क्लास अफोर्ड नहीं कर पाते हम। पिताजी से मत कहना।”

लेकिन मैंने बता दिया।
पिताजी गणूकाका के पास गए और बोले, “गण्या, तू इतना बदमाश कबसे हो गया? क्या मैं तुझसे पराया हो गया? रघु को कल से टिळक रोड पर कुलकर्णी क्लास भेज। मैंने फीस भर दी है।”

रघु पढ़ाई में औसत था, लेकिन दिमाग बिजनेस में चलता था। कौन सी रद्दी की कीमत ज्यादा है, ये उसे बखूबी पता था। बारहवीं तक जैसे-तैसे पढ़ा और फिर व्यापार में लग गया।

कुछ ही सालों में गणूकाका नहीं रहे और रघु, “रघुशेट” बन गया। वही हंसमुख चेहरा, मीठा स्वभाव। अब दुकान में आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक तराजू, साफ-सुथरा हिसाब। बाहर प्रदर्शनी जैसी व्यवस्था। ग्राहक आते और किताब लेकर ही जाते।

जल्द ही रघु ने अपने व्यापार को बड़ा कर लिया। कुछ लोग काम पर रखे, सेकंड हैंड टेंपो खरीदा। सोसाइटी से रद्दी कलेक्ट करने का सिस्टम बनाया। वेबसाइट बनाई, ऑनलाइन बुकिंग शुरू की, और सेकंड हैंड किताबों की लिस्ट अपलोड की। अब उसके पास भांबुर्डे में 800 स्क्वेयर फीट का गोदाम है।

हमारे जैसे लोग 10 से 6 की नौकरी में उलझे हैं। हमारी डिग्रियाँ रद्दी में भी नहीं बिकतीं। फिर भी, रघु की तरक्की देखकर जलन से ज्यादा खुशी होती है।

आज भी रघु मेरे उतना ही करीब है। लकड़ी पुल की वही कुर्सी, वही किताबें। मैं गणूकाका की यादों में खो जाता हूँ।

कल रघु मेरे घर आया। हमारे बेटे की गुम हुई साइंस की वर्कबुक लेकर। साथ में हैरी पॉटर की एक किताब भी।

“दादा, ये किताब तुम्हारी रद्दी में मिली। मुझे लगा, मन्या को परेशानी हुई होगी। और ये लो सरप्राइज। हैरी पॉटर। पढ़ने लायक है।”

रघु ने गणूकाका की परंपरा को आगे बढ़ाया, लेकिन अपने व्यापार के गणित को दुरुस्त रखा। प्रकाशन पर आया, मेरा किताब खरीदा और कहा, “दादा, पैसे देकर खरीदी गई यह मेरी पहली किताब है।”

आज भी, रघु मुझे याद दिलाता है कि जिंदगी का हर दिन खास है। आखिर में, सबकी मंज़िल वही रद्दी है।

 

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