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"रामभक्त ‘हनुमान’ जी से सीखें जीवन प्रबंधन के ये दस सूत्र"

रामायण के सुन्दर कांड और तुलसीदास की हनुमान चालीसा में बजरंगबली के चरित्र पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।

 

हनुमान जी के बारे में तुलसीदास जी लिखते हैं –

 

‘संकट कटे मिटे सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बल बीरा।’
सदा अपने भक्तों को संकट से निवृत्त करने वाले हनुमान जी हैं।

 

संवाद कौशल – सीता जी से हनुमान जी पहली बार रावण की ‘अशोक वाटिका’ में मिले, इस कारण सीता उन्हें नहीं पहचानती थीं। एक वानर से श्रीराम का समाचार सुन वे आशंकित भी हुईं परन्तु हनुमान जी ने अपने ‘संवाद कौशल’ से उन्हें यह भरोसा दिला ही दिया कि वे राम के ही दूत हैं। सुंदरकांड में इस प्रसंग को इस तरह व्यक्त किया गया है –
कपि के वचन सप्रेम सुनि, उपजा मन बिस्वास।
जाना मन क्रम बचन यह, कृपासिंधु कर दास।।”
 
विनम्रता – समुद्र लांघते समय देवताओं ने ‘सुरसा’ को उनकी परीक्षा लेने के लिए भेजा। सुरसा ने मार्ग अवरुद्ध करने के लिए अपने शरीर का विस्तार करना शुरू कर दिया। प्रत्युत्तर में श्री हनुमान ने भी अपने आकार को उनसे दोगुना कर दिया।

 

“जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा, तासु दून कपि रूप देखावा।”

 

इसके बाद उन्होंने स्वयं को लघु रूप में कर लिया जिससे सुरसा प्रसन्न और संतुष्ट हो गईं अर्थात केवल सामर्थ्य से ही जीत नहीं मिलती है “विनम्रता” से समस्त कार्य सुगमतापूर्वक पूर्ण किए जा सकते हैं।

 

आदर्शों से कोई समझौता नहीं – लंका में रावण के उपवन में हनुमान जी और मेघनाथ के मध्य हुए युद्ध में मेघनाथ ने ‘ब्रह्मास्त्र’ का प्रयोग किया। हनुमान जी चाहते तो वे इसका तोड़ निकाल सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि वह उसका महत्व कम नहीं करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने ब्रह्मास्त्र का तीव्र आघात सह लिया। हालांकि, यह प्राणघातक भी हो सकता था।

 

यहां गुरु हनुमान हमें सिखाते हैं कि अपने आदर्शों से कभी समझौता नहीं करना चाहिए।”

 

तुलसीदास जी ने हनुमान जी की मानसिकता का सूक्ष्म चित्रण इस पर किया है –

 

ब्रह्मा अस्त्र तेंहि साँधा, कपि मन कीन्ह विचार।
जौ ब्रहासर मानऊँ, महिमा मिटाई अपार।।
बहुमुखी भूमिका में हनुमान जी –  हम अक्सर अपनी शक्ति और ज्ञान का प्रदर्शन करते रहते हैं। कई बार तो वहां भी जहां उसकी आवश्यकता भी नहीं होती।

 

तुलसीदास जी हनुमान चालीसा में लिखते हैं –

 

सूक्ष्म रूप धरी सियंहि दिखावा, विकट रूप धरी लंक जरावा।”

 

सीता के सामने उन्होंने स्वयं को लघु रूप में रखा क्योंकि यहां वह पुत्र की भूमिका में थे परन्तु संहारक के रूप में वे राक्षसों के लिए काल बन गए।

 

एक ही स्थान पर अपनी शक्ति का दो अलग-अलग तरीके से प्रयोग करना हनुमान जी से सीखा जा सकता है।

 

समस्या नहीं समाधान स्वरूप – जिस समय लक्ष्मण रणभूमि में मूर्छित हो गए तो उनके प्राणों की रक्षा के लिए वे पूरा पहाड़ उठा लाए क्योंकि वे संजीवनी बूटी नहीं पहचानते थे।

 

हनुमान जी यहां हमें सिखाते हैं कि, “मनुष्य को शंका स्वरूप नहीं वरन् समाधान स्वरूप होना चाहिए।”

 

भावनाओं का संतुलन – लंका के दहन के पश्चात् जब वह पुन: सीता जी का आशीष लेने पहुंचे तो उन्होंने सीता जी से कहा कि, वह चाहें तो उन्हें अभी लेकर चल सकते हैं पर “मै रावण की तरह चोरी से नहीं ले जाऊंगा। रावण का वध करने के पश्चात ही यहां से प्रभु श्रीराम आदर सहित आपको ले जाएंगे।”

 

रामभक्त हनुमान अपनी भावनाओं का संतुलन करना जानते थे इसलिए उन्होंने सीता माता को उचित समय (एक महीने के भीतर) पर आकर ससम्मान वापिस ले जाने के लिए आश्वस्त किया।

 

आत्ममुग्धता से कोसों दूर सीता जी का समाचार लेकर सकुशल वापस पहुंचे श्री हनुमान की प्रत्येक ओर प्रशंसा हुई लेकिन उन्होंने अपने पराक्रम का कोई किस्सा प्रभु राम को नहीं सुनाया। यह हनुमान जी का बड़प्पन था जिसमें वह अपने बल का सारा श्रेय प्रभु श्री राम के आशीर्वाद को दे रहे थे। प्रभु श्रीराम के लंका यात्रा वृत्तांत पूछने पर हनुमान जी को जो कहा उससे भगवान राम भी हनुमान जी के आत्ममुग्धताविहीन व्यक्तित्व के कायल हो गए।

 

ता कहूं प्रभु कछु अगम नहीं, जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभाव बड़वानलहि, जारि सकइ खलु तूल।।

 

नेतृत्व क्षमता – समुद्र में पुल बनाते समय अपेक्षित कमजोर और उच्चश्रृंखल वानर सेना से भी कार्य निकलवाना उनकी विशिष्ट संगठनात्मक योग्यता का परिचायक है। राम-रावण युद्ध के समय उन्होंने पूरी वानर सेना का नेतृत्व संचालन प्रखरता से किया।

 

बौद्धिक कुशलता और वफादारी – सुग्रीव और बाली के परस्पर संघर्ष के समय प्रभु श्री राम को बाली के वध के लिए राजी करना क्योंकि एक सुग्रीव ही प्रभु राम की मदद कर सकते थे। इस प्रकार हनुमान जी ने सुग्रीव और प्रभु श्रीराम दोनों के कार्यों को अपने बुद्धि कौशल और चतुराई से सुगम बना दिया। यहां हनुमान जी की मित्र के प्रति ‘वफ़ादारी’ और ‘आदर्श स्वामीभक्ति’ प्रशंसा के योग्य है।

 

समर्पण – हनुमान जी एक आदर्श ब्रह्मचारी थे। उनके ब्रह्मचर्य के समक्ष कामदेव भी नतमस्तक थे। यह सत्य है कि श्री हनुमान जी विवाहित थे परन्तु उन्होंने यह विवाह एक विद्या की अनिवार्य शर्त को पूरा करने के लिए अपने गुरु भगवान् सूर्यदेव के आदेश पर किया था। श्री हनुमान जी के व्यक्तित्व का यह आयाम हमें ज्ञान के प्रति ‘समर्पण’ की शिक्षा देता है।

 

इसी के बलबूते हनुमान जी ने अष्ट सिद्धियों और सभी नौ निधियों की प्राप्ति की।

 

राम अयोध्या राम की, सरयु नदी के तीर।
जहाँ राम आराधना, जहाँ दर्श रघुवीर।।
 
श्री राम जय राम जय जय राम
सियावर रामचन्द्र की जय
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