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माँ और जीवन की परत

दरअसल, मां की पहचान सबसे पहले मां के गर्भ में होती थी और फिर नौ महीने बाद उसके पद की पहचान होती थी। म्याऊँ करते समय उसने मुझे पैड से ढक दिया, और मैं आश्वस्त हो गया…तब से यह बहुत करीब महसूस हुआ और फिर उसका मिलना जारी रहा…ज़िंदगी भर स्कूल के पहले दिन यह रूमाल बन गया

चिलचिलाती धूप मेंवह एक टोपी बन गया, बारिश में भीगने के बादयह एक तौलिया बन गया जल्दी-जल्दी खाना और खेलने के लिए दौड़नायह एक रुमाल बन गयायात्रा के दौरानयह एक शॉल बन गया

कभी-कभी बाज़ार में भीड़ होती हैमाँ दिखना नहीं चाहतीलेकिन केवल अंत तक टिके रहनामैं बिना किसी रुकावट के चलता रहा…फिर उस भीड़ मेंवह मेरा प्रकाशस्तंभ बन गया गर्म दूध डालते समययह चुटकी ली गई थीगर्मियों में जब रोशनी चली जाती हैवह प्रशंसक बन गया रिजल्ट वाले दिनवह मेरी ढाल हुआ करते थे.’ जब पिताजी घर आये,चाय में पानी पड़ने के बाद,वह उसी पेज पर प्रपोज करेंगे।’ संक्षिप्त परिणाम उपलब्ध हैं…अच्छे अंक गिरे हैंएक या दो विषयों में कमी है,लेकिन…लेकिन अब मैं कह रहा हूं कि मैं पढ़ाई करूंगाजैसे बाबा के क्रोध की धार कुंद हो गयीमैं पर्दे के पीछे से देखती थीहाथ की मुट्ठी में पदराच टोककसी पकड़! उस परत ने मुझे सिखायाकब-क्या-और कैसे कहना है

युवावस्था में जब पल्लू (माँ का पल्लू) उंगली के चारों ओर कसकर लपेटा हुआ फिर उसका खिंचाव देख माँ ने पूछा,”वह कॉन हे…  नाम क्या है??”तो फिर मुझ पर शर्म आनी चाहिए चेहरे के सामने चादर लेनी पड़ी. रात को पार्टी करने के बाद…जैसे ही आप सीढ़ियों पर कदम रखते हैं,बिना दरवाज़ा खटखटाए…पल्लू ने दरवाज़ा खोला.किनारों के चारों ओर घिरा हुआ…किनारे को दबाना… उस दबी हुई आवाज के साथ नैतिकता की शिक्षा दी पल्लू से सीखी सहजता शिष्टाचार तो पल्लू से ही सीखा मैंने पल्लू से ईमानदारी सीखी मैंने पल्लू से सभ्यता सीखी मैंने पल्लू से सहनशीलता सीखी मैंने पल्लू से माइंडफुलनेस सीखी समय बीतने के साथ,पालन किया जाएगायाअपने “स्वयं” की तलाश में, साड़ी चली गई…ड्रेस आ गयी पैंट आ गया. स्कर्ट आ गई…और छोटा होता जा रहा है सवाल कपड़ों का नहीं है,प्रश्न यह है कि,लुप्त होती पल्लू !क्योंकि पल्लू कोई पद नहीं, बल्कि जीवन भर की जिम्मेदारी है। और वह सचेत रूप से और निस्वार्थ रूप से – केवल माँ ही कर सकती है! वास्तव में – यहाँ तक कि शर्ट को भी फाड़ना पड़ा…लेकिन सच कहूं तो… वह शर्ट नहीं छुएगा!!! 

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