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होलिका दहन के दिन रात्रि काल तक भद्रा है एवं भद्रा या विष्टि करण एक सम्यक विश्लेषण

प्रश्न :- होलिका दहन के दिन रात्रि काल तक भद्रा है लेकिन लोग नही मानेंगे। भद्रा या विष्टि करण एक सम्यक विश्लेषण

सायं काल प्रदोष मे परंपरागत रीति से होलिका दहन होगा।

 

उत्तर :-

नही मानेंगे तो शास्त्र मे निर्णय फल बताया ही है।

ग्रामं दहति फाल्गुनी

– निर्णयसिंधु

2019 मे रात्रि 9 बजे तक भद्रा योग था।

लोगो ने शास्त्र आज्ञा का निरादर किया।

विद्धान ज्योतिषीयो को समाज ने खुब गालीयां सुनायी।

1) ज्योतिषी डर का व्यापार करते है।

2) पहले तो कभी भद्रा नही होती थी।

3) हमने तो सदैव सायं काल प्रदोष काल मे होलीका दहन किया है।

फिर क्या हुआ ??

 

2020 1st Wave Covid 19

2021 2nd wave Covid 19

दो साल तक भद्रा ने डर का व्यापार किसे कहते है दिखाया।

 

यही नही

ग्रामं दहति फाल्गुनी इस शास्त्र वचन अनुसार गांव गांव कितनी चिताए जली ये हम सभी ने प्रत्यक्ष देखा है।

 

इस वर्ष होलिका दहन मे भद्रा रात्रि 11:15 बजे तक है।

 

ज्योतिर्विदों का कर्तव्य है कि लोक कल्याण कि भावना से बिना जन दबाव मे आये

नि: संकोच भद्रा का सत्य बताये।

 

 

होलिका दहन मुहूर्त—–

 

दिनार्धात् परतो या स्यात् फाल्गुनी पूर्णिमा यदि।

रात्रौ भद्रावसाने तु होलिकां तत्र पूजयेत्॥ –भविष्योत्तर

 

अर्थात् यदि पहले दिन प्रदोष के समय भद्रा हो और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले पूर्णिमा समाप्त हो जाए तो भद्रा के समाप्त होने की प्रतीक्षा करके सूर्योदय होने से पहले रात्रि में होलिकादाह करना चाहिए।

 

श्रीजयसिंह कल्पद्रुम में भविष्योत्तरपुराण के उपरोक्त प्रमाण से स्पष्ट लिखा है कि –

 

“यदा तु प्रदोषे पूर्वदिने भद्रा भवति परदिने चास्तात्पूर्वमेव पंचदशी समाप्यते तदा सूर्योदयात्पूर्वं भद्रान्तं प्रतीक्ष्य होलिका दीपनीया।”

 

भद्रा में होलिकादहन शास्त्रसम्मत नहीं है क्योंकि―

 

भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा।

श्रावणी नृपति हन्ति ग्रामं दहति फाल्गुनी॥

― निर्णयसिन्धु

 

👉श्रावणी कर्म और फाल्गुनी पूर्णिमा पर होलिकादन भद्रा होने पर नहीं करना चाहिए। भद्रा में श्रावणी करने से राजा की हानि तथा होलिकादहन से ग्राम दहन का भय उत्पन्न होता है।

 

नन्दायां नरकं घोरं भद्रायां देशनाशनम्।

दुर्भिक्षं च चतुर्दश्यां करोत्येव हुताशनः॥

–विद्याविनोद

 

प्रतिपदा में होलिकादाह से नरक, भद्रा में होलिकादाह से देशनाश और चतुर्दशी में करने से दुर्भिक्ष होता है।

 

प्रतिपद्भूतभद्रासु यार्चिता होलिका दिवा।

संवत्सरं तु तद्राष्ट्रं पुरं दहति साद्भुतम्॥

– चन्द्रप्रकाश

 

👉प्रतिपदा, चतुर्दशी, भद्रा और दिन, इनमें होली जलाना सर्वथा त्याज्य है। कुयोगवश यदि जला दी जाए तो वहाँ के राज्य, नगर और मनुष्य अद्भुत उत्पातों से एक ही वर्ष में हीन हो जाते हैं।

 

भद्रायां दीपिता होली राष्ट्रभंगं करोति वै।

― पुराणसमुच्चय

 

भद्रा में होली दाह से राष्ट्रभंग होता है।

 

 

अतः उपर्युक्त प्रचुर प्रमाणों से सिद्ध है कि पूर्णिमाव्यापिनी रात्रिपर्यन्त कभी भी भद्रारहित काल मिलने पर भद्रा में होलिका दाह पूर्णतः शास्त्रविरुद्ध एवं अनिष्टकारी है।

 

भद्रा पुच्छकाल में होलिका दहन केवल तब ही होता है जब यदि पहले दिन भद्रारहित प्रदोष न मिले, रात्रिभर भद्रा रहे (सूर्योदय होने से पूर्व समाप्त नही हो) और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले ही पूर्णिमा समाप्त हो जाए, तो ऐसे अवसर में सूर्योदय पूर्व भद्रा के पुच्छकाल में होलिकादहन कर देना चाहिए।

 

भद्रा या विष्टि करण एक सम्यक विश्लेषण

(A complete analysis of Bhadra karana)

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विष्टि करण या भद्रा क्या है? (What is Bhadra)

 

तिथि के आधे भाग को करण कहा जाता है जैसा कि सर्वविदित है कुल 11 करण होते हैं इनमें से प्रथम 7 चर संज्ञक और शेष 4 स्थिर संज्ञक होते हैं। विष्टि जिसे हम भद्रा के नाम से भी जानते हैं यह एक चर संज्ञक और अशुभ करण माना जाता है।

 

भद्रा की उत्पत्ति: (Origin of Bhadra)

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भद्रा की उत्पत्ति भद्र अर्थात शिव से होने के कारण इसे भद्रा कहा गया है। देवासुर संग्राम में जब देवताओं की पराजय होने लगी, उसे देखकर भगवान शंकर को बहुत क्रोध आया। क्रोध पूर्ण नेत्रों से निकली दृष्टि जब भगवान शिव के स्वयं के शरीर पर पड़ी, तो यह शक्ति उत्पन्न हुई  जिसका मुख गधे के समान था। तीन पैर और 7 भुजाएं थीं। एक लंबी और पतली पूंछ थी। बड़े– बड़े दांत, पतला पेट, लंबी नाक, पुष्ट हनु और गाल थे। मोटी पिंडली और जांघों वाली भद्रा के लंबे केश और गर्दन सिंह के समान थे। प्रेत और शव वाहन वाली भद्रा ने प्रेत पर सवार होकर असुरों का संहार किया। इससे प्रसन्न होकर शिव जी की आज्ञा से देवताओं ने उस शक्ति को अपने कानों के समीप स्थापित किया और उसकी गणना करणों में होने लगी। भद्रा का जन्म फाल्गुन कृष्ण दशमी, रविवार को मूल नक्षत्र एवं शूल योग में हुआ था। भद्रा रात में शिव जी के यहां पहरा देती है।

 

भद्रा की संज्ञाएं: (Various titles of Bhadra)

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1)*तिथि के अनुसार:

 

लल्ल के अनुसार एक चंद्र माह में तिथि के अनुसार भद्रा की आठ संज्ञाएं होती हैं। शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को हंसी, अष्टमी को नंदिनी, एकादशी को त्रिशिरा और पूर्णिमा को सुमुखी संज्ञा प्रदान की जाती है। तो वहीं कृष्ण पक्ष की तृतीया को करालिका, सप्तमी को वैष्णवी, दशमी को रौद्री तथा चतुर्दशी को दुर्मुखी नाम दिया गया है।

 

2) वार के अनुसार:

 

महर्षि भृगु ने भद्रा के वार के अनुसार चार प्रकार बताए हैं: रविवार, मंगलवार और बुधवार को भद्रिका, सोमवार और शुक्रवार को कल्याणी, गुरुवार को पुण्यवती तथा शनिवार को वृश्चिकी संज्ञा दी गई है।

 

आचार्य चंडेश्वर ने शुक्ल पक्ष में भद्रा को सर्पिणी तथा कृष्ण पक्ष में वृश्चिकी कहा है। मुहूर्त गणपति में शुक्ल पक्ष की भद्रा को वृश्चिकी तथा कृष्ण पक्ष की भद्रा को सर्पिणी कहा गया है। एक अन्य मत के अनुसार दिन की भद्रा को सर्पिणी तथा रात्रि की भद्रा को वृश्चिकी कहा गया है।

 

भद्रा में प्रशस्त कार्य

(Doable works in Bhadra karana)

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जनमानस में यह धारणा है कि भद्रा में कोई भी शुभ कार्य नहीं कर सकते। परंतु यह धारणा पूर्णत: सही नहीं है। भद्रा में भी बहुत से शुभ और अशुभ कार्य किए जा सकते हैं।

विष्टि करण अर्थात् भद्रा में विष, बंधन, अग्नि, अस्त्र प्रयोग, उच्चाटन, अभिचार कर्म आदि अशुभ कार्य किए जा सकते हैं तो भैंस, ऊंट, घोड़ा आदि से संबंधित कार्य, राज दर्शन, आक्रमण,  हठ, घात कार्य, वैद्य या चिकित्सक को बुलाना, तैरना, शत्रु का उच्चाटन या मुकाबला करना, संगठन के कार्य, रोग मुक्ति के उपाय में, पशुओं का संग्रह, यात्रा करना, स्त्री संसर्ग, प्यार मोहब्बत, ऋतु स्नान, वाहन का लेन देन, दाह–पातादि कार्य, पर घात कर्म, दुर्गा देवी का पूजन, दान आदि के कार्य, विवाद या मुकदमा के कार्य, गन्ने से संबंधित कार्य, हरितालिका पूजा एवं व्रत, वृषभोत्सर्ग, जात क्रिया, महादेव की अर्चना, नित्य पूजा पाठ, यज्ञ आदि कार्य सिद्धि दायक एवं सफलता दायक होते हैं। अन्य शुभ कार्य वर्जित हैं।

 

भद्रा में क्या न करें?

(Prohibited Works in Bhadra)

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भद्रा को विघ्न कारक मानकर शुभ कार्य में वर्जित माना गया है। ऐसा कहा गया है कि यात्रा, प्रवेश, मांगलिक कार्य, खेती, व्यापार, उद्योग आदि कार्यों का प्रारंभ यदि भद्रा में  करते हैं तो उनमें विघ्न उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त भद्रा में होलिका दहन एवं रक्षाबंधन का भी निषेध किया गया है। इन कार्यों को भद्रा में करने से ग्राम एवं राजा का नाश भी होता है।

 

भद्रा का निवास

(Residence of Bhadra)

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भद्रा तीनों लोकों में निवास करती है। जब चंद्रमा कर्क, सिंह, कुंभ अथवा मीन राशि में रहते हैं तो भद्रा का निवास भूलोक में जब चंद्रमा मेष, वृषभ, मिथुन एवं वृश्चिक राशि में हो तो भद्रा का निवास स्वर्ग लोक में और जिस समय चंद्रमा कन्या, तुला, धनु एवं मकर में हों उस समय भद्रा का निवास पाताल लोक में होता है। जिस समय भद्रा जिस लोक में निवास करती है उस लोक के निवासियों के लिए ही वह विघ्न कारक एवं असफलता दायक होती है। अन्य लोक के व्यक्तियों के लिए वह निष्फल होती है अर्थात् उसका कोई महत्व नहीं होता है।

नोट: विभिन्न विद्वानों एवं मतों के अनुसार भद्रा के चंद्र राशि के अनुसार निवास में अंतर है। परंतु यहां सर्वमान्य मत ही दिया गया है।

 

भद्रा के मुख एवं पूंछ संबंधी अवधारणा

(Concept of Bhadra’s Mouth and tail)

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ऐसी मान्यता है कि भद्रा का मुख सभी शुभ कार्यों के लिए वर्जित होता है। भद्रा के पुच्छ के समय में शुभ कार्य कर सकते हैं।

भद्रा के पुच्छ समय की अवधि को ज्ञात करने की दो विधियां प्रचलित हैं:

 

(अ)भद्रा के षडंगों में घटी- विन्यास की विधि

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भद्रा के मुख और पुच्छ के समय अवधि को ज्ञात करने के लिए इस प्रथम प्रविधि के अंतर्गत भद्रा के औसत भोग काल 30 घटी (12 घंटा) को उसके 6 अंगों मुख, कंठ, हृदय, नाभि, कटि एवं पुच्छ में विभक्त किया जाता है जिसे भद्रा के अंगों में घटी विन्यास कहते हैं। भद्रा के पुच्छ की घटियां शुभ एवं विजय दायक होती हैं। पृथ्वी पर जितने भी शुभ और अशुभ कार्य हैं वे भद्रा के पुच्छ में सफल होते हैं। शेष पांच अंगों में यह शुभ कार्यों में वर्जित होती है। भद्रा के उपरोक्त 6 अंगों में उसके भोग काल की घटियों का विन्यास इस प्रकार है:

1).मुख में पांच घटी अर्थात् 2 घंटे।

परिणाम : कार्य का विनाश

 

2) कंठ प्रदेश में एक घटी अर्थात् 24 मिनट

परिणाम:  मृत्यु अथवा मृत्यु तुल्य कष्ट

 

3) हृदय स्थल पर 11 घटी अर्थात् 4 घंटा 24 मिनट

परिणाम:  धन हानि एवं निर्धनता

 

4) नाभि प्रदेश में चार घटी अर्थात् एक घंटा 36 मिनट।

परिणाम: बुद्धि विनाश

 

5) कटि प्रदेश में 6 घटी अर्थात् 2 घंटा 24 मिनट

परिणाम:  कलह

 

6) पुच्छ में 3 घटी अर्थात् 1 घंटा 12 मिनट

परिणाम: विजय एवं सफलता

 

नोट: भद्रा के विभिन्न अंगों में अवधि की गणना औसत भोग काल 30 घटी अर्थात् 12 घंटे मानकर किया गया है। वास्तविक भद्रा समय के भोग काल के आधार पर गणित करके इसका समय निर्धारित करना चाहिए।

 

(ब) मुखावधि एवं पुच्छावधि से संबंधित प्रविधि:

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इस प्रविधि के अंतर्गत शुक्ल पक्ष एवं कृष्ण पक्ष में भद्रा तिथियों के अनुसार मुख की अवधि एवं पुच्छ की अवधि अलग-अलग ज्ञात की जाती है। इसमें भद्रा के 6 अंगों का विन्यास न करके केवल मुख और पुच्छ की समय अवधि निकाली जाती है। मुख की समयावधि 5 घटी अर्थात् 2 घंटा होती है तो वहीं पुच्छ की समयावधि 3 घटी अर्थात् 1 घंटा 12 मिनट होती है।

 

भद्रा की मुखावधि एवं पुच्छावधि

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पूर्वार्ध एवं उत्तरार्ध के कारण भद्रा का मुख हमेशा प्रारंभ में और पूंछ हमेशा अंत में नहीं होती है।

पक्ष एवं तिथियों के अनुसार यह कभी आगे तो कभी पीछे होती है। यही भाग इसका सबसे महत्वपूर्ण है। इस की गणना आगे दी गई है:

 

(अ) शुक्ल पक्ष के भद्रा की मुखावधि एवं पुच्छावधि

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1) शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि:

पांचवें प्रहर की आरंभिक पांच घटी अर्थात् 2 घंटे का समय भद्रा का मुख होता है।

आठवें प्रहर की अंतिम तीन घटी अर्थात् एक घंटा 12 मिनट भद्रा का पुच्छ होता है।

 

2) शुक्ल पक्ष की अष्टमी:

द्वितीय प्रहर की आरंभ की पांच घटी अर्थात् 2 घंटे का समय भद्रा का मुख होता है। तो वहीं प्रथम प्रहर की अंतिम तीन घटी अर्थात् 1 घंटे 12 मिनट का समय पुच्छ होता है।

 

3) शुक्ल पक्ष की एकादशी:

सातवें प्रहर के आरंभ की पांच घटी अर्थात् 2 घंटे का समय भद्रा का मुख होता है तो वहीं छठे प्रहर की अंतिम तीन घटी अर्थात् एक घंटा 12 मिनट का समय भद्रा का पुच्छ होता है।

 

4) पूर्णिमा:

चतुर्थ प्रहर की आरंभिक पांच घटी अर्थात् 2 घंटे भद्रा का मुख होता है तो वहीं तृतीय प्रहर की अंतिम तीन घटी अर्थात् एक घंटा 12 मिनट भद्रा का पुच्छ होता है।

 

(ब) कृष्ण पक्ष के भद्रा की मुखावधि एवं पुच्छावधि

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1) कृष्ण पक्ष की तृतीया:

आठवें प्रहर की प्रारंभिक पांच घटी अर्थात् 2 घंटे का समय भद्रा का मुख होता है। तो वहीं सातवें प्रहर की अंतिम तीन घटी अर्थात् 1 घंटे 12 मिनट का समय भद्रा का पुच्छ होता है।

 

2) कृष्ण पक्ष की सप्तमी:

तृतीय प्रहर के आरंभ की पांच घटी अर्थात् 2 घंटे का समय भद्रा का मुख होता है। तो वहीं द्वितीय प्रहर की अंतिम तीन घटी अर्थात् 1 घंटा 12 मिनट भद्रा का पुच्छ होता है।

 

3) कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि:

छठें प्रहर की आरंभिक पांच घटी अर्थात् 2 घंटे का समय भद्रा का मुख होता है।

तो वहीं पांचवें प्रहर की अंतिम तीन घटी अर्थात् 1 घंटे 12 मिनट का समय भद्रा का पुच्छ होता है।

 

4) कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि:

प्रथम प्रहर की आरंभिक पांच घटी अर्थात् 2 घंटे का समय भद्रा का मुख होता है तो वहीं चतुर्थ प्रहर की अंतिम तीन घटी अर्थात् 1 घंटा 12 मिनट भद्रा का पुच्छ होता है।

 

नोट: 1) बृहस्पति एवं लल्ल के अनुसार इस अवधि में कुछ अंतर भी है। परंतु सर्वमान्य सिद्धांत के आधार पर उपरोक्त अवधि दी गई है।

2) प्रहर का मान तिथि का आठवां भाग होता है। यहां पर तिथि का औसत मान 60 घटी अर्थात् 24 घंटे मानकर दिया गया है। भद्रा के मुख और पुच्छ की अवधि का मान, तिथि के मान के अनुपात में कम या अधिक हो सकता है और तिथि प्रारंभ की अवधि से ही इसकी गणना की जानी चाहिए।

3) शुक्ल पक्ष के अष्टमी एवं पूर्णिमा की भद्रा दिन में और चतुर्थी तथा एकादशी की भद्रा रात्रि में होती है।

तो वहीं कृष्ण पक्ष में सप्तमी एवं चतुर्दशी की भद्रा दिन में और तृतीया तथा दशमी की भद्रा रात्रि में होती है।

 

भद्रा की दिशा

(Direction of Bhadra)

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तिथि के आधार पर भूलोक अर्थात् पृथ्वी लोक की भद्रा की दिशाएं भी निर्धारित की गई हैं। भद्रा की दिशाएं पक्ष एवं तिथि के आधार पर निर्धारित होती हैं।

 

शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को पश्चिम में, अष्टमी को अग्नि कोण, एकादशी को उत्तर  तथा पूर्णिमा तिथि में भद्रा नैऋत्य कोण में होती है।

 

कृष्ण पक्ष की तृतीया को ईशान कोण में, सप्तमी को दक्षिण दिशा, दशमी तिथि में वायव्य कोण में तथा चतुर्दशी को पूर्व में भद्रा रहती है।

 

नोट: जिस दिशा में भद्रा स्थित होती है उस तिथि को उस दिशा में यात्रा आदि के कार्य नहीं करने चाहिए।

परन्तु वर्तमान में यह मत बहुत प्रचलन में नहीं है।

 

भद्रा के परिहार

(Exceptions/ Avoidance of Bhadra)

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उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि भद्रा जब स्वर्ग लोक या पाताल लोक में निवास करती है तो उसका पृथ्वी लोक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। साथ ही साथ भूलोक पर स्थित भद्रा के पुच्छ की समय अवधि को भी शुभ कार्यों में प्रशस्त माना गया है। उपरोक्त के अतिरिक्त निम्नलिखित स्थितियों में भद्रा का परिहार हो जाता है:

 

1) तिथि के उत्तरार्ध की भद्रा दिन में और पूर्वार्ध की भद्रा रात्रि में शुभ फलदाई होती है। इस प्रकार अष्टमी, पूर्णिमा, सप्तमी और चतुर्दशी की भद्रा रात्रि काल में तथा चतुर्थी, एकादशी, तृतीया और दशमी की भद्रा दिन में शुभ फलदाई होती है। मुहूर्त चिंतामणि

 

2) यदि सूर्योदय से भद्रा व्याप्त है तो मध्याह्न के बाद इसका दोष नहीं रहता है।

मुहूर्त गणपति

 

3) दिन की भद्रा यदि रात्रि में हो तो दोष प्रद नहीं होती है। इसी प्रकार रात्रि की भद्रा यदि दिन में हो तो उसका भी दोष नहीं लगता है। शीघ्र बोध एवं संग्रह शिरोमणि

 

निष्कर्ष: उपरोक्त विश्लेषण के उपरांत हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भद्रा एक अशुभ समय है। परंतु यह जहां निवास करती है वहीं प्रभावी होती है और इसका पुच्छ काल अशुभ प्रभाव से युक्त नहीं होता है। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी महत्वपूर्ण कार्य होते हैं जो भद्रा काल में बहुत ही अधिक प्रभावी होते हैं। यदि किसी कार्य को करना आवश्यक हो तो भद्रा के परिहारों को भी ध्यान में रखना चाहिए।

 

नोट: उपरोक्त परिहारों के बावजूद  विष्टि करण को अशुभ समय मानते हुए पंचांगों में भद्रा में कोई भी शुभ कार्य का मुहूर्त नहीं दिया गया होता है। परिहार का प्रयोग विशेष अवस्था में ही करना चाहिए। जैसे: रक्षाबंधन, होलिका दहन आदि।

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